प्रभाचन्द्राचार्य :
कानि पुनस्तानि त्रीणि मूढानि यदमूढत्वं तस्य संसारोच्छेदसाधनं स्यादिति चेदुच्यते, लोकदेवतापाखण्डिमूढभेदात् त्रीणि मूढानि भवन्ति। तत्र लोकमूढं तावद्दर्शयन्नाह- लोकमूढं लोकमूढत्वम् ? किम् ? आपगासागरस्नानम् आपगा नदी सागर: समुद्र: तत्र श्रेय: साधनाभिप्रायेण यत्स्नानं न पुन: शरीरप्रक्षालनाभिप्रायेण । तथा उच्चय: स्तूपविधानम् । केषाम् ? सिकताश्मनां सिकता वालुका, अश्मान: पाषाणस्तेषां । तथा गिरिपातो भृगुपातादि: । अग्रिपातश्च अग्रिप्रवेश: । एवमादि सर्वं लोकमूढं निगद्यते प्रतिपाद्यते ॥२२॥ |
आदिमति :
नदी, सागरादि में धर्मबुद्धि कल्याण का साधन समझकर, स्नान करना लोकमूढ़ता कही गई है, किन्तु शरीर प्रक्षालन के अभिप्राय से स्नान करना लोकमूढता नहीं है । तथा बालू और पत्थरों के ऊँचे ढेर लगाकर स्तूप बनाना, पर्वतों से भृगुपात करना अर्थात् पर्वतों की चोटी से गिरकर आत्मघात करना, अग्रि में प्रविष्ट हो जाना, इत्यादि कार्यों के करने में धर्म मानना वह लोकमूढ़ता है । |
सदासुखदास :
संसार में 'धर्म' ऐसा नाम तो समस्त लोक कहता है, परन्तु 'धर्म' शब्द का अर्थ तो इस प्रकार है - जो नरक-तिर्यंचादि गतियों में परिभ्रमण-रूप दु:खों से आत्मा को छुडाकर उत्तम, आत्मीक, अविनाशी, अतीन्द्रिय, मोक्ष सुख में धर दे, वह धर्म है । ऐसा धर्म मोल (पैसा के बदले में) नहीं आता है, जो धन खर्च करके दान-सन्मानादि द्वारा ग्रहण कर ले; किसी का दिया नहीं मिलता है, जो सेवा-उपासना द्वारा प्रसन्न करके ले लिया जाय; मंदिर, पर्वत, जल, अग्नि, देवमूर्ति, तीर्थक्षेत्रादि में नहीं रखा है, जो वहाँ जाकर ले आयें; उपवास, व्रत, कायक्लेशादि तप से भी नहीं मिलता तथा शरीरादि कृश करने से भी नहीं मिलता है । देवाधिदेव के मंदिर में उपकरण-दान, मण्डल-पूजन आदि करके; घर छोड़कर वन-श्मशान आदि में निवास करने से तथा परमेश्वर के नाम-जाप आदि करके भी धर्म नहीं मिलता है । 'धर्म' तो आत्मा का स्वभाव है । पर-द्रव्यों में आत्मबुद्धि छोड़कर अपने ज्ञाता दृष्टारूप स्वभाव का श्रद्धान, अनुभव (ज्ञान) और ज्ञायक स्वभाव में ही प्रवर्तनरूप जो आचरण है, वह धर्म है । जब उत्तम-क्षमादि दशलक्षण-रूप अपने आत्मा का परिपालन तथा रत्नत्रय-रूप और जीवों की दया-रूप अपने आत्मा की परिणति होगी, तब अपना आत्मा आप ही घर्म-रूप हो जायगा । परद्रव्य, क्षेत्र, कालादिक तो निमित्त मात्र हैं । जिस समय यह आत्मा रागादिरूप परिणति छोड़कर वीतराग-रूप हुआ दिखाई देता है तभी मंदिर, प्रतिमा, तीर्थ, दान, तप, जप समस्त ही धर्मरूप हैं; और यदि अपना आत्मा उत्तम क्षमादिरूप, वीतरागता-रूप , सम्यग्ज्ञान-रूप नहीं होता है; तो बाहर कहीं भी धर्म नहीं होगा । यदि शुभराग होगा तो पुण्यबंध होगा; और यदि अशुभ राग द्वेष, मोह होगा तो पापबन्ध होगा । जहाँ शुद्ध श्रद्धान-ज्ञान-आचरण स्वरूप धर्म है वहाँ बंध का अभाव है । बंध का अभाव होने पर ही उत्तम सुख होता है । |