+ गुरु के कठोर वचन भी हितकारी हैं -
विकाशयन्ति भव्यस्य मनोमुकुलमंशवः ।
रवेरिवारविन्दस्य कठोराश्च गुरूक्तयः ॥१४२॥
अन्वयार्थ : कठोर भी गुरु के वचन भव्य जीव के मन को इस प्रकार से प्रफुल्लित (आनन्दित) करते हैं जिस प्रकार कि सूर्य की कठोर (सन्तापजनक) भी किरणें कमल की कली को प्रफुल्लित किया करती हैं ॥१४२॥
Meaning : Even harsh words of the preceptor blossom the heart of the worthy disciple just as even the intense rays of the sun blossom the lotus-bud.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- पूर्व श्लोक में शिष्य के दोषों को प्रगट न करने वाले जिस गुरु की निन्दा की गई है उसके विषय में यह शंका उपस्थित हो सकती थी कि वह जो अपने शिष्य के दोषों को प्रगट नहीं करता है वह इस कारण से कि शिष्य किसी प्रकार की चिंता में न पडे या ऐसा करने से उसे किसी प्रकार का कष्ट न हो । अतएव वह गुरु निन्द्य नहीं कहा जा सकता है । इस शंका के उत्तरस्वरूप यहां यह बतलाया गया है कि जिस प्रकार सूर्य की किरणें अन्य प्राणियों के लिये यद्यपि कठोर (संतापकारक) प्रतीत होती हैं तो भी उनसे कमलकलिका तो प्रफुल्लित ही होती है। इसी प्रकार जो शिष्य आत्म हित से विमुख हैं उन्हें ही गुरु के हितकारक भी वचन कठोर प्रतीत होते हैं, किन्तु जो शिष्य आत्महित की अभिलाषा रखते हैं उनको तत्क्षण कठोर प्रतीत होने वाले भी वे वचन परिणाम में आनन्दजनक ही प्रतीत होते हैं- उन्हें इन कठोर वचनों से किसी प्रकार की चिन्ता व खेद नहीं होता है। इसके अतिरिक्त यह नीति भी तो प्रसिद्ध है कि " हितं मनोहारि च दुर्लभं वच:"। इस नीति के अनुसार छद्मस्थ प्राणियों के जो वचन परिणाम में हितकारक होते हैं वे प्रायः मनोहर नहीं प्रतीत होते हैं और जो वचन बाह्य में मनोहर प्रतीत होते हैं वे परिणाम में हितकारक नहीं होते हैं । अतएव शिष्य के हित को चाहने वाले गुरु को उसे योग्य मार्ग पर ले जाने के लिये यदि कदाचित् कठोर व्यवहार भी करना पडे तो दयाचित्त होकर उसे भी करना ही चाहिये । इस प्रकार से वह अपने कर्तव्य से च्युत नहीं होता है- उसका पालन ही करता है॥१४२॥