
प्रभाचन्द्राचार्य :
साम्प्रतं योऽसौ सल्लेखनानुष्ठाता श्रावकस्तस्य कति प्रतिमा भवन्तीत्याशङ्क्याह -- देशितानि प्रतिपादितानि। कानि? श्रावकपदानि श्रावकगुणस्थानानि श्रावकप्रतिमा इत्यर्थ: । कति ? एकादश । कै: ? देवैस्तीर्थङ्करै: । येषु श्रावकपदेषु खलु स्फुटं सन्तिष्ठन्तेऽवस्थितिं कुर्वन्ति । के ते ? स्वगुणा: स्वकीयगुणस्थानसम्बद्धा: गुणा: । कै: सह ? पूर्वगुणै: पूर्वगुणस्थानवर्तिगुणै: सह । कथम्भूता: ? क्रमविवृद्धा: सम्यग्दर्शनमादिं कृत्वा एकादशपर्यन्तमेकोत्तरवृद्ध्या क्रमेण विशेषेण वर्धमाना: ॥ |
आदिमति :
श्रावक के जो पद—स्थान हैं, वे श्रावक की प्रतिमा कहलाती हैं । तीर्थङ्कर ने श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ कही हैं, उन प्रतिमाओं में अपनी-अपनी प्रतिमाओं से सम्बन्धित गुण पिछली प्रतिमाओं से सम्बन्ध रखकर क्रम से वृद्धि को प्राप्त होते हुए (सम्यग्दर्शन को आदि लेकर ग्यारह प्रतिमा तक) विशेषरूप से बढ़ जाते हैं । अर्थात् अगली प्रतिमाओं में स्थित पुरुष को पूर्व की प्रतिमा से सम्बन्धित गुणों का परिपालन करना अनिवार्य है । |