+ मोह-त्याग की प्रेरणा -
अनादिचयसंवृद्धो महामोहो हृदि स्थितः।
सम्यग्योगेन यैर्वान्तस्तेषामूर्ध्वम् विशुद्धयति ॥२५५॥
अन्वयार्थ : हृदय में स्थित जो महान् मोह अनादि काल से समान वृद्धि के द्वारा वृद्धि को प्राप्त हुआ है उसको जिन महापुरुषों ने समीचीन समाधि के द्वारा श्रान्त कर दिया है- नष्ट कर दिया है- उनका आगे का भव विशुद्ध होता है॥२५५॥
Meaning : The future birth of those great men who, through right meditation, eject from their hearts severe delusion (moha), accumulated and grown since beginningless time, becomes sublime.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- किसी व्यक्ति के उदर में यदि बहुत काल से संचित होकर मल की वृद्धि हो जाती है तो उसका शरीर अस्वस्थ हो जाता है । ऐसी अवस्था में यदि वह बुद्धिमान् है तो योग्य औषधि के द्वारा वमन-विरेचन आदि करके उस संचित मल को नष्ट कर देता है। इससे वह स्वस्थ हो जाता है और उसका आगे का समय भी स्वस्थता के साथ आनन्दपूर्वक बीतता है । ठीक इसी प्रकार से सब संसारी जीवों के अनादि काल से महामोह की वृद्धि हो रही है। इससे वे निरन्तर दुखी रहते हैं। उनमें जो विवेकी जीव हैं वे बाह्य वस्तुओं से राग और द्वेष को छोडकर तप का आचरण करते हुए उस मोह को कम करते हैं । इस प्रकार अन्त में समीचीन ध्यान (धर्म व शुक्ल) के द्वारा उस महामोह को सर्वथा नष्ट करके वे भविष्य में अविनश्वर अनुपम सुख का अनुभव करते हैं ॥२५५॥