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अंजन चोर की कथा

  कथा 

कथा :

सुख के देने वाले श्री सर्वज्ञ वीतराग भगवान् के चरण कमलों को नमस्‍कार कर अंजन चोर की कथा लिखता हूँ, जिसने सम्‍यग्‍दर्शन के नि:शंकित अंग का उद्योत किया है |

भारतवर्ष-मगधदेश के अन्‍तर्गत राजगृह नामक शहर में एक जिनदत्‍त सेठ रहता था । वह बड़ा धर्मात्‍मा था । वह निरन्‍तर जिन भगवान् की पूजा करता, दीन दुखियों को दान देता, श्रावकों के व्रतों का पालन करता और सदा शान्‍त और विषय भोगों से विरक्‍त रहता । एक दिन जिनदत्‍त चतुर्दशी के दिन आधी रात के समय श्‍मशान में कायोत्‍सर्ग ध्‍यान कर रहा था । उस समय वहाँ दो देव आये । उनके नाम अमितप्रभ और विद्युत्‍प्रभ थे । अमितप्रभ जैन धर्म का विश्‍वासी था और विद्युत्‍प्रभ दूसरे धर्म का । वे अपने-अपने स्‍थान से परस्पर के धर्म की परीक्षा की । वह अपने ध्‍यान से विचलित हो गया । इसके बाद उन्‍होंने जिनदत्‍त को श्‍मशान में ध्‍यान करते देखा । तब अमितप्रभ ने विद्युत्‍प्रभ से कहा— प्रिय, उत्‍कृष्‍ट चारित्र के पालने वाले जिनधर्म के सच्‍चे साधुओं की परीक्षा की बात को तो जाने दो, परन्‍तु देखते हो, वह गृहस्‍थ जो कायोत्‍सर्ग से खड़ा हुआ है, यदि तुम में कुछ शक्ति हो, तो तुम उसे ही अपने ध्‍यान से विचलित कर दो यदि तुमने उसे ध्‍यान से चला दिया तो हम तुम्‍हारा ही कहना सत्‍य मान लेंगे ।

अमितप्रभ से उत्तेजना पाकर विद्युत्‍प्रभ ने जिनदत्त पर अत्‍यन्‍त दुस्‍सह और भयानक उपद्रव किया, पर जिनदत्त उस से कुछ भी विचलित न हुआ और पर्वत की तरह खड़ा रहा । जब सबेरा हुआ तब दोनों देवों ने अपना असली वेष प्रगट कर बड़ी भक्ति के साथ उसका खूब सत्‍कार किया और बहुत प्रशंसा कर जिनदत्त को एक आकाशगामिनी विद्या दी । इसके बाद वे जिनदत्त से यह कहकर, कि श्रावकोत्तम ! तुम्‍हें आज से आकाशगामिनी विद्या सिद्ध हुई; तुम पंच नमस्‍कार मंत्र की साधन विधि के साथ इसे दूसरों को प्रदान करोगे तो उन्‍हें भी यह सिद्ध होगी—अपने स्‍थान पर चले गये ।

विद्या की प्राप्ति से जिनदत्त बड़ा प्रसन्‍न हुआ । उसकी अकृत्रिम चैत्‍यालयों के दर्शन करने की इच्‍छा पूरी हुई । वह उसी समय विद्या के प्रभाव से अकृत्रिम चैत्‍यालय दर्शन करने को गया और खूब भक्ति भाव से उसने जिनभागवान् की पूजा की, जो कि स्‍वर्ग मोक्ष की देने वाली है ।

इसी प्रकार अब जिनदत्त प्रतिदिन अकृत्रिम जिनमन्दिरों के दर्शन करने के लिये जाने लगा । एक दिन वह जाने के लिये तैयार खड़ा हुआ था कि उससे एक सोमदत्त नाम के माली ने पूछा— आप प्रतिदिन सबेरे ही उठकर कहाँ जाया करते हैं ? उत्तर में जिनदत्त सेठ ने कहा— मुझे दो देवों की कृपा से आकाशगामिनी विद्या की प्राप्ति हुई है । सो उसके बल से सुवर्णमय अकृत्रिम जिनमंदिरों की पूजा करने के लिये जाया करता हूँ, जो कि सुख शान्ति की देने वाली है । तब सोमदत्त ने जिनदत्त से कहा— प्रभो, मुझे भी विद्या प्रदान कीजिये न ? जिससे मैं भी अच्‍छे सुन्‍दर सुगन्धित फूल लेकर प्रतिदिन भगवान् की पूजा करने को जाया करूँ और उसके द्वारा शुभ कर्म उपार्जन करूँ । आपकी बड़ी कृपा होगी यदि आप मुझे विद्या प्रदान करेंगे ।

सोमदत्त की भक्ति और पवित्रता को देखकर जिनदत्त ने उसे विद्या साधन करने की रीति बतला दी । सोमदत्त उससे सब विधि ठीक-ठीक समझ कर विद्या साधने के लिये कृष्‍ण पक्ष की चतुर्दशी की अन्‍धेरी रात में श्‍मशान में गया, जो कि बड़ा भयंकर था । वहाँ उसने एक बड़की डाली में एक सौ आठ लड़ी का एक दूबा का सींका बाँधा और उसके नीचे अनेक भयंकर तीखे-तीखे शस्‍त्र सीधे मुँह गाड़कर उनकी पुष्‍पादि से पूजा की । इसके बाद वह सींके पर बैठ कर पंच नमस्‍कार मंत्र जपने लगा । मंत्र पूरा होने पर जब सींका के काटने का समय आया और उसकी दृष्टि चमचमाते हुए शस्‍त्रों पर पड़ी तब उन्‍हें देखते ही वह कांप उठा । उसने विचारा— यदि जिनदत्त ने मुझे झूठ कह दिया हो तब तो मेरे प्राण ही चले जायंगे; य‍ह सोचकर वह नीचे उतर आया । उसके मन में फिर कल्‍पना उठी कि भला जिनदत्त को मुझसे क्‍या लेना है जो वह कहकर मुझे ऐसे मृत्‍यु के मुख में डालेगा ? और फिर वह तो जिनधर्म का परम श्रद्धालु है, उस के रोम रोम में दया भरी हुई है, उसे मेरी जान लेने से क्‍या लाभ ? इत्‍यादि विचारों से अपने मन की संतुष्‍ट कर वह फिर सींके पर चढ़ा पर जैसे ही उसकी दृष्टि फिर शस्‍त्रों पर पड़ी कि वह फिर भय के मारे नीचे उतर आया । इसी तरह वह बार-बार उतरने चढ़ने लगा, पर उसकी हिम्‍मत सींका काट देने की नहीं हुई । सच है जिन्‍हें स्‍वर्गमोक्ष का सुख देने वाले जिनभगवान् के वचनों पर विश्‍वास नहीं, मन में उन पर निश्‍चय नहीं, उन्‍हें संसार में कोई सिद्धि कभी प्राप्‍त नहीं होती ।

उसी रात को एक और घटना हुई वह उल्‍लेख योग्‍य है और खास कर उसका इसी घटना से सम्‍बन्‍ध है । इसलिये उसे लिखते हैं । वह इस प्रकार है-

इधर तो सोमदत्त सशंक होकर क्षण भर में वृक्ष पर चढ़ता और क्षण भर में उस पर से उतरता था, और दूसरी ओर इसी समय माणिकांजन सुन्‍दरी नाम की एक वैश्‍या ने अपने पर प्रेम करने वाले एक अंजन नाम के चोर से कहा—प्राणबल्‍लभ, आज मैंने प्रजापाल महाराज की कनकवती नाम की पट्टरानी के गले में रत्‍न का हार देखा है । वह बहुत ही सुन्‍दर है । मेरा तो यह भी विश्‍वास है कि संसार भर में उसकी तुलना करने वाला कोई और हार होगा ही नहीं । सो आप उसे लाकर मुझे दीजिये, तब ही आप मेरे स्‍वामी हो सकेंगे अन्‍यथा नहीं ।

माणिकांजन सुन्‍दरी की ऐसी कठिन प्रतिज्ञा सुनकर पहले तो वह कुछ हिचका, पर साथ ही उसके प्रेम ने उसे वैसा करने को बाध्य किया । वह अपने जीवन की भी कुछ परवा न कर हार चुरा लाने के लिये राजमहल पहुँचा और मौका देखकर महल में घुस गया । रानी के शयनागार में पहुँचकर उसने उसके गले में से बड़ी कुशलता के साथ हार निकाल लिया । हार लेकर व‍ह चलता बना । हजारों पहरेदारों की आँखों मे धूल डालकर साफ निकल जाता, पर अपने दिव्‍य प्रकाश से गाढ़े से गाढ़े अन्‍धकार को भी नष्‍ट करने वाले हार ने उसे सफल प्रयत्‍न नहीं होने दिया । पहरे वालों ने उसे हार ले जाते हुए देख लिया । वे उसे पकड़ने को दौंड़े । अंजन चोर भी खूब जी छोड़कर भागा, पर आखिर कहाँ तक भाग सकता था । पहरेदार उसे पकड़ लेना ही चाहते थे कि उसने एक नई युक्ति की । वह हार को पीछे की ओर जोर से फेंक कर भागा । सिपाही लोग तो हार उठाने में लगे और इधर अंजन चोर बहुत दूर तक निकल आया । सिपाहियों ने तब भी उसका पीछा न छोड़ा । वे उसका पीछा किये चले ही गये । अंजन चोर भागता-भागता श्‍मशान की ओर जा निकला, जहाँ जिनदत्त के उपदेश से सोमदत्त विद्या साधन के लिये व्‍यग्र हो रहा था । उसका यह भयंकर उपक्रम देखकर अंजन ने उससे पूछा कि तुम यह क्या कर रहे हो ? क्‍यों अपनी जान दे रहे हो ? उत्‍तर में सोमदत्त की बातों से अंजन को बड़ी खुशी हुई । उसने सोचा कि सिपाही लोग तो मुझे मारने के लिये पीछे आ ही रहे हैं और वे अवश्‍य मुझे मार भी डालेंगे । क्‍योंकि मेरा अपराध कोई साधारण अपराध नहीं है । फिर यदि मरना ही है तो धर्म के आश्रित रहकर ही मरना अच्‍छा है । यह विचार कर उसने सोमदत्‍त से कहा— बस इसी थोड़ी सी बात के लिये इतने डरते हो ? अच्‍छा लाओ, मुझे तलवार दो, मैं भी तो जरा आजमा लूँ । यह कहकर उसने सोमदत्त से तलवार ले ली ओर वृक्ष पर चढ़कर सींके पर जा बैठा । वह सींके को काटने के लिये तैयार हुआ कि सोमदत्त के बताये मन्‍त्र को भूल गया । पर उसकी वह कुछ परवा न कर और केवल इस बात पर विश्‍वास करके कि ''जैसा सेठ ने कहा उसका कहना मुझे प्रमाण है ।'' उसने नि:शंक होकर एक ही झटके में सारे सीकें को काट दिया । काटने के साथ ही जब तक वह शस्‍त्रों पर गिरता है तब तक आकाशगामिनी विद्या ने आकर उससे कहा- देव, आज्ञा कीजिये, मैं उपस्थित हूँ । विद्या को अपने सामने खड़ी देखकर अंजन चोर को बड़ी खुशी हुई । उसने विद्या से कहा, मेरू पर्वत पर जहाँ जिनदत्त सेठ भगवान् की पूजा कर रहा है, वहीं मुझे पहुँचा दे । उसके कहने के साथ ही विद्या ने उसे जिनदत्त के पास पहुँचा दिया । सच है, जिन धर्म के प्रसाद से क्‍या नहीं होता ?

सेठ के पास पहुँचकर अंजन ने बड़ी भक्ति के साथ उन्‍हें प्रणाम किया और वह बोला- हे दया के समुद्र ! मैंने आपकी कृपा से आकाशगामिनी विद्या तो प्राप्‍त की, पर अब आप मुझे कोई ऐसा मंत्र बतलाइये जिससे मैं संसार समुद्र से पार होकर मोक्ष में पहुँच जाऊँ सिद्ध हो जाऊँ ।

अंजन की इस प्रकार वैराग्‍य भरी बातें सुनकर परोपकारी जिनदत्त ने उसे एक चारणऋद्धि के धारक मुनिराज के पास लिवा ले जाकर उनसे जिनदीक्षा दिलवा दी । अंजन चोर साधु बनकर धीरे-धीरे कैलास पर जा पहुँचा। वहाँ खूब तपश्‍चर्या कर ध्‍यान के प्रभाव से उसने घातिया कर्मों का नाश किया और केवल ज्ञान प्राप्‍त कर वह त्रैलोक्‍य द्वारा पूजित हुआ । अन्‍त में अघातिया कर्मों का भी नाश कर अंजन मुनिराज ने अविनाशी, अनन्‍त गुणों के समुद्र मोक्षपद को प्राप्‍त किया ।

सम्‍यग्‍यर्शन के नि:शंकित गुण का पालन कर अंजन चोर भी निरंजन हुआ, कर्मों के नाश करने में समर्थ हुआ । इसलिये भव्‍यपुरूषों को तो नि:शंकित अंग का पालन करना ही चाहिये ।

मूलसंघ में श्रीमल्लिभूषण भट्टाकर हुए । वे सम्‍यग्‍दर्शन, सम्‍यग्‍ज्ञान और सम्‍यक्‍चारित्र रूप उत्‍कृष्‍ट रत्‍नों से अलंकृत थे, बुद्धिमान थे, और ज्ञान के समुद्र थे । सिंहनन्‍दी मुनि उनके शिष्‍य थे । वे मिथ्‍यात्‍वमतरूपी पर्वतों को तोड़ने के लिये वज्र के समान थे, बड़े पाण्डित्‍य के साथ वे अन्‍य सिद्धान्‍तों का खण्‍डन करते थे और भव्‍यपुरूषरूपी कमलों को प्रफुल्लित करने के लिये वे सूर्य के समान थे । वे चिरकाल तक जीयें उनका यश:शरीर इस नश्‍वर संसार में सदा बना रहे ।