+ आठमद के नाम -
ज्ञानं पूजां कुलं जातिं, बलमृद्धिं तपो वपु:
अष्टावाश्रित्य मानित्वं, स्मयमाहुर्गतस्मया: ॥25॥
अन्वयार्थ : अपने [ज्ञानं] ज्ञान, [पूजां] पूजा, [कुलं] कुल, [जातिं] जाति, [बलाम्] बल, [ऋद्धिम्] वैभव, [तप] तप [च] और [वपु:] रूप इन [अष्टौ] आठों का [आश्रित्य] आश्रय लेकर [मानित्वम्] गर्वित होने को [गत्स्मया:] गर्व से रहित गणधर आदिक [स्मयम्] गर्व / मद [आहू:] कहते हैं ॥२५॥

  प्रभाचन्द्राचार्य    आदिमति    सदासुखदास 

प्रभाचन्द्राचार्य :

क: पुनरयं स्मय: कतिप्रकारश्चेत्याह-
आहु ब्रुवन्ति । कम् ? स्मयम् । के ते ? गतस्मया: नष्टमदा: जिना: । किं तत् ? मानित्वं गर्वित्वम् । किं कृत्वा ? अष्टावाश्रित्य । तथा हि ज्ञानमाश्रित्य ज्ञानमदो भवति एवं पूजां कुलं जातिं बलम् ऋद्धिमैश्वर्यं तपो वपु: शरीरसौन्दर्यमाश्रित्य पूजादिमदो भवति । ननु शिल्पमदस्य नवमस्य प्रसक्तेरष्टाविति सङ्‍ख्यानुपपन्ना इत्यप्ययुक्तं तस्य ज्ञाने एवान्तर्भावात् ॥२५॥
आदिमति :

जिनका मद नष्ट हो गया है, ऐसे जिनेन्द्रदेव ज्ञानादिक आठ वस्तुओं के आश्रय से जो गर्व उत्पन्न होता है, उसे मद कहते हैं । अपने क्षायोपशमिक ज्ञान का घमण्ड करना ज्ञानमद कहलाता है । अपनी पूजा-प्रतिष्ठा-सम्मान आदि का गर्व करना पूजामद है । पिता के वंश को कुल कहते हैं । इसका अहंकार करना कुल मद है । माता के वंश को जाति कहते हैं, जाति का गर्व करना जातिमद है । शारीरिक शक्ति का गर्व करना बलमद है। बुद्धि या धन-वैभव का गर्व करना ऋद्धिमद है । अनशनादि तपों का अहंकार करना तपमद है । स्वस्थ-सुन्दर शरीर को पाकर उसका घमण्ड करना शरीरमद है ।

यहाँ कोई शंका करता है कि कला-कौशल का भी तो मद होता है, इसलिए नौ मद होग ये । अत: आपके द्वारा बतायी गयी मदों की आठ संख्या सिद्ध नहीं होती ? इसके उत्तर में टीकाकार का कहना है कि शिल्प का मद ज्ञानमद में ही गर्भित हो जाता है । इसलिए नौवाँ मद मानने की कोई आवश्यकता नहीं है।
सदासुखदास :

संसार में 'धर्म' ऐसा नाम तो समस्त लोक कहता है, परन्तु 'धर्म' शब्द का अर्थ तो इस प्रकार है - जो नरक-तिर्यंचादि गतियों में परिभ्रमण-रूप दु:खों से आत्मा को छुडाकर उत्तम, आत्मीक, अविनाशी, अतीन्द्रिय, मोक्ष सुख में धर दे, वह धर्म है । ऐसा धर्म मोल (पैसा के बदले में) नहीं आता है, जो धन खर्च करके दान-सन्मानादि द्वारा ग्रहण कर ले; किसी का दिया नहीं मिलता है, जो सेवा-उपासना द्वारा प्रसन्न करके ले लिया जाय; मंदिर, पर्वत, जल, अग्नि, देवमूर्ति, तीर्थक्षेत्रादि में नहीं रखा है, जो वहाँ जाकर ले आयें; उपवास, व्रत, कायक्लेशादि तप से भी नहीं मिलता तथा शरीरादि कृश करने से भी नहीं मिलता है । देवाधिदेव के मंदिर में उपकरण-दान, मण्डल-पूजन आदि करके; घर छोड़कर वन-श्मशान आदि में निवास करने से तथा परमेश्वर के नाम-जाप आदि करके भी धर्म नहीं मिलता है ।

'धर्म' तो आत्मा का स्वभाव है । पर-द्रव्यों में आत्मबुद्धि छोड़कर अपने ज्ञाता दृष्टारूप स्वभाव का श्रद्धान, अनुभव (ज्ञान) और ज्ञायक स्वभाव में ही प्रवर्तनरूप जो आचरण है, वह धर्म है । जब उत्तम-क्षमादि दशलक्षण-रूप अपने आत्मा का परिपालन तथा रत्नत्रय-रूप और जीवों की दया-रूप अपने आत्मा की परिणति होगी, तब अपना आत्मा आप ही घर्म-रूप हो जायगा । परद्रव्य, क्षेत्र, कालादिक तो निमित्त मात्र हैं । जिस समय यह आत्मा रागादिरूप परिणति छोड़कर वीतराग-रूप हुआ दिखाई देता है तभी मंदिर, प्रतिमा, तीर्थ, दान, तप, जप समस्त ही धर्मरूप हैं; और यदि अपना आत्मा उत्तम क्षमादिरूप, वीतरागता-रूप , सम्यग्ज्ञान-रूप नहीं होता है; तो बाहर कहीं भी धर्म नहीं होगा । यदि शुभराग होगा तो पुण्यबंध होगा; और यदि अशुभ राग द्वेष, मोह होगा तो पापबन्ध होगा । जहाँ शुद्ध श्रद्धान-ज्ञान-आचरण स्वरूप धर्म है वहाँ बंध का अभाव है । बंध का अभाव होने पर ही उत्तम सुख होता है ।