+ इस ही अर्थ को दृढ़ करते हैं -
ण वि देहो वंदिज्जइ ण वि य कुलो ण वि य जाइसंजुतो
को वंदमि गुणहीणो ण हु सवणो णेय सावओ होइ ॥27॥
नापि देहो वन्‍द्यते नापि च कुलं नापि च जातिसंयुक्त: ।
क: वन्‍द्यते गुणहीन: न खलु श्रमण: नैव श्रावक: भवति ॥२७॥
ना वंदना हो देह की कुल की नहीं ना जाति की ।
कोई करे क्यों वंदना गुणहीन श्रावक-साधु की ॥२७॥
अन्वयार्थ : [ण वि] न ही [देहो] शरीर की [वंदिज्जइ] वन्दना करी जाती है, न [कुलो] कुल की वन्दना करी जाती है और न [जाइ] जाति [संजुत्तो] से युक्त की वन्दना करी जाती है । [को] किस गुणहीन की [वंदमि] वन्दना करू ? क्योकि [गुणहीणो] गुण से हीन, न तो [सवणो] मुनि है और न ही [सावओ] श्रावक है ।

  जचंदछाबडा 

जचंदछाबडा :

लोक में भी ऐसा न्याय है जो गुणहीन हो उसको कोई श्रेष्ठ नहीं मानता है, देह रूपवान हो तो क्या, कुल बड़ा हो तो क्या, जाति बड़ी हो तो क्या, क्योंकि मोक्षमार्ग में तो दर्शन-ज्ञान-चारित्र गुण हैं, इनके बिना जाति-कुल-रूप आदि वंदनीय नहीं हैं, इनसे मुनि-श्रावकपणा नहीं आता है, मुनि-श्रावकपणा तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र से होता है, इसलिए इनके धारक हैं वही वंदने योग्य हैं, जाति, कुल आदि वंदने योग्य नहीं हैं ॥२७॥