+ दर्शन-भ्रष्ट की विनय नहीं -
जे वि पडंति य तेसिं जाणंता लज्जगारवभयेण
तेसिं पि णत्थि बोही पावं अणुमोयमाणाणं ॥13॥
येऽपि पतन्ति च तेषां जानन्‍त: लज्जगारवभयेन ।
तेषामपि नास्ति बोधि: पापं अनुमन्यमानानाम्‌ ॥१३॥
जो लाज गारव और भयवश पूजते दृगभ्रष्ट को ।
की पाप की अनुोदना ना बोधि उनको प्राप्त हो ॥१३॥
अन्वयार्थ : [लज्ज] लज्जा, [गारव] गर्व [च] और [भयेण] भय वश [तेसिं] मिथ्यादृष्टियों के चरणों में, [जेपि] जो [तेसिं] उनको [जाणंता] जानते हुए भी, [पडंति] पड़ते है, [पावं] पाप की [अणुमो] अनुमोदन [अमाणाणं] करने वालों को [पि] भी [बोहि] रत्नत्रय की प्राप्ति [णत्थि] नही होती ।

  जचंदछाबडा 

जचंदछाबडा :

यहाँ लज्ज तो इसप्रकार है कि हम किसी की विनय नहीं करेंगे तो लोग कहेंगे यह उद्धत है, मानी है, इसलिए हमें तो सर्व का साधन करना है । इसप्रकार लज्ज से दर्शनभ्रष्ट के भी विनयादिक करते हैं तथा भय इसप्रकार है कि यह राज्यमान्य है और मंत्र, विद्यादिक की सामर्थ्ययुक्त है, इसकी विनय नहीं करेंगे तो कुछ हमारे ऊपर उपद्रव करेगा; इसप्रकार भय से विनय करते हैं तथा गारव तीन प्रकार कहा है; रसगारव, ऋद्धिगारव, सातगारव । वहाँ रसगारव तो ऐसा है कि मिष्ट, इष्ट, पुष्ट भोजनादि मिलता रहे, तब उससे प्रमादी रहता है तथा ऋद्धिगारव ऐसा है कि कुछ तप के प्रभाव आदि से ऋद्धि की प्राप्ति हो उसका गौरव आ जाता है, उससे उद्धत, प्रमादी रहता है तथा सातगारव ऐसा है कि शरीर निरोग हो, कुछ क्लेश का कारण न आये तब सुखीपना आ जाता है, उससे मग्न रहते हैं - इत्यादिक गारवभाव की मस्ती से भले-बुरे का कुछ विचार नहीं करता, तब दर्शनभ्रष्ट की भी विनय करने लग जाता है । इत्यादि निमित्त से दर्शन-भ्रष्ट की विनय करे तो उसमें मिथ्यात्व का अनुमोदन आता है; उसे भला जाने तो आप भी उसी समान हुआ, तब उसके बोधि कैसे कही जाये ? ऐसा जानना ॥१३॥