+ दिग्व्रत के अतिचार -
ऊर्ध्वाधस्तात्तिर्यग्व्यतिपाताः क्षेत्रवृद्धिरवधीनाम्
विस्मरणं दिग्विरतेरत्याशाः पञ्च मन्यन्ते ॥73॥
अन्वयार्थ : अज्ञान अथवा प्रमाद से [ऊर्ध्व] ऊपर, [अधस्तात्] नीचे [तिर्यग्] और समान धरातल की [व्यतिपाताः] सीमा का उल्लंघन करना, [क्षेत्रवृद्धि] क्षेत्र की मर्यादा को बढ़ा लेना और [अवधीनाम्] की हुई मर्यादा को [विस्मरणम्] भूल जाना, ये [पञ्च] पाँच [दिग्विरते:] दिग्विरति व्रत के [अत्याशा:] अतिचार [मन्यन्ते] माने जाते हैं ।

  प्रभाचन्द्राचार्य    आदिमति    सदासुखदास 

प्रभाचन्द्राचार्य :

इदानीं दिग्विरतिव्रतस्यातिचारानाह --
दिग्विरतेरत्याशा अतीचारा: पञ्च मन्यन्तेऽ भ्युपगम्यन्ते । तथा हि । अज्ञानात् प्रमादाद्वा ऊध्र्वदिशोऽधस्ताद्दिशस्तिर्यग्दिशश्च व्यतीपाता विशेषेणातिक्रमणानि त्रय:। तथाऽज्ञानात् प्रमादाद्वा क्षेत्रवृद्धि: क्षेत्राधिक्यावधारणम् । तथाऽवधीनां दिग्विरते: कृतमर्यादानां विस्मरण मिति ॥
आदिमति :

दिग्व्रत के पाँच अतिचार है । अज्ञान अथवा प्रमाद के ऊपर पर्वतादि पर चढ़ते समय, नीचे कुए आदि में उतरते समय और तिर्यग् अर्थात् समतल पृथ्वी पर चलते समय की हुई मर्यादा को भूलकर सीमा का उल्लंघन करना । प्रमाद अथवा अज्ञानता से किसी दिशा का क्षेत्र बढ़ा लेना और व्रत लेते समय दसों दिशाओं की जो मर्यादा की थी, उसे भूल जाना । ये पाँच अतिचार दिग्व्रत के हैं ।