
भावार्थ :
विशेषार्थ- किसी व्यक्ति के उदर में यदि बहुत काल से संचित होकर मल की वृद्धि हो जाती है तो उसका शरीर अस्वस्थ हो जाता है । ऐसी अवस्था में यदि वह बुद्धिमान् है तो योग्य औषधि के द्वारा वमन-विरेचन आदि करके उस संचित मल को नष्ट कर देता है। इससे वह स्वस्थ हो जाता है और उसका आगे का समय भी स्वस्थता के साथ आनन्दपूर्वक बीतता है । ठीक इसी प्रकार से सब संसारी जीवों के अनादि काल से महामोह की वृद्धि हो रही है। इससे वे निरन्तर दुखी रहते हैं। उनमें जो विवेकी जीव हैं वे बाह्य वस्तुओं से राग और द्वेष को छोडकर तप का आचरण करते हुए उस मोह को कम करते हैं । इस प्रकार अन्त में समीचीन ध्यान (धर्म व शुक्ल) के द्वारा उस महामोह को सर्वथा नष्ट करके वे भविष्य में अविनश्वर अनुपम सुख का अनुभव करते हैं ॥२५५॥ |