+ प्रमादचर्या अनर्थदण्ड -
क्षितिसलिलदहनपवनारम्भं विफलं वनस्पतिच्छेदम्
सरणं सारणमपि च प्रमादचर्यां प्रभाषन्ते ॥80॥
अन्वयार्थ : [विफलं] निष्प्रयोजन [क्षिति] पृथिवी, [सलिल] पानी, [दहन] अग्रि और [पवन] वायु सम्बन्धी पाप करना, [वनस्पतिच्छेदम्] वनस्पति का छेदना, [सरणं] स्वयं घूमना [च] और [सारणम्] दूसरों को घुमाना [अपि] भी, इस सबको प्रमादचर्या नाम का अनर्थदण्ड [प्रभाषन्ते] कहते हैं ।

  प्रभाचन्द्राचार्य    आदिमति    सदासुखदास 

प्रभाचन्द्राचार्य :

अधुना प्रमादचर्यास्वरूपं निरूपयन्नाह --
प्रभाषन्ते प्रतिपादयन्ति । काम् ? प्रमादचर्याम् । किं तदित्याह -- क्षितीत्यादि । क्षितिश्च सलिलं च दहनश्च तेषामारम्भं क्षितिखननसलिलप्रक्षेपणदहनप्रज्वलनपवनकरणलक्षणम् । किंविशिष्टम् ? विफलं निष्प्रयोजनम् । तथा वनस्पतिच्छेदं विफलम् । न केवलमेतदेव किन्तु सरणं सारणमपि च सरणं स्वयं निष्प्रयोजनं पर्यटनं सारणमन्यस्य निष्प्रयोजनं गमनप्रेरणम् ॥
आदिमति :

प्रमादचर्या का प्रतिपादन करते हैं, तद्यथा -- निष्प्रयोजन पृथ्वी को खोदना, पानी छिडक़ना, अग्रि जलाना, हवा करना, निष्कारण फल-फूलादि वनस्पति को तोडऩा, इतना ही नहीं किन्तु निष्प्रयोजन स्वयं घूमना और दूसरों को घुमाना, यह सब प्रमादचर्या नामक अनर्थदण्ड है । इससे निवृत्त होना प्रमादचर्या अनर्थदण्डव्रत हैं ।