
इट्ठे इच्छाकारो मिच्छाकारो तहेव अवराहे
पडिसुणणाह्मि तहत्तिय णिग्गमणे आसिया भणिया ॥126॥
पविसंते य णिसीही आपुच्छणियासकज्ज आरम्भे
साधम्मिणा य गुरुणा पुव्वणिसिट्ठह्यि पडिपुच्छा ॥127॥
छंदणगहिदे दव्वे अगहिददव्वेणिमंतणा भणिदा
तुह्यमहंतिगुरुकुले आदणिसग्गो दु उवसंपा ॥128॥
अन्वयार्थ : इष्ट विषय में इच्छाकार, उसी प्रकार अपराध में मिथ्याकार, प्रतिपादित के विषय में तथा 'ऐसा ही है' ऐसा कथन तथाकार और निकलने में आसिका का कथन किया गया है । प्रवेश करने में निषेधिका तथा अपने कार्य के आरम्भ में आपृच्छा करनी होती है । सहधर्मी साधु और गुरु से पूर्व में ली गई वस्तु को पुन: ग्रहण करने में प्रतिपृच्छा होती है । ग्रहण की हुई वस्तु में उसकी अनुकूलता रखना छन्दन है । अगृहीत द्रव्य के विषय में याचना करना निमन्त्रणा है और गुरु के संघ में 'मैं आपका हूँ' ऐसा आत्म-समर्पण करना उपसम्पत् कहा गया है ।