कायोत्सर्गायतांङ्गो, जयति जिनपतिर्नाभिसूनुर्महात्मा
मध्याह्ने यस्य भास्वा,-नुपरि परितो, राजते स्मोग्रूमूर्ति:
चक्रं कर्मेन्धनाना,-मतिबहु दहतो, दूरमौदास्यवात
स्फूर्यत् सद्ध्यानवह्ने,-रिव रुचिरतर:, प्रोद्गतो विस्फुलिंग: ॥1॥
प्रज्वलित जो वैराग्य पवन से, कर्मेन्धन को भस्म करें ।
जिनकी ध्यान-अग्नि से नभ में, फैले हैं स्फुलिंग अरे! ॥
वह मध्याह्न दिवाकर जिनके, ऊपर सदा सुशोभित है ।
कायोत्सर्गरूप मुद्रा अरु, जो विशाल तनधारी हैं ॥
अष्ट कर्म के परम विजेता, उत्तम पुरुषों के स्वामी ।
नाभिपुत्र जिनपति महात्मा, जयवन्तो अन्तर्यामी ॥
अन्वयार्थ : दोपहर के समय जिन आदीश्वर भगवान के ऊपर रहा हुआ तेजस्वी सूर्य, ज्ञानावरणादि कर्मरूपी इंर्धन को पल भर में भस्म करने वाली, वैराग्यरूपी पवन से जलाई हुई ध्यानरूपी अग्नि से उत्पन्न हुए मनोहर स्फुलिंगों के समान जान पड़ता है, ऐसे कायोत्सर्ग सहित विस्तीर्ण शरीर के धारी तथा अष्ट कर्मों के जीतने वाले उत्तम पुरुषों के स्वामी महात्मा श्री नाभिराय के पुत्र श्री ऋषभदेव भगवान सदा जयवन्त रहें ।