+ मुनियों के गुणों की प्रशंसा -
यदेतत्स्वच्छन्दं विहरणमकार्पण्यमशनं
सहायै: संवासः श्रुतमुपशमैकश्रमफलम् ।
मनो मन्दस्पन्दं बहिरपि चिरायाति विमृशन्
न जाने कस्येयं परिणतिरुदारस्य तपसः ॥६७॥
अन्वयार्थ : साधु जनों का जो यह स्वतन्त्रतापूर्वक विहार (गमनागमन प्रवृत्ति), दीनता (याचना) से रहित भोजन, गुणी जनों की संगति, शास्त्रस्वाध्यायजनित परिश्रम के फलस्वरूप रागादि की उपशान्ति, तथा बाह्य पर पदार्थों में मन्द प्रवृत्तिवाला मन है; वह सब कौन-से महान तप का परिणाम है, इसे मैं बहुत काल से अतिशय विचार करने पर भी नहीं जानता हूं ॥67॥
Meaning : The itinerary of the ascetics is at their free will; their partaking of food is without pleading; they live in the company of virtuous people; due to the effort of studying the Scripture, their faults like attachment (rāga) subside; and their tranquil mind, engrossed in the contemplation of the Self, reflects hardly on externalities. Even after deep deliberation for a long time, I just do not know what great austerities have endowed them with such attributes!

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- यहां गृहस्थों की अपेक्षा साधु जनों को किस प्रकार का सुख प्राप्त होता है, इसका विचार करते हुए सबसे पहिले यह बतलाया है कि उनका गमनागमन व्यवहार स्वतन्त्रता से होता है- वे अज्ञानी प्राणियों को सम्बोधित करने के लिये जहां भी जाना चाहते हैं निर्भयतापूर्वक जाते हैं। परन्तु गृहस्थों का जाना-आना व्यापारादि की परतन्त्रता के कारण से ही होता है। इसलिये उन्हें उससे सुख नहीं प्राप्त होता । इसके अतिरिक्त उनके पास कुछ न कुछ परिग्रह भी रहता है, इसलिये वे उन निर्ग्रन्थ साधुओं के समान यत्र तत्र स्वतन्त्रता से जा-आ भी नहीं सकते हैं- उन्हें चोर एवं हिंस्र जन्तुओं आदि का भय भी पीडित करता है । इसके अलावा मुनियों का भोजन जिस प्रकार याचना से रहित होता है उस प्रकार का भोजन गृहस्थों का नहीं होता। कारण यह कि उन गृहस्थों में जो दरिद्र हैं वे तो प्रत्यक्ष में याचना करके ही उदरपूर्ति करते हैं। किन्तु जो धनवान् हैं वे भी जिह्वालम्पटता के कारण घर में तैयार किये गये अनेक प्रकार के पदार्थों में इच्छानुसार स्वादिष्ट पदार्थों की याचना किया ही करते हैं। फिर भी उन्हें जिह्वाइन्द्रिय पर विजय प्राप्त कर लेनेवाले उन मुनियों के समान सुख नहीं प्राप्त होता जो कि केवल शरीर को स्थिर रखने के लिये विधिपूर्वक अयाचकवृत्ति से ही आहार ग्रहण करते हैं, न कि स्वादपरतासे । तथा जिस प्रकार मुनियों का सहवास गुणवान् अन्य मुनिजनों के साथ और योग्य सद्गृहस्थों के साथ ही होता है उस प्रकार गृहस्थों का नहीं होता- वे स्वार्थवश योग्यायोग्य का विचार न करके जिस किसी के भी साथ सहवास करते हैं । मुनि जहां अपने समय को राग-द्वेषादि को दूर करनेवाले शास्त्रस्वाध्यायादि कार्यों में बिताते हैं वहां गृहस्थ का सब समय प्रायः विषयों के संग्रह में ही बीतता है, जिससे कि वह सदा राग-द्वेष से कलुषित और व्याकुल रहता है। मुनियों का मन जहां कदाचित ही बाह्य पदार्थों की ओर जाता है वहां गृहस्थों का मन प्रायः निरन्तर बाह्य पदार्थों में ही प्रवृत्त रहता है । इस प्रकार वह साधुओं की प्रवृत्ति अवश्य ही किसी महान् तप के फलस्वरूप है जो कि सर्वसाधारण को दुर्लभ ही है। इससे निश्चित है कि जो सुख स्वतन्त्रता में है वह पराधीनता में कभी नहीं प्राप्त हो सकता है ॥६७॥