+ श्रेय और अश्रेय का कथन -
न सम्यक्त्वसमं किञ्चित्, त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि
श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्व-समं नान्यत्तनूभृताम् ॥34॥
अन्वयार्थ : [तनूभृताम्] प्राणियों के [त्रैकाल्ये] तीनों कालों और [त्रिजगत्यपि] तीनों लोकों में भी [सम्यक्त्वसमं] सम्यग्दर्शन के समान [श्रेय:] कल्याणरूप और मिथ्यादर्शन के समान [अश्रेय:] अकल्याणरूप [किंचित] किंचित [अन्यत्] दूसरा [न] नहीं है ।

  प्रभाचन्द्राचार्य    आदिमति    सदासुखदास 

प्रभाचन्द्राचार्य :

यत एवं तत:-
तनुभृतां संसारिणाम् । सम्यक्त्वसमं सम्यक्त्वेन समं तुल्यम् । श्रेया श्रेष्ठमुत्तमोपकारकम् । किञ्चित् अन्यवस्तु नास्ति । यतस्तस्मिन् सति गृहस्थोऽपि यतेरप्युत्कृष्टतां प्रतिपद्यते । कदा तन्नास्ति ? त्रैकाल्ये अतीतानागतवर्तमानकालत्रये । तस्मिन् क्व तन्नास्ति ? त्रिजगत्यपि आस्तां तावन्नियतक्षेत्रादौ तन्नास्ति अपितु त्रिजगत्यपि त्रिभुवनेऽपि । तथा अश्रेयो अनुपकारकम् । मिथ्यात्वसमं किञ्चिदन्यन्नास्ति । यतस्तत्सद्भावे यतिरपि व्रतसंयमसम्पन्नो गृहस्थादपि तद्विपरीतादपकृष्टतां व्रजतीति ॥३४॥
आदिमति :

संसारी जीवों के लिए भूत, भविष्यत् और वर्तमानरूप तीनों कालों में और अधोलोक, मध्यलोक और ऊध्र्वलोक के भेद से तीनों लोकों में सम्यग्दर्शन के समान श्रेष्ठ उत्तम कल्याणकारक कोई दूसरी वस्तु नहीं है । क्योंकि सम्यक्त्व के रहने से गृहस्थ भी मुनि से अधिक उत्कृष्टता को प्राप्त हो जाता है । तथा तीनों कालों और तीनों लोकों में मिथ्यात्व के समान कोई भी अनुपकारक-अकल्याणप्रद नहीं है, क्योंकि उसके सद्भाव में व्रत और संयम से सम्पन्न मुनि भी गृहस्थ की अपेक्षा हीनता को प्राप्त होता है ।
सदासुखदास :

संसार में 'धर्म' ऐसा नाम तो समस्त लोक कहता है, परन्तु 'धर्म' शब्द का अर्थ तो इस प्रकार है - जो नरक-तिर्यंचादि गतियों में परिभ्रमण-रूप दु:खों से आत्मा को छुडाकर उत्तम, आत्मीक, अविनाशी, अतीन्द्रिय, मोक्ष सुख में धर दे, वह धर्म है । ऐसा धर्म मोल (पैसा के बदले में) नहीं आता है, जो धन खर्च करके दान-सन्मानादि द्वारा ग्रहण कर ले; किसी का दिया नहीं मिलता है, जो सेवा-उपासना द्वारा प्रसन्न करके ले लिया जाय; मंदिर, पर्वत, जल, अग्नि, देवमूर्ति, तीर्थक्षेत्रादि में नहीं रखा है, जो वहाँ जाकर ले आयें; उपवास, व्रत, कायक्लेशादि तप से भी नहीं मिलता तथा शरीरादि कृश करने से भी नहीं मिलता है । देवाधिदेव के मंदिर में उपकरण-दान, मण्डल-पूजन आदि करके; घर छोड़कर वन-श्मशान आदि में निवास करने से तथा परमेश्वर के नाम-जाप आदि करके भी धर्म नहीं मिलता है ।

'धर्म' तो आत्मा का स्वभाव है । पर-द्रव्यों में आत्मबुद्धि छोड़कर अपने ज्ञाता दृष्टारूप स्वभाव का श्रद्धान, अनुभव (ज्ञान) और ज्ञायक स्वभाव में ही प्रवर्तनरूप जो आचरण है, वह धर्म है । जब उत्तम-क्षमादि दशलक्षण-रूप अपने आत्मा का परिपालन तथा रत्नत्रय-रूप और जीवों की दया-रूप अपने आत्मा की परिणति होगी, तब अपना आत्मा आप ही घर्म-रूप हो जायगा । परद्रव्य, क्षेत्र, कालादिक तो निमित्त मात्र हैं । जिस समय यह आत्मा रागादिरूप परिणति छोड़कर वीतराग-रूप हुआ दिखाई देता है तभी मंदिर, प्रतिमा, तीर्थ, दान, तप, जप समस्त ही धर्मरूप हैं; और यदि अपना आत्मा उत्तम क्षमादिरूप, वीतरागता-रूप , सम्यग्ज्ञान-रूप नहीं होता है; तो बाहर कहीं भी धर्म नहीं होगा । यदि शुभराग होगा तो पुण्यबंध होगा; और यदि अशुभ राग द्वेष, मोह होगा तो पापबन्ध होगा । जहाँ शुद्ध श्रद्धान-ज्ञान-आचरण स्वरूप धर्म है वहाँ बंध का अभाव है । बंध का अभाव होने पर ही उत्तम सुख होता है ।