+ पाप त्याग का उपदेश -
यदि पापनिरोधोऽन्यसम्पदा किं प्रयोजनम्
अथ पापास्रवोऽस्त्यन्यसम्पदा किं प्रयोजनम् ॥27॥
अन्वयार्थ : यदि [पापनिरोध:] पाप का आश्रव रुक जाता है तो [अन्यसम्पदा] अन्य सम्पति से [किं] क्या [प्रयोजनम्] प्रयोजन है? और [अथ] यदि [पापास्रवो] पाप का आस्रव होता रहता [अस्ति] है तो [अन्यसम्पदा] अन्य सम्पत्ति से क्या प्रयोजन है ? ॥२७॥

  प्रभाचन्द्राचार्य    आदिमति    सदासुखदास 

प्रभाचन्द्राचार्य :

ननु कुलैश्वर्यादिसम्पन्नै: स्मय: कथं निषेद्धुं शक्य इत्याह --
‘पापं ज्ञानावरणाद्यशुभं कर्म निरुद्ध्यते येनासौ’ पापनिरोधो रत्नत्रयसद्भाव: स यद्यस्ति तदा अन्यसम्पदा अन्यस्य कुलैश्वर्यादे: सम्पदा सम्पत्त्या किं प्रयोजनम् ? न किमपि प्रयोजनं तन्निरोधेऽतोऽप्यधिकाया विशिष्टतरायास्तत्सम्पद: सद्भावमवबुद्ध्यमानस्य तन्निबन्धनस्मयस्यानुत्पत्ते: । अथ पापास्रवोऽस्ति पापस्याशुभकर्मण: आस्रवो मिथ्यात्वाविरत्यादिरस्ति तथाप्यन्यसम्पदा किं प्रयोजनम् । अग्रे दुर्गतिगमनादिकम् अवबुद्ध्यमानस्य तत्सम्पदा प्रयोजनाभावतस्तत्स्मयस्य कर्तुमनुचितत्वात् ॥२७॥
आदिमति :

प्रश्र यह है कि कुल-ऐश्वर्य आदि सम्पत्ति से सहित मनुष्य मद को कैसे रोके ? उत्तर स्वरूप बतलाया है कि विवेकी जनों को ऐसा विचार करना चाहिये कि यदि मेरे ज्ञानावरणादि अशुभ कर्मों के आस्रव को रोकने वाले रत्नत्रय-धर्म का सद्भाव है, तो मुझे कुल-ऐश्वर्य आदि अन्य सम्पदा से क्या प्रयोजन है ? क्योंकि उससे भी श्रेष्ठतम सम्पत्ति-रूप रत्नत्रयधर्म मेरे पास विद्यमान है । इस प्रकार का विवेक होने से उन कुल ऐश्वर्यादि के निमित्त से अहङ्कार नहीं होता । इसके विपरीत यदि ज्ञानावरणादि अशुभ कर्मरूप पाप का आस्रव हो रहा है -- मिथ्यात्व, अविरति आदि आस्रवभाव विद्यमान हैं तो अन्य सम्पदा से क्या प्रयोजन है ? क्योंकि उस पापास्रव से दुर्गति गमन आदि फल की प्राप्ति नियम से होगी, ऐसा विचार करने से कुल ऐश्वर्य आदि का गर्व दूर हो जाता है ।
सदासुखदास :

संसार में 'धर्म' ऐसा नाम तो समस्त लोक कहता है, परन्तु 'धर्म' शब्द का अर्थ तो इस प्रकार है - जो नरक-तिर्यंचादि गतियों में परिभ्रमण-रूप दु:खों से आत्मा को छुडाकर उत्तम, आत्मीक, अविनाशी, अतीन्द्रिय, मोक्ष सुख में धर दे, वह धर्म है । ऐसा धर्म मोल (पैसा के बदले में) नहीं आता है, जो धन खर्च करके दान-सन्मानादि द्वारा ग्रहण कर ले; किसी का दिया नहीं मिलता है, जो सेवा-उपासना द्वारा प्रसन्न करके ले लिया जाय; मंदिर, पर्वत, जल, अग्नि, देवमूर्ति, तीर्थक्षेत्रादि में नहीं रखा है, जो वहाँ जाकर ले आयें; उपवास, व्रत, कायक्लेशादि तप से भी नहीं मिलता तथा शरीरादि कृश करने से भी नहीं मिलता है । देवाधिदेव के मंदिर में उपकरण-दान, मण्डल-पूजन आदि करके; घर छोड़कर वन-श्मशान आदि में निवास करने से तथा परमेश्वर के नाम-जाप आदि करके भी धर्म नहीं मिलता है ।

'धर्म' तो आत्मा का स्वभाव है । पर-द्रव्यों में आत्मबुद्धि छोड़कर अपने ज्ञाता दृष्टारूप स्वभाव का श्रद्धान, अनुभव (ज्ञान) और ज्ञायक स्वभाव में ही प्रवर्तनरूप जो आचरण है, वह धर्म है । जब उत्तम-क्षमादि दशलक्षण-रूप अपने आत्मा का परिपालन तथा रत्नत्रय-रूप और जीवों की दया-रूप अपने आत्मा की परिणति होगी, तब अपना आत्मा आप ही घर्म-रूप हो जायगा । परद्रव्य, क्षेत्र, कालादिक तो निमित्त मात्र हैं । जिस समय यह आत्मा रागादिरूप परिणति छोड़कर वीतराग-रूप हुआ दिखाई देता है तभी मंदिर, प्रतिमा, तीर्थ, दान, तप, जप समस्त ही धर्मरूप हैं; और यदि अपना आत्मा उत्तम क्षमादिरूप, वीतरागता-रूप , सम्यग्ज्ञान-रूप नहीं होता है; तो बाहर कहीं भी धर्म नहीं होगा । यदि शुभराग होगा तो पुण्यबंध होगा; और यदि अशुभ राग द्वेष, मोह होगा तो पापबन्ध होगा । जहाँ शुद्ध श्रद्धान-ज्ञान-आचरण स्वरूप धर्म है वहाँ बंध का अभाव है । बंध का अभाव होने पर ही उत्तम सुख होता है ।