+ वचन-सम्बन्धी व्यापार की निवृत्ति के हेतु का कथन -
णाणाजीवा णाणाकम्मं णाणाविहं हवे लद्धी ।
तम्हा वयणविवादं सगपरसमएहिं वज्जिज्जो ॥156॥
नानाजीवा नानाकर्म नानाविधा भवेल्लब्धिः ।
तस्माद्वचनविवादः स्वपरसमयैर्वर्जनीयः ॥१५६॥
हैं जीव नाना, कर्म नाना, लब्धि नानाविध कही ।
अतएव ही निज - परसमय के साथ वर्जित वाद भी ॥१५६॥
अन्वयार्थ : [नानाजीवाः] नाना प्रकार के जीव हैं,[नानाकर्म] नाना प्रकार का कर्म है; [नानाविधा लब्धिः भवेत्] नाना प्रकार की लब्धि है; [तस्मात्] इसलिये [स्वपरसमयैः] स्व-समयों तथा परसमयों के साथ (स्वधर्मियों तथा परधर्मियों के साथ) [वचनविवादः] वचन-विवाद [वर्जनीयः] वर्जने योग्य है ।
Meaning : There are various kinds of (mundane) souls, karmic bondages are of multifarious varieties, and Labdhis (Acquisitions of knowledge, etc.,) are of different kinds. Therefore, one should avoid entering into (mere) verbal controversies with one's own co-religionists or those professing other faith.

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
वाग्विषयव्यापारनिवृत्तिहेतूपन्यासोऽयम् ।
जीवा हि नानाविधाः मुक्ता अमुक्ताः, भव्या अभव्याश्च । संसारिणः त्रसाः स्थावराः;द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियसंज्ञ्यसंज्ञिभेदात् पंच त्रसाः, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः । भाविकाले स्वभावानन्तचतुष्टयात्मसहजज्ञानादिगुणैः भवनयोग्या भव्याः, एतेषां विपरीता ह्यभव्याः । कर्म नानाविधं द्रव्यभावनोकर्मभेदात्, अथवा मूलोत्तरप्रकृतिभेदाच्च, अथतीव्रतरतीव्रमंदमंदतरोदयभेदाद्वा । जीवानां सुखादिप्राप्तेर्लब्धिः कालकरणोपदेशोपशम-प्रायोग्यताभेदात् पञ्चधा । ततः परमार्थवेदिभिः स्वपरसमयेषु वादो न कर्तव्य इति ।
(कलश--शिखरिणी)
विकल्पो जीवानां भवति बहुधा संसृतिकरः
तथा कर्मानेकविधमपि सदा जन्मजनकम् ।
असौ लब्धिर्नाना विमलजिनमार्गे हि विदिता
ततः कर्तव्यं नो स्वपरसमयैर्वादवचनम् ॥२६७॥



यह, वचन-सम्बन्धी व्यापार की निवृत्ति के हेतु का कथन है (अर्थात् वचन-विवाद किसलिये छोड़ने योग्य है उसका कारण यहाँ कहा है)

जीव नाना प्रकार के हैं : मुक्त हैं और अमुक्त, भव्य और अभव्य, संसारी-त्रस और स्थावर । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा (पंचेन्द्रिय) संज्ञी तथा (पंचेन्द्रिय) असंज्ञी ऐसे भेदों के कारण त्रस जीव पाँच प्रकार के हैं । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति यह (पाँच प्रकार के) स्थावर जीव हैं । भविष्य-काल में स्वभाव - अनन्त - चतुष्टयात्मक सहजज्ञानादि गुणों रूप से *भवन के योग्य (जीव ) वे भव्य हैं; उनसे विपरीत (जीव) वे वास्तव में अभव्य हैं । द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म ऐसे भेदों के कारण, अथवा (आठ) मूल प्रकृति और (एक सौ अड़तालीस) उत्तर प्रकृतिरूप भेदों के कारण, अथवा तीव्रतर, तीव्र, मंद और मंदतर उदयभेदों के कारण, कर्म नाना प्रकार का है । जीवों को सुखादि की प्राप्तिरूप लब्धिकाल, करण, उपदेश, उपशम और प्रायोग्यतारूप भेदों के कारण पाँच प्रकार की है । इसलिये परमार्थ के जाननेवालों को स्वसमयों तथा परसमयों के साथ वाद करने योग्य नहीं है ।

(कलश--हरिगीत)
संसारकारक भेद जीवों के अनेक प्रकार हैं ।
भव जन्मदाता कर्म भी जग में अनेक प्रकार हैं ॥
लब्धियाँ भी हैं विविध इस विमल जिनमारग विषें ।
स्वपरमत के साथ में न विवाद करना चाहिए ॥२६७॥
जीवों के, संसार के कारणभूत ऐसे (त्रस, स्थावर आदि) बहुत प्रकार के भेद हैं; इसीप्रकार सदा जन्म का उत्पन्न करनेवाला कर्म भी अनेक प्रकार का है; यह लब्धि भी विमल जिनमार्ग में अनेक प्रकार की प्रसिद्ध है; इसलिये स्व-समयों और पर-समयों के साथ वचन-विवाद कर्तव्य नहीं है ।

*भवन = परिणमन; होना सो ।