
भावार्थ :
विशेषार्थ- यहां मनुष्य पर्याय को काने गन्ने के समान नि:स्सार बतलाकर उसके द्वारा योग्य संयम एवं तप आदि का आचरण करके परभव को सुधारने की प्रेरणा की गई है । उन दोनों में समानता इस प्रकार से है- जैसे गन्ना पोरों से संयुक्त होता है वैसे वह मनुष्य पर्याय अनेक प्रकार के दुःखोंरूप पोरों से संयुक्त है, जिस प्रकार गन्ना अन्त (अन्तिम भाग) में नीरस या फीका होता है उसी प्रकार मनुष्य शरीर भी अन्त में (वृद्धावस्था में) नीरस (आनन्द से रहित) होता है, गन्ना यदि मूल (जड) में उपभोग्य के (चूसने के) योग्य नहीं होता है तो वह मनुष्य शरीर भी मूल (बाल्यावस्था) में उपभोग के अयोग्य होता है, गन्ना जहां वनस्पति में होने वाले रोगों से ग्रसित होकर यत्र तत्र छेदयुक्त हो जाता है वहां मनुष्य शरीर भी क्षुधा एवं घाव आदि रोगों से छेदयुक्त (दुर्बल) हो जाता है, तथा जिस प्रकार गन्ना भीतर सारभाग से रहित होता है उसी प्रकार मनुष्य शरीर भी सार (श्रेष्ठवस्तु) से रहित होता है इस प्रकार दोनों में समानता होने पर जिस प्रकार किसान उस गन्ने को गांठों को बीज के रूपमें सुरक्षित रखकर उनसे पुन: उसकी सुन्दर फसल को उत्पन्न करता है उसी प्रकार विवेकी जन का भी कर्तव्य है कि वे उस निःसार मनुष्य शरीर को आगामी भव का (देवादि पर्याय अथवा सिद्ध पर्याय) का बीज (साधन) बनाकर उसे सफलीभूत करें ॥८१॥ |