पं-जयचंदजी-छाबडा
001 - इष्टदेव को नमस्कार
002-003 - बारह-भावनाओं के नाम
004 - अनित्य अनुप्रेक्षा का सामान्य स्वरूप
005-006 - अनित्य-अनुप्रेक्षा का विशेष स्वरूप
007 - इन्द्रियों की क्षणिकता
008 - बंधुजनों का संयोग कैसा?
009 - देह-संयोग की अस्थिरता
010 - लक्ष्मी की अस्थिरता
011 - इसी को विशेष समझाते हैं
012 - प्राप्त लक्ष्मी का क्या करना चाहिए?
013 - लक्ष्मी की अनित्यता
014 - लक्ष्मी को गाड़ने वाला मूर्ख
015 - बचाकर रखने वाले का धन पर के लिए
016 - लक्ष्मी पर मोहित जीव की दशा
017-018 - लक्ष्मी का दास
019 - लक्ष्मी को धर्म-कार्य में लगाने वाले की प्रशंसा
020 - सत्कार्यों में धन खर्चने वाले का जन्म सफल
021 - मोह का महात्मय
022 - उपसंहार
023 - अशरण अनुप्रेक्षा का स्वरूप
024 - दृष्टांत
025 - इसी को दृढ़ करते हैं
026 - इसी को दृढ़ करते हैं
027 - शरण की कल्पना अज्ञान
028 - मरण आयु क्षय से
029 - इसी को दृढ़ करते हैं
030 - परमार्थ शरण
031 - निष्कर्ष
032-033 - संसार का सामान्य स्वरूप
034 - नरक-गति के दुःख
035 - नरक में पांच प्रकार के दुःख
036 - इसी को विशेष कहते हैं
037 - नरक के दुःख कहना संभव नहीं
038 - नरक का क्षेत्र और परिणाम दुखमयी
039 - नरक में दुःख बहुत काल तक
049 - पुण्यवान के भी इष्ट-वियोग सम्भव
050 - इसी को आगे और दृढ़ करते हैं
057 - कर्म-वशता
060 - मानसिक दुःख
061 - विषयों में पराधिनता ही दुःख
062 - संसार में सभी जगह दुःख
063 - मोह का महात्मय
064-065 - विचित्र संयोग
066 - पांच प्रकार का परिभ्रमण
067 - द्रव्य परावर्तन
068 - क्षेत्र परावर्तन
069 - काल परावर्तन
070 - भव परावर्तन
071 - भाव परावर्तन
072 - उपसंहार
074-076 - एकत्व अनुप्रेक्षा
077 - स्वजन भी दुःख के साथी नहीं
078 - वास्तव में धर्म ही शरण
079 - भेद-भावना की प्रेरणा
082 - उपसंहार
083 - अशुचि अनुप्रेक्षा का स्वरूप
084 - दुर्गंधित देह
085 - इसी को और विस्तार से बताते हैं
086 - इसी को और विस्तार से बताते हैं
087 - उपसंहार
088 - आस्रव अनुप्रेक्षा का स्वरूप
089 - मोह से आस्रव
090 - आस्रव के दो प्रकार
092 - तीव्र-कषाय
093 - आस्रव को हे जानकर त्यागने की प्रेरणा
094 - उपसंहार
095 - संवर अनुप्रेक्षा का स्वरूप
096 - इसी का विशेष कहते हैं
099 - चारित्र
100 - संवर बिना भव-भ्रमण
101 - उपसंहार
102 - निशल्य तप द्वारा निर्जरा
103 - निर्जरा का स्वरूप
104 - निर्जरा के दो प्रकार
105 - निर्जरा कैसे बढती है?
106-108 - निर्जरा की वृद्धी के स्थान
109 - अधिक निर्जरा के उपाय
110-111 - विज्ञानघन निर्ममत्व आत्म-सम्मुख के निर्जरा
112-113 - विनम्र के निर्जरा
114 - उपसंहार
पं-जयचंदजी-छाबडा
!!
श्रीसर्वज्ञवीतरागाय नम:
!!
श्रीमद्-कार्तिकेय-देव-प्रणीत
श्री
वारासाणुवेक्खा
मूल प्राकृत गाथा
आभार :
छाबडा
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