+ ज्ञान आदि के उत्तरोत्तर सारपना -
णाणं णरस्स सारो सारो वि णरस्स होइ सम्मत्तं
सम्मत्तओ चरणं चरणाओ होइ णिव्वाणं ॥31॥
ज्ञानं नरस्य सार: सार: अपि नरस्य भवति सम्यक्त्वम्‌ ।
सम्यक्त्वात्‌ चरणं चरणात्‌ भवति निर्वाणम्‌ ॥३१॥
ज्ञान ही है सार नर का और समकित सार है ।
सम्यक्त्व से हो चरण अर चारित्र से निर्वाण है ॥३१॥
अन्वयार्थ : [णाणं] ज्ञान [णरस्स] जीव का [सारो] सारभूत है,और ज्ञान की अपेक्षा [सम्मत्तं] सम्यक्त्व [सारोवि] सारभूत [होइ] है क्योकि [सम्मत्ताओ] सम्यक्त्व से ही [चरणं] चरित्र होता है, [चरणाओ] चरित्र से [णिव्वाणं] निर्वाण की प्राप्ति होती है ।

  जचंदछाबडा 

जचंदछाबडा :

चारित्र से निर्वाण होता है और चारित्र ज्ञानपूर्वक सत्यार्थ होता है तथा ज्ञान सम्यक्त्वपूर्वक सत्यार्थ होता है, इसप्रकार विचार करने से सम्यक्त्व के सारपना आया । इसलिए पहिले तो सम्यक्त्व सार है; पीछे ज्ञान चारित्र सार है । पहिले ज्ञान से पदार्थों को जानते हैं अत: पहिले ज्ञान सार है तो भी सम्यक्त्व बिना उसका भी सारपना नहीं है, ऐसा जानना ॥३१॥