गंथमिणं जिणदिठ्ठं ण हु, मण्णदि ण हु सुणेदि ण हु पढदि ।
ण हु चिंददि ण हु भावदि सो चेव हवेदि कुद्दिठ्ठी ॥167॥
ग्रन्थमिमं जिनदिष्टं न हि मन्यते, न हि श्रृणोति, न हि पठति ।
न हि चिन्व्यति, न हि भावयति, स चैव भवति कुदृष्टि: ॥
अन्वयार्थ : जिनेन्द्रदेव द्वारा उपदिष्ट (कथित) इस ग्रन्थ के अर्थ को जो नहीं मानता,नहीं सुनता, नहीं पढ़ता, नहीं चिन्तन करता और न ही भावना करता है, वह व्यक्ति मिथ्यादृष्टिहै ॥167॥