+ सम्यग्दृष्टि कुदेवादिक को नमन ना करे -
भयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवागमलिङ्‍गिनाम्
प्रणामं विनयं चैव न कुर्य्युः शुद्धदृष्टयः ॥30॥
अन्वयार्थ : [शुद्धदृष्ट्य:] सम्यग्दृष्टी जीव [भयाशा-स्नेह-लोभाच्च] भय से, आशा से, प्रेम से अथवा लोभ से [कुदेवागमलिङ्गिनाम्] कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरुओं को [प्रणामम्] प्रणाम [च] और [विनयम्] विनय [एव] भी [न कुर्य्यु:] नहीं करे ॥३०॥

  प्रभाचन्द्राचार्य    आदिमति    सदासुखदास 

प्रभाचन्द्राचार्य :

तथानुतिष्ठता दर्शनम्लानता मूलतोऽपि न कर्तव्येत्याह --
शुद्धदृष्टयो निर्मलसम्यक्त्वा: न कुर्यु: । कम् ? प्रणामम् उत्तमाङ्गेनोपनतिम् । विनयं चैव करमुकुलप्रशंसादिलक्षणम् । केषाम् ? कुदेवागमलिङ्गिनाम् । कस्मादपि ? भयाशास्नेहलोभाच्च भयं राजादिजनितम्, आशा च भाविनोऽर्थस्य प्राप्त्याकाङ्क्षा, स्नेहश्च मित्रानुराग:, लोभश्च वर्तमानकालेऽर्थप्राप्तिगृद्धि: भयाशास्नेहलोभं तस्मादपि। च शब्दोऽप्यर्थ: ॥३०॥
आदिमति :

राजा आदि से उत्पन्न होने वाले आतंक को भय कहते हैं । भविष्य में धनादिक-प्राप्ति की वांछा आशा कहलाती है। मित्र के अनुराग को स्नेह कहते हैं । वर्तमानकाल में धन प्राप्ति की जो गृद्धता अर्थात् आसक्ति होती है, उसे लोभ कहते हैं । जिसका सम्यक्त्व निर्मल है ऐसा शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव इन चारों कारणों से अर्थात् भय, आशा, स्नेह, लोभ के वश से कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरु को न तो प्रणाम करे, मस्तक झुकाकर नमस्कार करे और न उनकी विनय करे- हाथ जोड़े तथा न प्रशंसा आदि के वचन कहे ।
सदासुखदास :

संसार में 'धर्म' ऐसा नाम तो समस्त लोक कहता है, परन्तु 'धर्म' शब्द का अर्थ तो इस प्रकार है - जो नरक-तिर्यंचादि गतियों में परिभ्रमण-रूप दु:खों से आत्मा को छुडाकर उत्तम, आत्मीक, अविनाशी, अतीन्द्रिय, मोक्ष सुख में धर दे, वह धर्म है । ऐसा धर्म मोल (पैसा के बदले में) नहीं आता है, जो धन खर्च करके दान-सन्मानादि द्वारा ग्रहण कर ले; किसी का दिया नहीं मिलता है, जो सेवा-उपासना द्वारा प्रसन्न करके ले लिया जाय; मंदिर, पर्वत, जल, अग्नि, देवमूर्ति, तीर्थक्षेत्रादि में नहीं रखा है, जो वहाँ जाकर ले आयें; उपवास, व्रत, कायक्लेशादि तप से भी नहीं मिलता तथा शरीरादि कृश करने से भी नहीं मिलता है । देवाधिदेव के मंदिर में उपकरण-दान, मण्डल-पूजन आदि करके; घर छोड़कर वन-श्मशान आदि में निवास करने से तथा परमेश्वर के नाम-जाप आदि करके भी धर्म नहीं मिलता है ।

'धर्म' तो आत्मा का स्वभाव है । पर-द्रव्यों में आत्मबुद्धि छोड़कर अपने ज्ञाता दृष्टारूप स्वभाव का श्रद्धान, अनुभव (ज्ञान) और ज्ञायक स्वभाव में ही प्रवर्तनरूप जो आचरण है, वह धर्म है । जब उत्तम-क्षमादि दशलक्षण-रूप अपने आत्मा का परिपालन तथा रत्नत्रय-रूप और जीवों की दया-रूप अपने आत्मा की परिणति होगी, तब अपना आत्मा आप ही घर्म-रूप हो जायगा । परद्रव्य, क्षेत्र, कालादिक तो निमित्त मात्र हैं । जिस समय यह आत्मा रागादिरूप परिणति छोड़कर वीतराग-रूप हुआ दिखाई देता है तभी मंदिर, प्रतिमा, तीर्थ, दान, तप, जप समस्त ही धर्मरूप हैं; और यदि अपना आत्मा उत्तम क्षमादिरूप, वीतरागता-रूप , सम्यग्ज्ञान-रूप नहीं होता है; तो बाहर कहीं भी धर्म नहीं होगा । यदि शुभराग होगा तो पुण्यबंध होगा; और यदि अशुभ राग द्वेष, मोह होगा तो पापबन्ध होगा । जहाँ शुद्ध श्रद्धान-ज्ञान-आचरण स्वरूप धर्म है वहाँ बंध का अभाव है । बंध का अभाव होने पर ही उत्तम सुख होता है ।