कथा :
संसार के द्वारा पूज्य और सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान का उद्योत करने वाले श्री जिनभगवान् को नमस्कार कर श्री समन्त भद्राचार्य की पवित्र कथा लिखता हूँ, जो कि सम्यक्चारित्र की प्रकाशक है । भगवान् समन्त भद्र का पवित्र जन्म दक्षिण प्रान्त के अन्तर्गत काँची नाम की नगरी में हुआ था । वे बड़े तत्वाज्ञानी और न्याय, व्याकरण, साहित्य आदि विषयों के भी बड़े भारी विद्वान् थे । संसार में उनकी बहुत ख्याति थी । वे कठिन से कठिन चारित्र का पालन करते, दुस्सह तप तपते और बड़े आनन्द से अपना समय आत्मानुभव, पठन-पाठन, ग्रन्थ-रचना आदि में व्यतीत करते । कर्मों का प्रभाव दुर्निवार है । उसके लिये राजा हो या रंक हो, धनी हो या निर्धन हो, विद्वान् हो या मूर्ख हो, साधु हो या गृहस्थ हो सब समान हैं, सब को अपने-अपने कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है । भगवान् समन्तभद्र के लिये भी एक ऐसा ही कष्ट का समय आया । वे बड़े भारी तपस्वी थे, विद्वान् थे, पर कर्मों ने इन बातों की कुछ परवा न कर उन्हें अपने चक्र में फँसाया । असाता-वेदनीय के तीव्र उदय से भस्म-व्याधि नाम का एक भयंकर रोग उन्हें हो गया । उससे वे जो कुछ खाते वह उसी समय भस्म हो जाता और भूख वैसी की वैसी बनी रहती । उन्हें इस बात का बड़ा कष्ट हुआ कि हम विद्वान् हुए और पवित्र जिन-शासन का संसार भर में प्रचार करने के लिये समर्थ भी हुए तब भी उसका कुछ उपकार नहीं कर पाते । इस रोग ने असमय में बड़ा कष्ट पहुँचाया । अस्तु ! अब कोई ऐसा उपाय करना चाहिये जिससे इसकी शान्ति हो । अच्छे-अच्छे स्निग्ध, सचिक्कण और पौष्टिक पक्वान्न का आहार करने से इसकी शान्ति हो सकेगी; इसलिये ऐसे भोजन का योग मिलाना चाहिये । पर यहाँ तो इसका कोई साधन नहीं दीख पड़ता । इसलिये जिस जगह, जिस तरह ऐसे भोजन की प्राप्ति हो सकेगी मैं वहीं जाऊँगा और वैसा ही उपाय करूँगा । यह विचार कर वे काँची से निकले और उत्तर की ओर रवाना हुए । कुछ दिनों तक चलकर वे पुण्ढ नगर में आये । वहाँ बौद्धों की एक बड़ी भारी दानशाला थी । उसे देखकर आचार्य ने सोचा, यह स्थान अच्छा है । यहाँ अपना रोग नष्ट हो सकेगा । इस विचार के साथ ही उन्होंने बुद्ध-साधु का वेष बनाया और दानशाला में प्रवेश किया । पर वहाँ उन्हें उनकी व्याधि-शान्ति के योग्य भोजन नहीं मिला । इसलिये वे फिर उत्तर की ओर आगे बढे़ और अनेक शहरों में घूमते हुए कुछ दिनों के बाद दशपुर-मन्दोसोर में आये । वहाँ उन्होंने भागवत-वैष्णवों का एक बड़ाभारी मठ देखा । उसमें बहुत से भागवत-सम्प्रदाय (परिव्राजक) के साधु रहते थे । उनके भक्त लोग उन्हें खूब अच्छा-अच्छा भोजन देते थे । यह देखकर उन्होंने बौद्ध-वेष को छोड़कर भागवत-साधु का वेष ग्रहण कर लिया । वहाँ वे कुछ दिनों तक रहे, पर उनकी व्याधि के योग्य उन्हें वहाँ भी भोजन नहीं मिला । तब वे वहाँ से भी निकलकर और अनेक देशों और पर्वतों में घूमते हुए बनारस आये । उन्होंने यद्यपि बाह्य में जैनमुनियों के वेष को छोड़कर कुलिंग धारण कर रक्खा था, पर इसमें कोई सन्देह नहीं कि उनके हृदय में सम्यग्दर्शन की पवित्र ज्योति जगमगा रही थी । इस वेष में वे ठीक ऐसे जान पड़ते थे, मानों कीचड़ से भरा हुआ कान्तिमान् रत्न हो । इसके बाद आचार्य योगलिंग धारणकर शहर में घूमने लगे । उस समय बनारस के राजा थे शिवकोटी थे । वे शिव के बड़े भक्त थे । उन्होंने शिव का एक विशाल मंदिर बनवाया था । वह बहुत सुन्दर था । उसमें प्रतिदिन अनेक प्रकार के व्यंजन शिव को भेंट चढ़ा करते थे । आचार्य ने देखकर सोचा कि यदि किसी तरह अपनी इस मन्दिर में कुछ दिनोंके लिये स्थिति हो जाय, तो निस्सन्देह अपना रोग शान्त हो सकता है । यह विचार वे कर ही रहे थे कि इतने में पुजारी लोग महादेव की पुजा करके बाहर आये और उन्होंने एक बड़ी भारी व्यंजनों की राशि, जो कि शिव की भेंट चढ़ाई गई थी, लाकर बाहर रख दी । उसे देखकर आचार्य ने कहा, क्या आप लोगों में ऐसी किसी की शक्ति नहीं जो महाराज के भेजे हुए इस दिव्य-भोजन को शिव की पूजा के बाद शिव को ही खिला सकें ? तब उन ब्राह्माणों ने कहा, तो क्या आप अपने में इस भोजन को शिव को खिलाने की शक्ति रखते हैं ? आचार्य ने कहा -- हाँ मुझमें ऐसी शक्ति है । सुनकर उन बेचारों को बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्होंने उसी समय जाकर यह हाल राजा से कहा -- प्रभो ! आज एक योगी आया है । उसकी बातें बड़ी विलक्षण हैं । हमने महादेव की पूजा करके उनके लिये चढ़ाया हुआ नैवेद्य बाहर लाकर रक्खा, उसे देखकर वह योगी बोला कि आश्चर्य है, आप लोग इस महा-दिव्य भोजन को पूजन के बाद महादेव को न खिलाकर पीछे उठा ले आते हो ! भला ऐसी पूजा से क्या लाभ ? उसने साथ ही यह भी कहा कि मुझमें ऐसी शक्ति है जिसके द्वारा यह सब भोजन मैं महादेव को खिला सकता हूँ । यह कितने खेद की बात है कि जिसके लिये इतना आयोजन किया जाता है, इतना खर्च उठाया जाता है, वह यों ही रह जाय और दूसरे ही उससे लाभ उठावें ? यह ठीक नहीं । इसके लिये कुछ प्रबन्ध होना चाहिये, जो जिसके लिये इतना परिश्रम और खर्च उठाया जाता है वही उसका उपयोग भी कर सके । महाराज को भी इस अभूतपूर्व बात के सुनने से बड़ा अचंभा हुआ । वे इस विनोद को देखने के लिये उसी समय अनेक प्रकार के सुन्दर और सुस्वादु पकवान अपने साथ लेकर शिव मन्दिर गये और आचार्य से बोले -- योगिराज ! सुना है कि आपमें कोई ऐसी शक्ति है, जिसके द्वारा शिवमूर्ति को भी आप खिला सकते हैं, तो क्या यह बात सत्य है तो लीजिये यह भोजन उपस्थित है, इसे महादेव की खिलाइये । उत्तर में आचार्य ने 'अच्छी बात है' यह कहकर राजा के लाये हुए सब पकवानों की मंदिर के भीतर रखवा दिया और सब पुजारी पंडों को मंदिर बाहर निकालकर भीतर से आपने मंदिर के किवाड़ बन्द कर लिये । आप भूखे तो खूब थे ही इसलिये थोड़ी ही देर में सब आहार को हजमकर आपने झट से मंदिर का दरवाजा खोल दिया और निकलते ही नौकरों को आज्ञा की कि सब बरतन बाहर निकाल लो । महाराज इस आश्चर्य को देखकर भौंचक से रह गये । वे राजमहल लौट गये । उन्होंने बहुत तर्क-वितर्क उठाये पर उनकी समझ में कुछ भी नहीं आया कि वास्तव में बात क्या है ? अब प्रतिदिन एक से एक बढ़कर पक्वान आने लगे और आचार्य महाराज भी उनके द्वारा अपनी व्याधि नाश करने लगे । इस तरह पूरे छह महिना बीत गये । आचार्य का रोग भी नष्ट हो गया । एक दिन आहारराशि को ज्यों की त्यों बनी हुई देखकर पुजारी-पण्डो ने उनसे पूछा, योगिराज ! क्या है ? क्यों आज यह सब आहार यों ही पड़ा रहा ? आचार्य ने उत्तर दिया -- राजा की परम भक्ति से भगवान् बहुत खुश हुए, वे अब तृप्त हो गये हैं । पर इस उत्तर से उन्हें सन्तोष नहीं हुआ । उन्होंने जाकर आहार के बाकी बचे रहने का हाल राजा से कहा । सुनकर राजा ने कहा -- अच्छा इस बात का पता लगाना चाहिये, कि वह योगी मंदिर के किवाड़ देकर भीतर क्या करता है ? जब इस बात का ठीक-ठीक पता लग जाय तब उससे भोजन के बचे रहने का कारण पूछा जा सकता है और फिर उसपर विचार भी किया जा सकता है । बिना ठीक हाल जाने उससे कुछ पूछना ठीक नहीं जान पड़ता । एक दिन की बात है कि आचार्य कहीं गये हुए थे और पीछे से उन सबने मिलकर एक चालाक लड़के को महादेव के अभिषेक जल के निकलने की नाली में छुपा दिया और उसे खूब फूल पत्तों से ढक दिया । वह वहाँ छिपकर आचार्य की गुप्त क्रिया देखने लगा । सदा के माफिक आज भी खूब अच्छे-अच्छे पक्वान्न आये । योगिराज ने उन्हें भीतर रखवाकर भीतर से मंदिर का दरवाजा बन्द कर लिया और आप लगे भोजन करने । जब आपका पेट भर गया, तब किवाड़ खोलकर आप नौकरों से उस बचे सामान को उठा लेनेके लिये कहना ही चाहते थे कि उनकी दृष्टि सामने ही खड़े हुए राजा और ब्राह्मणों पर पड़ी । आज एकाएक उन्हें वहाँ उपस्थित देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ । ये झट से समझ गये कि आज अवश्य कुछ न कुछ दाल में काला है । इतने ही में वे ब्राह्मण उनसे पूछ बैठे कि योगिराज ! क्या बात है, जो कई दिन से बराबर आहार बचा रहता है ? क्या शिवजी अब कुछ नहीं खाते ? जान पड़ता है, वे अब खूब तृप्त हो गये हैं । इसपर आचार्य कुछ कहना ही चाहते थे कि वह धूर्त लड़का उन फूल पत्तों के नीचे से निकलकर महाराज के सामने आ खड़ा हुआ और बोला -- राज राजेश्वर ! वे योगी तो यह कहते थे कि मैं शिवजी को भोजन कराता हूँ, पर इनका यह कहना बिलकुल झूठ है । असल में ये शिवजी को भोजन न कराकर स्वयं ही खाते है । इन्हें खाते हुए मैंने अपनी आँखों से देखा है, इन सबकी आँखों में आपने तो बड़ी बुद्धिमानी से धूल झोंकी है । इसमें कोई सन्देह नहीं कि आप योगी नहीं, किन्तु एक बड़े भारी धूर्त हैं । और महाराज ! इनकी धूर्तता तो देखिये, जो शिवजी को हाथ जोड़ना तो दूर रहा उल्टा ये उनका अविनय करते है । इतने में वे ब्राह्मण भी बोल उठे, महाराज ! जान पड़ता है यह शिव-भक्त भी नहीं हैं । इसलिये इससे शिवजी को हाथ जोड़ने के लिये कहा जाय, तब सब पोल स्वयं खुल जायेगी । सब कुछ सुनकर महाराज ने आचार्यसे कहा -- अच्छा जो कुछ हुआ उसपर ध्यान न देकर हम यह जानना चाहते हैं कि तुम्हारा असल धर्म क्या है ? इसलिये तुम शिवजी को नमस्कार करो । सुनकर भगवान् समन्तभद्र बोले -- राजन् ! मैं नमस्कार कर सकता हूँ, पर मेरा नमस्कार स्वीकार कर लेने को शिवजी समर्थ नहीं हैं । कारण वे राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया आदि विकारों से दूषित हैं । जिस प्रकार पृथ्वी के पालन का भार एक सामान्य मनुष्य नहीं उठा सकता, उसी प्रकार मेरी पवित्र ओर निर्दोष नमस्कृति को एक राग-द्वेषादि विकारों से अपवित्र देव नहीं सह सकता । किन्तु जो क्षुधा, तृषा, राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि अठारह दोषों से रहित हैं, केवलज्ञानरूपी प्रचण्ड तेज का धारक है और लोकालोक का प्रकाशक है, वही जिनसूर्य मेरे नमस्कार के योग्य है और वही उसे सह भी सकता है । इसलिये मैं शिवजी को नमस्कार नहीं करूँगा इसके सिवा भी यदि आप आग्रह करेंगे तो आपको समझ लेना चाहिये कि इस शिवमूर्ति को कुशल नहीं है, यह तुरन्त ही फट पड़ेगी । आचार्य की इस बात से राजा का विनोद और भी बढ़ गया । उन्होंने कहा -- योगिराज ! आप इसकी चिन्ता न करें, यह मूर्ति यदि फट पड़ेगी तो इसे फट पड़ने दीजिये, पर आपको तो नमस्कार करना ही पड़ेगा । राजा का बहुत ही आग्रह देख आचार्य ने 'तथास्तु' कहकर कहा, अच्छा तो कल प्रात:काल ही मैं अपनी शक्ति का आपको परिचय कराऊँगा । 'अच्छी बात है', यह कहकर राजा ने आचार्य को मंदिर में बन्द करवा दिया और मंदिर के चारों ओर नंगी तलवार लिये सिपाहियों का पहरा लगवा दिया । इसके बाद 'आचार्य की सावधानी के साथ देखरेख की जाय, वे कहीं निकल न भागें' इस प्रकार पहरेदारों को खूब सावधानकर आप राजमहल लौट आये । आचार्य ने कहते समय तो कह डाला, पर अब उन्हें खयाल आया कि मैंने यह ठीक नहीं किया । क्यों मैंने बिना कुछ सोचे-विचारे जल्दी से ऐसा कह डाला । यदि मेरे कहने के अनुसार शिवजी की मूर्ति न फटी तब मुझे कितना नीचा देखना पड़ेगा और उस समय राजा क्रोध में आकर न जाने क्या कर बैठें ! खैर उसकी भी कुछ परवा नहीं, पर इससे धर्म की कितनी हँसी होगी । जिस परमात्मा की राजा के सामने मैं इतनी प्रशंसा कर चुका हूँ, उसपर मेरे झूठ को देखकर सर्व साधारण क्या विश्वास करेंगे, आदि एक पर एक चिन्ता उनके हृदय में उठने लगी । पर अब हो भी क्या सकता था । आखिर उन्होंने यह सोचकर कि जो होना था वह तो हो चुका और कुछ बाकी है वह कल सबेरे हो जायगा, अब व्यर्थ चिन्ता से लाभ क्या । जिनभगवान् की आराधना में अपने ध्यान को लगाया और बड़े पवित्र भावों से उनकी स्तुति करने लगे । आचार्य की पवित्र-भक्ति और श्रद्धा के प्रभाव से शासनदेवी का आसन कम्पित हुआ । वह उसी समय आचार्य के पास आई और उनसे बोली -- 'हे जिनचरण-कमलों के भ्रमर ! हे प्रभो ! आप किसी बात की चिन्ता न कीजिये । विश्वास रखिये कि जैसा आपने कहा है वह अवश्य ही होगा । आप 'स्वयंभुवाभूतहितेन-भूतले' इस पद्यांश को लेकर चतुर्विंशति तीर्थकरों का एक स्तवन रचियेगा । उसके प्रभाव से आपका कहा हुआ सत्य होगा और शिवमूर्ति भी फट पड़ेगी । इतना कहकर अम्बिका-देवी अपने स्थान पर चली गई । आचार्य को देवी के दर्शन से बड़ी प्रसन्नता हुई । उनके हृदय की चिन्ता मिटी, आनन्द ने अब उसपर अपना अधिकार किया । उन्होंने उसी समय देवी के कहे अनुसार एक बहुत सुन्दर जिनस्तवन बनाया, जो कि इस समय 'स्वयंभूस्तोत्र' के नाम से प्रसिद्ध है । रात सुखपूर्वक बीती । प्रात:काल हुआ । राजा भी इसी समय वहाँ आ उपस्थित हुआ । उसके साथ और भी बहुत से अच्छे-अच्छे विद्वान् आये । अन्य साधारण जन-समूह भी बहुत इकठ्टा हो गया । राजा ने आचार्य को बाहर ले आने की आज्ञा दी । वे बाहर लाये गये । अपने सामने आते हुए आचार्य को खूब प्रसन्न और उनके मुहँ को सूर्य के समान तेजस्वी देखकर राजा ने सोचा इनके मुहँ पर तो चिन्ता के बदले स्वर्गीय तेज की छटायें छूट रही हैं, इससे जान पड़ता है ये अपनी प्रतिज्ञा अवश्य पूरी करेंगे । अस्तु ! तब भी देखना चाहिये कि ये क्या करते हैं । इसके साथ ही उसने आचार्य से कहा -- योगिराज ! कीजिये नमस्कार, जिससे हम भी आपकी अद्भुत शक्ति का परिचय पा सकें । राजा की आज्ञा होते ही आचार्य ने संस्कृत भाषा में एक बहुत ही सुन्दर और अर्थ-पूर्ण जिन-स्तवन आरम्भ किया । स्तवन रचते-रचते वहाँ चन्द्रप्रभ भगवान् की चतुर्मुख प्रतिमा प्रगट हुई । इस आश्चर्य के साथ ही जय-ध्वनि के मारे आकाश गूंज उठा । आचार्य के इस अप्रतिम प्रभाव को देखकर उपस्थित जन-समूह को दाँतों तले अँगुली दबानी पड़ी । सबके-सब आचार्य की ओर देखते के देखते ही रह गये । इसके बाद राजा ने आचार्य महाराजसे कहा -- योगिराज ! आपकी शक्ति, आपका प्रभाव, आपका तेज देखकर हमारे आश्चर्य का कुछ ठिकाना नहीं रहता । बतलाइये तो आप हैं कौन ? और आपने वेष तो शिव-भक्त का धारण कर रक्खा है, पर आप शिवभक्त हैं नहीं । सुनकर आचार्य ने नीचे लिखे दो श्लोक पढ़े -- कांच्यां नग्नाटकोहं मलमलिनतनुलम्बिुशे पाण्डुपिण्ड:, पुण्ड्रोण्डे शाक्यभिक्षुर्दशपुरनगरे मृष्टभोजी परिव्राट्र । बाणारस्यामभूवं शशधरधवल: पाण्ड्डराङ्गस्तपस्वी, राजन् यस्यास्तिशक्ति: स वदतु पुरतो जैननिर्ग्रन्थवादी।। पूर्व पाटलिपुत्रमध्यनगरे मेरी मया ताडिता, पश्चान्मालवसिन्धुढक्कविषये काँचीपुरे वैदिशे। प्राप्तोहं करहाटकं बहुभटैर्विद्योत्कटै: संकटं, वादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितम्।। भावार्थ –- मैं काँची में नग्न दिगम्बर साधु होकर रहा । इसके बाद शरीर में रोग हो जाने से पुंढू नगर में बुद्धभिक्षुक, दशपुर (मन्दोसोर) में मिष्टान्न भोजी परिव्राजक और बनारस में शैव-साधु बनकर रहा । राजन् मैं जैन निग्रन्थवादी स्याद्वादी हूँ । जिसकी शक्ति वाद करने की हो, वह मेरे सामने आकर वाद करें। पहले मैंने पाटलीपुत्र (पटना) में वादभेरी बजाई । इसके बाद मालवा, सिन्धुदेश, ढक्क (ढाका-बंगाल) काँचीपुर और विदिश नामक देश में भेरी बजाई । अब वहाँ से चलकर मैं बड़े-बड़े विद्वानों से भरे हुए इस करहाटक (कराड़जिला सतारा) में आया हूँ । राजन् शास्त्रार्थ करने की इच्छा से मैं सिंह के समान निर्भय होकर इधर-उधर घूमता ही रहता हूँ । यह कहकर ही समन्तभद्र-स्वामी ने शैव-वेष छोड़कर पीछे जिनमुनि वेष ग्रहण किया । जिन्हें पाण्डित्य का अभिमान था, अनेकान्त-स्याद्वाद के बल से पराजित किया और जैन-शासन की खूब प्रभावना की, जो स्वर्ग ओर मोक्ष की देनेवाली है । भगवान् समन्तभद्र भावी तीर्थंकर हैं । उन्होंने कुदेव को नमस्कार न कर सम्यग्दर्शन का खूब प्रकाश किया, सबके हृदय पर उसकी श्रेष्ठता अंकित कर दी । उन्होंने अनेक ऐकान्तवादियों को जीतकर सम्यग्ज्ञान को भी उद्योत किया । आश्चर्य में डालनेवाली इस घटना को देखकर राजा की जैनधर्म पर बड़ी श्रद्धा हुई । विवेक-बुद्धि ने उसके मन को खूब ऊँचा बना दिया और चारित्र-मोहनीय कर्म का क्षयोपशम हो जाने से उसके हृदय में वैराग्य का प्रवाह बह निकला । उसने उसे सब राज्य-भार छोड़ देने के लिये बाध्य किया । शिवकोटी ने क्षणभर में सब माया-मोह के जाल को तोड़कर जिन-दीक्षा ग्रहण कर ली । साधु बनकर उन्होंने गुरू के पास खूब शास्त्रों का अभ्यास किया । इसके बाद उन्होंने श्रीलोहाचार्य के बनाये हुए चौरासी हजार श्लोक प्रमाण आसधना-ग्रन्थ को संक्षेप में लिखा । वह इसलिये कि अब दिन-पर-दिन मनुष्यों की आयु और बुद्धि घटती जाती है, और वह ग्रन्थ बड़ा और गंभीर था, सर्व साधारण उससे लाभ नहीं उठा सकते थे । शिवकोटी-मुनि के बनाये हुए ग्रन्थ के चवालीस भाग हैं और उसकी श्लोक-संख्या साढे़ तीन हजार है । उससे संसार का बहुत उपकार हुआ । वह आराधना-ग्रन्थ और समन्तभद्राचार्य तथा शिवकोटी मुनिराज मुझे सुख के देनेवाले हों । तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप परम रत्नों के समुद्र और कामरूपी प्रचंड बलवान् हाथी के नष्ट करने को सिंह समान विद्यानन्दी गुरू और छहों शास्त्रों के अपूर्व विद्वान् तथा श्रुतज्ञान के समुद्र श्रीमल्लिभूषण मुनि मुझे मोक्षश्री प्रदान करें । |