+ सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान चारित्र की असम्भवता -
विद्यावृत्तस्य सम्भूति-स्थितिवृद्धिफलोदया:
न सन्त्यसति सम्यक्त्वे, बीजाभावे तरोरिव ॥32॥
अन्वयार्थ : [बिजाभावे] बीज के अभाव में [तरो:इव] वृक्ष की तरह [सम्यक्त्वे असति] सम्यग्दर्शन के न होने पर [विद्यावृत्तस्य] ज्ञान और चरित्र की [सम्भूति-स्थितिवृद्धिफलोदया:] उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फल प्राप्ति [न सन्ति] नहीं होती ॥३२॥

  प्रभाचन्द्राचार्य    आदिमति    सदासुखदास 

प्रभाचन्द्राचार्य :

ननु चास्योत्कृष्टत्वे सिद्धे कर्णधारत्वं सिद्ध्यति तच्च कुत: सिद्धमित्याह-
सम्यक्त्वेऽसति अविद्यमाने। न सन्ति। के ते ? सम्भूतिस्थितिवृद्धिफलोदया: । कस्य ? विद्यावृत्तस्य । अयमर्थ:- विद्याया मतिज्ञानादिरूपाया: वृत्तस्य च सामायिकादिचारित्रस्य या सम्भूति: प्रादुर्भाव:, स्थितिर्यथावत्पदार्थपरिच्छेदकत्वेन कर्मनिर्जरादिहेतुत्वेन चावस्थानं, वृद्धिरुत्पन्नस्य परतर उत्कर्ष: फलोदयो देवादिपूजाया स्वर्गापवर्गादेश्च फलस्योत्पत्ति: । कस्याभावे कस्येव ते न स्युरित्याह- बीजाभावे तरोरिव बीजस्य मूलकारणस्याभावे यथा तरोस्ते न सन्ति तथा सम्यक्त्वस्यापि मूलकारणभूतस्याभावे विद्यावृत्तस्यापि ते न सन्तीति ॥३२॥
आदिमति :

विद्या-मतिज्ञानादि और वृत्त-सामायिकादि चारित्र इनका प्रादुर्भाव, स्थिति-जैसा वस्तु का स्वरूप है वैसा जानना, तथा कर्म निर्जरा के हेतुरूप से अवस्थान होना, वृद्धि-उत्पन्न होकर आगे-आगे बढ़ते जाना फलोदय-देवादिक की पूजा से स्वर्ग-मोक्ष फल की प्राप्ति होना है। जिस प्रकार 'बीजाभावे तरोरिव' मूल कारणरूप बीज के अभाव में वृक्ष की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फल की प्राप्ति नहीं होती, उसी प्रकार मूल कारणभूत सम्यग्दर्शन के अभाव में ज्ञान तथा चारित्र की न उत्पत्ति होती है, न स्थिति होती है, न वृद्धि होती है और न फल की प्राप्ति ही होती है ।
सदासुखदास :

संसार में 'धर्म' ऐसा नाम तो समस्त लोक कहता है, परन्तु 'धर्म' शब्द का अर्थ तो इस प्रकार है - जो नरक-तिर्यंचादि गतियों में परिभ्रमण-रूप दु:खों से आत्मा को छुडाकर उत्तम, आत्मीक, अविनाशी, अतीन्द्रिय, मोक्ष सुख में धर दे, वह धर्म है । ऐसा धर्म मोल (पैसा के बदले में) नहीं आता है, जो धन खर्च करके दान-सन्मानादि द्वारा ग्रहण कर ले; किसी का दिया नहीं मिलता है, जो सेवा-उपासना द्वारा प्रसन्न करके ले लिया जाय; मंदिर, पर्वत, जल, अग्नि, देवमूर्ति, तीर्थक्षेत्रादि में नहीं रखा है, जो वहाँ जाकर ले आयें; उपवास, व्रत, कायक्लेशादि तप से भी नहीं मिलता तथा शरीरादि कृश करने से भी नहीं मिलता है । देवाधिदेव के मंदिर में उपकरण-दान, मण्डल-पूजन आदि करके; घर छोड़कर वन-श्मशान आदि में निवास करने से तथा परमेश्वर के नाम-जाप आदि करके भी धर्म नहीं मिलता है ।

'धर्म' तो आत्मा का स्वभाव है । पर-द्रव्यों में आत्मबुद्धि छोड़कर अपने ज्ञाता दृष्टारूप स्वभाव का श्रद्धान, अनुभव (ज्ञान) और ज्ञायक स्वभाव में ही प्रवर्तनरूप जो आचरण है, वह धर्म है । जब उत्तम-क्षमादि दशलक्षण-रूप अपने आत्मा का परिपालन तथा रत्नत्रय-रूप और जीवों की दया-रूप अपने आत्मा की परिणति होगी, तब अपना आत्मा आप ही घर्म-रूप हो जायगा । परद्रव्य, क्षेत्र, कालादिक तो निमित्त मात्र हैं । जिस समय यह आत्मा रागादिरूप परिणति छोड़कर वीतराग-रूप हुआ दिखाई देता है तभी मंदिर, प्रतिमा, तीर्थ, दान, तप, जप समस्त ही धर्मरूप हैं; और यदि अपना आत्मा उत्तम क्षमादिरूप, वीतरागता-रूप , सम्यग्ज्ञान-रूप नहीं होता है; तो बाहर कहीं भी धर्म नहीं होगा । यदि शुभराग होगा तो पुण्यबंध होगा; और यदि अशुभ राग द्वेष, मोह होगा तो पापबन्ध होगा । जहाँ शुद्ध श्रद्धान-ज्ञान-आचरण स्वरूप धर्म है वहाँ बंध का अभाव है । बंध का अभाव होने पर ही उत्तम सुख होता है ।