जीवतत्त्वप्रदीपिका :
आगे आलाप धरकर संख्या साधने के लिये अगला सूत्र कहते हैं -- प्रथम एक रूप (एक अंक = १) स्थापन करके ऊपर से अपने प्रमाण से गुणा करनेपर जो प्रमाण हो, उसमें से अनंकित स्थान का प्रमाण घटाना, ऐसे सर्वत्र करना । यहां जो भेद ग्रहण होगा उसके आगे के स्थानों की संख्या, उसको अनंकित कहते हैं । जैसे विकथा प्रमाद में प्रथम भेद स्त्रीकथा का ग्रहण हो, तो वहां उसके पश्चात् तीन स्थान शेष हैं, इसलिये अनंकित का प्रमाण तीन है । पुनश्च यदि भक्तकथा का ग्रहण हो तो उसके पश्चात् दो स्थान रहते हैं, इसलिये अनंकित स्थान दो हैं । पुनश्च यदि राष्ट्रकथा का ग्रहण हो तो उसके पश्चात् एक स्थान है, इसलिये अनंकित स्थान एक है । पुनश्च यदि अवनिपालकथा का ग्रहण हो तो उसके पश्चात् कोई भी नहीं है, इसलिये वहां अनंकित स्थान का अभाव है । इसीतरह कषाय, इन्द्रिय प्रमाद में भी अनंकित स्थान जानना । सो कोई कहे कि अमुक आलाप कितनेवां है ? वहां आलाप कहा, उसकी संख्या नहीं जान रहे, तो उसकी संख्या जानने को उद्दिष्ट कहते हैं । प्रथम एक रूप स्थापित करना, पुनश्च ऊपर के इन्द्रिय प्रमाद की संख्या पांच, उससे उस एक को गुणा करनेपर वहां अनंकित स्थानों की संख्या घटानेपर, अवशेष को उसके अनंतर नीचे का कषाय प्रमाद का पिंड की संख्या चार, उससे गुणा करके, वहां भी अनंकित स्थान घटाकर अवशेष को उसके अनंतर नीचे का विकथा प्रमाद का पिंड चार से गुणा करके, वहां भी अनंकित स्थान घटाकर अवशेष रहे, उतनी विवक्षित आलाप की संख्या होती है । इसीतरह सर्वत्र उत्तरगुण वा शील के भेदों में उद्दिष्ट लाने का अनुक्रम जानना । यहां भी उदाहरण दिखाते हैं - किसीने पूछा कि राष्ट्रकथालापी-लोभी-स्पर्शनइन्द्रिय के वशीभूत-निद्रालु-स्नेहवान ऐसा आलाप कितनेवां है ? वहां प्रथम एक रूप स्थापित कर उसको ऊपर का इन्द्रिय प्रमाद, उसकी संख्या पांच, उससे गुणा करनेपर पांच हुये । उस राशि में पंद्रहवें उद्दिष्ट की विवक्षा कर, उसमें पहला भेद स्पर्शनइन्द्रिय के वशीभूत ऐसा आलाप कहा था, इसलिये उसके पश्चात् रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र ये चार अनंकित स्थान हैं । इसलिये उनको घटानेपर अवशेष एक रहता हैं, उसको नीचे के कषाय प्रमाद की संख्या चार से गुणा करनेपर चार हुये, सो इस लब्धराशि चार में यहां आलाप में लोभी कहा था, सो लोभ के पश्चात् कोई भेद नहीं है, इसलिये अनंकित स्थान कोई नहीं है । इसकारण यहां शून्य घटाने पर, राशि वैसी कि वैसी रही, सो चार ही रहे । पुनश्च इस राशि को इसके नीचे के विकथा प्रमाद की संख्या चार, उससे गुणा करनेपर सोलह हुये । यहां आलाप में राष्ट्रकथालापी कहा, सो इसके पश्चात् एक भेद अवनिपालकथा है, इसलिये अनंकित स्थान एक घटानेपर, पंद्रह रहे, वही पूछा था उसका उत्तर ऐसा - राष्ट्रकथालापीलोभी-स्पर्शनइन्द्रिय के वशीभूत-निद्रालु-स्नेहवान ऐसा आलाप पंद्रहवां है । सो यह विधान दूसरे प्रस्तार की अपेक्षा से जानना । पुनश्च प्रथम प्रस्तार की अपेक्षा से नीचे से अनुक्रम जानना । वहां उदाहरण कहते हैं - स्नेहवान-निद्रालु-श्रोत्रइन्द्रिय के वशीभूत-मायावी-स्त्रीकथालापी ऐसा आलाप कितनेवां है ? वहा एक रूप स्थापित कर, प्रथम प्रस्तार अपेक्षा ऊपर का प्रमाद विकथा उसका प्रमाण चार से गुणा करनेपर चार हुये, सो यहां स्त्रीकथालापी कहा, सो इसके पश्चात् तीन भेद हैं । इसलिये अनंकित स्थान तीन घटानेपर अवशेष एक रहा, उसको कषाय प्रमाद चार से गुणा करनेपर चार हुये, सो यहां मायावी का ग्रहण है, उसके पश्चात् एक लोभ अनंकित स्थान है, उसको घटानेपर तीन रहे, इसको इन्द्रिय प्रमाद पांच से गुणा करनेपर पंद्रह हुये, सो यहां श्रोत्रइन्द्रिय का ग्रहण है । उसके पश्चात् कोई भेद नहीं है, इसलिये अनंकित स्थान का अभाव है । इसकारण शून्य घटानेपर भी पंद्रह ही रहे । इसतरह स्नेहवान-निद्रालु-श्रोत्रइन्द्रिय के वशीभूत-मायावी-स्त्रीकथालापी ऐसा आलाप पंद्रहवां है । इसीप्रकार विवक्षित प्रमाद के आलाप की संख्या होती है, ऐसे अक्ष धरकर संख्या को लाना, सो समुद्दिष्ट सर्वत्र साधना । विशेषार्थ – यहां अन्य उदाहरण से दृढ़ करते हैं । मान लो आलाप है - स्नेहवान-निद्रालु-घ्राणइन्द्रिय के वशीभूत-लोभी-भक्तकथालापी । इसे प्रथम प्रस्तार अपेक्षा देखते हैं । १-४ (विकथा) =४, भक्तकथालापी के बाद अनंकित स्थान दो : ४-२=२ २-४ (कषाय) =८, लोभ के बाद अनंकित स्थान नहीं : ८-०=८ ८-५ (इन्द्रिय) =४०, घ्राणइन्द्रिय के बाद अनंकित स्थान दो : ४०-२=३८ इसलिये यहां ३८ वां आलाप है ।) |