प्रभाचन्द्राचार्य :
तथा चक्रवर्तित्वमपि त एव प्राप्रुवन्तीत्याह- ये स्पष्टदृशो निर्मलसम्यक्त्वा: । त एव चक्रं चक्ररत्नम् । वर्तयितुम् आत्माधीनतया तत्साध्यनिखिलकार्येषु प्रवर्तयितुम्। प्रभवन्ति ते समर्था भवन्ति । कथम्भूता: ? सर्वभूमिपतय: सर्वा चासौ भूमिश्च षट्खण्डपृथ्वी तस्या: पतय: चक्रवर्तिन: । पुनरपि कथम्भूता: ? नवनिधिसप्तद्वयरत्नाधीशा नवनिधयश्च सप्तद्वयरत्नानि सप्तानां द्वय तेन सङ्ख्यातानि रत्नानि चतुर्दश तेषामधीशा: स्वामिन: । क्षत्रमौलिशेखरचरणा: क्षताद्दोषात् त्रायन्ते रक्षन्ति प्राणिनो ये ते क्षत्रा राजानस्तेषां मौलयो मुकुटानि तेषु शेखरा आपीठास्तेषु चरणानि येषाम् ॥३८॥ |
आदिमति :
निर्मल सम्यग्दर्शन के धारक मनुष्य ही चक्ररत्न को चलाने में समर्थ होते हैं अर्थात् अपने अधीन होने से उसे उसके द्वारा साध्य समस्त कार्यों में प्रवर्ताने के लिए समर्थ होते हैं। तथा वे सर्वभूमि- षट्खण्ड के अधिपति चक्रवर्ती होते हैं । नौ निधियों और चौदह रत्नों के स्वामी होते हैं, जो दोषों से प्राणियों की रक्षा करते हैं ऐसे राजाओं के मुकुटों की कलगियों पर उन चक्रवर्ती के चरण रहते हैं अर्थात् समस्त पृथ्वी के मुकुटबद्ध राजा मस्तक झुकाकर चक्रवर्ती के चरणों में नमस्कार करते हैं । |