ण लहइ जायणसीले, ण संकिलेस्सेण रुद्देण ।
रागेण य रोसेण य, भुंजइ किं तवेंतरो भिक्खू ॥
न लभते याचनाशील:, न संक्लेशेन रौद्रेण ।
रागेण च रोषेण च, भुंक्ते किं ते व्यन्तरो भिक्षो ॥
अन्वयार्थ : हे भिक्षु! याचनाशील होकर आहार ग्रहण करते हो, और संक्लेश(मायालोभादि परिणाम), रौद्र भाव, राग भाव या रोष भाव के साथ जो आहार ग्रहण करते हो। ऐसा करना तुम्हारा क्या व्यन्तर जैसा नहीं है? ॥169॥