
भावार्थ :
विशेषार्थ- जीव जब संयम और तप आदि को धारण करता है तब उसका शरीर लोकवन्द्य बन जाता है। इस प्रकार से जो आत्मा उस घृणित एवं अपवित्र शरीर को लोकपूज्य बनाता है उसका अनुकरण न कर वह शरीर उसे निन्द्य चाण्डालादि पर्याय में प्राप्त कराकर स्पर्श करने के योग्य भी नहीं रहने देता है । इस तरह उस शरीर को देव-मनुष्यादि के द्वारा पूज्य बनाकर आत्मा तो उसका उपकार करता है, परन्तु वह शरीर कृतघ्न होकर उस उपकारी आत्मा के साथ इतना दुष्टतापूर्ण आचरण करता है कि उसे निन्द्य पर्याय में प्राप्त कराकर ऐसा हीन बना देता है कि विवेकी जन उसका स्पर्श भी नहीं करना चाहते हैं । अभिप्राय यह है कि जब आत्मा उस शरीर के सम्बन्ध से ही लोकनिन्द्य होकर अनेक प्रकार के दुःखों को सहता है तब ऐसे अहितकर शरीर के सम्बन्ध को सदा के लिये छोड देना चाहिये ॥२०९॥ |