+ अनर्थदण्ड के भेद -
पापोपदेशहिंसादानापध्यानदुःश्रुतीः पञ्च
प्राहुः प्रमादचर्यामनर्थदण्डानदण्डधराः ॥75॥
अन्वयार्थ : [अदण्डधराः] गणधरदेवादिक [पापोपदेशहिंसादानापध्यानदुःश्रुतीः] पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दु:श्रुति और [प्रमादचर्याम्] प्रमादचर्या [पंच] इन पाँच को [अनर्थदण्डान्] अनर्थदण्ड [प्राहु:] कहते हैं ।

  प्रभाचन्द्राचार्य    आदिमति    सदासुखदास 

प्रभाचन्द्राचार्य :

अथ के ते अनर्थदण्डा यतो विरमणं स्यादित्याह --
दण्डा इव दण्डा अशुभमनोवाक्काया: परपीडाकरत्वात्, तान्न धरन्तीत्यदण्डधरा गणधरदेवादयस्ते प्राहु: । कान् ? अनर्थदण्डान् । कति ? ‘पञ्च’ । कथमित्याह पापेत्यादि । पापोपदेशश्च हिंसादानं च अपध्यानं च दु:श्रुतिश्च एताश्चतस्र: प्रमादचर्या चेति पञ्‍चामी ॥
आदिमति :

दण्ड-मन, वचन, काय के अशुभ व्यापार को दण्ड कहते हैं । क्योंकि ये दण्डों के समान परपीड़ाकारक होते हैं । उन दण्डों को नहीं धारण करने वाले गणधरादि देवों ने पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दु:श्रुति और प्रमादचर्या इन पाँच को अनर्थदण्ड कहा है । इन पाँचों से निवृत्त होना ही पाँच प्रकार का अनर्थदण्डव्रत है ।