+ वैयावृत्य का लक्षण -
दानं वैयावृत्त्यं धर्माय तपोधनाय गुणनिधये
अनपेक्षितोपचारोपक्रियमगृहाय विभवेन ॥111॥
अन्वयार्थ : [तपोधनाय] तपरूप धन से युक्त तथा [गुणनिधये] सम्यग्दर्शनादि गुणों के भण्डार [अगृहाय] गृहत्यागी-मुनीश्वर के लिए [विभवेन] विधि, द्रव्य आदि सम्पत्ति के अनुसार [अनपेक्षितोपचारोपक्रियम्] प्रतिदान और प्रत्युपकार की अपेक्षा से रहित [धर्माय] स्व-पर के धर्म की वृद्धि के लिए जो [दानम्] दान दिया जाता है, वह [वैयावृत्त्यं] वैयावृत्य कहलाता है ।

  प्रभाचन्द्राचार्य    आदिमति    सदासुखदास 

प्रभाचन्द्राचार्य :

इदानीं वैयावृत्यलक्षणशिक्षाव्रतस्य स्वरूपं प्ररूपयन्नाह --
भोजनादिदानमपि वैयावृत्यमुच्यते । कस्मै दानम् ? तपोधनाय तप एव धनं यस्य तस्मै । किंविशिष्टाय ? गुणनिधये गुणानां सम्यग्दर्शनादीनां निधिराश्रयस्तस्मै । तथाऽगृहाय भावद्रव्यागाररहिताय किमर्थम् ? धर्माय धर्मनिमित्तम् । किंविशिष्टं तद्दानम् ? अनपेक्षितोपचारोपक्रियम् उपचार: प्रतिदानम् उपक्रिया मन्त्रतन्त्रादिना प्रत्युपकरणं ते न अपेक्षिते येन । कथं तद्दानम् ? विधिद्रव्यादिसम्पदा ॥
आदिमति :

तप ही जिनका धन है तथा सम्यग्दर्शनादि गुणरूप निधि जिनके आश्रित है, ऐसे भाव आगार और द्रव्य आगार से रहित मुनीश्वरों के लिए धर्म के निमित्त प्रतिदान और मन्त्रतन्त्रादि प्रति उपकार की भावना की अपेक्षा से रहित आहारादि का दान देना वैयावृत्य कहलाता है ।