
कथा :
देवों द्वारा पूजा किये जाने वाले जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर चाणक्य कथा लिखी जाती है । पाटलिपुत्र या पटना के राजा नन्द के तीन मंत्री थे । कावी, सुबन्धु और शकटाल ये उनके नाम थे । यहीं एक कपिल नाम का पुरोहित रहता था । कपिल की स्त्री का नाम देविला था । चाणक्य इन्हीं का पुत्र था । यह बड़ा बुद्धिमान् और वेदों का ज्ञाता था । एक बार आस-पास के छोटे-मोटे राजाओं ने मिलकर पटना पर चढार्इ कर दी । कावी मंत्री ने इस चढ़ार्इ का हाल नन्द से कहा । नन्द ने घबराकर मंत्री से कह दिया कि जाओ जैसे बने उन अभिमानियों कों समझा-बुझाकर वापिस लौटा दो । धन देना पड़े तो वह भी दो । राजाज्ञा पा मंत्री ने उन्हें धन वगैरह देकर लौटा दिया । सच है, बिना मंत्री के राज्य स्थिर हो ही नहीं सकता । एक दिन नन्द को स्वयं कुछ धन की जरूरत पड़ी । उसने खजांची से खजाने में कितना धन मौजूद है, इसके लिए पूछा । खजांची ने कहा -- महाराज, धन तो सब मंत्री महाशय ने दुश्मनों को दे डाला । खजाने में तो अब नाममात्र के लिए थोड़ा बहुत धन बचा होगा । यद्यपि दुश्मनों को धन स्वयं राजा ने दिलवाया था और इसलिये गलती उसी की थी, पर उस समय अपनी यह भूल उसे न दिख पड़ी और दूसरे के उस्काने में आकर उसने बेचारे निर्दोष मंत्री को और साथ में उसके सारे कुटुम्बकों को एक अन्धे कुएँ में डलवा दिया । मंत्री तथा उसका कुटुम्ब वहाँ बड़ा कष्ट पाने लगा, इनके खाने-पीने के लिए बहुत थोड़ा सा पानी दिया जाता था । यह इतना थोड़ा होता था कि एक मनुष्य भी उससे अच्छी तरह पेट न भर सकता था, सच है, राजा किसी का मित्र नहीं होता । राजा के इस अन्याय ने कावी के मन में प्रतिहिंसा की आग धधका दी । इस आग ने बड़ा भयंकर रूप धारण किया । कावी ने तब अपने कुटुम्ब के लोगों से कहा – जो भोजन हमें इस समय मिलता है उसे यदि हम इसी तरह थोड़ा-थोड़ा सब मिलकर खाया करेंगे । तब तो हम धीरे-धीरे सब ही मर मिटेंगे और ऐसी दशा में कोर्इ राजा से उसके इस अन्याय का बदला लेने वाला न रहेगा । पर मुझे यह सहा नहीं जाएगा । इसलिये मैं चाहता हूँ कि मेरा कोर्इ कुटुम्ब का मनुष्य राजा से बदला ले । तब ही मुझे शान्ति मिलेगी । इसलिये इस भोजन को वही मनुष्य अपने में से खाये जो बदला लेने की हिम्मत रखता हो । तब उसके कुटुम्बियों ने कहा – इसका बदला लेने में आप ही समर्थ देख पड़ते हैं । इसीलिये हम खुशी के साथ कहते हैं कि इस भार को आप ही अपने सर पर लें । उस दिन से उनका सारा कुटुम्ब भूखा रहने लगा और धीरे-धीरे सब का सब मर मिटा । इधर कावी अपने रहने योग्य एक छोटा सा गढ़ उस कुएँ में बनाकर दिन काटने लगा । ऐसे रहते उसे कोर्इ तीन वर्ष बीत गए । जब यह हाल आस-पास के राजाओं के पास पहुँचा तब उन्होंने इस समय राज्य को अव्यवस्थित देख फिर चढ़ार्इ कर दी । अब तो नन्द के कुछ होश ढीले पड़े, अकल ठिकाने आर्इ । अब उसे न सूझ पड़ा कि यह क्या करें ? तब उसे अपने मंत्री कावी की याद आर्इ । उसने नौकरों को आज्ञा दे कुएँ से मंत्री को निकलवाया और पीछा मंत्री की जगह नियत किया । मंत्री ने भी इस समय तो उन राजाओं से सुलह कर नन्द की रक्षा कर ली । पर अब उसे अपना बैर निकालने की चिन्ता हुर्इ । वह किसी मनुष्य की खोज करने लगा, जिससे उसे सहायता मिल सके । एक दिन कावी किसी वन में हवाखोरी के लिए गया हुआ था । इसने वहाँ एक मनुष्य को देखा कि जो काँटो के समान चुभनेवाली दूबा को जड़-मूल से उखाड़-उखाड़कर फेंक रहा था । उसे एक निकम्मा काम करते देखकर कावी ने चकित होकर पूछा – ब्राह्यण देव इसे खोदने से तुम्हारा क्या मतलब है ? क्यों बे-फायदा इतनी तकलीफ उठा रहे हो ? इस मनुष्य का नाम चाणक्य था । इसका उल्लेख ऊपर आ चुका है ? चाणक्य ने तब कहा – वाह महाशय! इसे आप बे-फायदा बतलाते हैं । आप जानते हैं कि इसका क्या अपराध है ? सुनिये! इसने मेरा पाँव छेद डाला और मुझे महाकष्ट दिया, तब मैं ही क्यों इसे छोड़ने चला ? मैं तो इसका जड़मूल से नाश कर ही उठूँगा । यही मेरा संकल्प है । तब कावी ने उसके हृदय की थाह लेने के लिए कि इसकी प्रतिहिंसा की आग कहाँ जाकर ठण्डी पड़ती है, कहा – तो महाशय! अब इस बेचारी को क्षमा कीजिए, बहुत हो चुका । उत्तर में चाणक्य ने कहा -- नहीं, तब तक इसके खोदने से लाभ ही क्या जब तक कि इसकी जड़ें बाकी रह जायें । उस शत्रु के मारने से क्या लाभ जबकि उसका सिर न काट लिया जाये ? चाणक्य की यह ओजस्विता देखकर कावी को बहुत संतोष हुआ । उसे निश्चय हो गया कि इसके द्वारा नन्द कुल का जड़-मूल से नाश हो सकेगा । इससे अपने को सहायता मिलेगी । अब सूर्य और राहु का योग मिला देना अपना काम है । किसी तरह नन्द के सम्बन्ध में इसका मनमुटाव करा देना ही अपने कार्य का श्रीगणेश हो जायेगा । कावी मंत्री इस तरह का विचार कर ही रहा था कि प्यासे को जल की आशा होने की तरह का योग मिल ही गया । इसी समय चाणक्य की स्त्री यशस्वती ने आकर चाणक्य से कहा – सुनती हूँ, राजा नन्द ब्राह्यणों को गौदान किया करते हैं । तब आप भी जाकर उनसे गौ लाइए न ? चाणक्य ने कहा – अच्छी बात है, मैं अपने महाराज के पास जाकर जरूर गौ लाऊँगा । यशस्वती के मुँह से यह सुनकर कि नन्द गौओं का दान किया करता है, कावी मंत्री खुश होता हुआ राज-दरबार में गया और राजा से बोला -- महाराज! क्या आज आप गौएं दान करेंगे ? ब्राह्मणों को इकठ्ठा करने की योजना की जाय ? महाराज, आपको तो यह पुण्य कार्य करना ही चाहिए । धन का ऐसी जगह सदुपयोग होता है । मंत्री ने अपना चक्र चलाया और वह राजा पर चल भी गया । सच है, जिनके मन में कुछ और होता है, जो वचनों से कुछ और बोलते हैं तथा शरीर जिनका माया से सदा लिपटा रहता है, उन दुष्टों की दुष्टता का पता किसी को नहीं लग पाता । कावी की सत्सम्मति सुनकर नन्द ने कहा – अच्छा ब्राह्मणों को आप बुलवाइए, मैं उन्हें गौएं दान करूँगा । मंत्री जैसा चाहता था, वही हो गया । वह झटपट जाकर चाणक्य को ले आया और उसे सबसे आगे रख आसन पर बैठा दिया । लोभी चाणक्य ने तब अपने आस-पास रखे हुए बहुत से आसनों को घर ले जाने की इच्छा से इकठ्ठा कर अपने पास रख लिया । उसे इस प्रकार लोभी देख कावी ने कपट से कहा – पुरोहित महाराज! राजा साहब कहते हैं और बहुत से ब्राह्मण विद्वान् आए हैं, आप उनके लिये आसन दीजिये । चाणक्य ने तब एक आसन निकाल कर दे दिया । इसी तरह मंत्री ने उससे सब आसन रखवाकर अन्त में कहा -- महाराज, क्षमा कीजिए । मेरा कोर्इ अपराध नहीं है । मैं तो पराया नौकर हूँ । इसलिये जैसा मालिक कहते हैं उनका हुक्म बजाता हूँ । पर जान पड़ता है कि राजा बड़ा अविचारी है जो आप जैसे सरीखे महाब्राह्मण का अपमान करना चाहता है । महाराज, राजा का कहना है कि आप जिस अग्रासन पर बैठे हैं उसे छोड़कर चले जाइये । यह आसन दूसरे विद्वान् के लिये पहले ही से दिया जा चुका है । यह कहकर ही कावी ने गर्दन पकड़ चाणक्य को निकाल बाहर कर दिया । चाणक्य एक तो वैसे ही महाक्रोधी और उसका ऐसा अपमान किया गया और वह भी भरी राजसभा में । तब तो अब चाणक्य के क्रोध का पूछना ही क्या ? वह नन्द वंश को जड़मूल से उखाड़ फेंकने का दृढ़ संकल्प कर जाता-जाता बोला कि जिसे नन्द का राज्य चाहना हो, वह मेरे पीछे-पीछे चला आवे । यह कहकर वह चलता बना । चाणक्य की इस प्रतिज्ञा के साथ ही कोर्इ एक मनुष्य उसके पीछे ही गया । चाणक्य उसे लेकर उन आस-पास के राजाओं से मिल गया, और फिर कोर्इ मौका देख एक घातक मनुष्य को साथ ले वह पटना आया और नन्द को मरवाकर आप उस राज्य का मालिक बन बैठा । सच है, मंत्री के क्रोध से कितने राजाओं का नाम इस पृथ्वी पर से न उठ गया होगा । इसके बाद चाणक्य ने बहुत दिनों तक राज्य किया । एक दिन उसे श्रीमहीधर मुनि द्वारा जैन धर्म का उपदेश सुनने का मौका मिला । उस उपदेश का उसके चित्त पर खूब असर पड़ा । वह उसी समय सब राज-काज छोड़कर मुनि बन गया । चाणक्य बुद्धिमान और बड़ा तेजस्वी था । इसलिए थोड़े ही दिनों बाद उसे आचार्य पद मिल गया । वहाँ से कोर्इ पाँच सौ शिष्यों को साथ लिये उसने विहार किया । रास्ते में पड़ने वाले देशों, नगरों, और गाँवों में धर्मोपदेश करता और अनेक भव्य-जनों को हितमार्ग में लगाता वह दक्षिण की ओर बसे हुए वनवास देश के क्रौंचपुर में आया । इस पुर के पश्चिम किनारे कोर्इ अच्छी जगह देख इसने संघ को ठहरा दिया । चाणक्य को यहाँ यह मालूम हो गया कि उसकी उमर बहुत थोड़ी रह गर्इ । इसलिये उसने वहीं प्रायोगमन संन्यास ले लिया । नन्द का दूसरा मंत्री सुबन्धु था । चाणक्य ने जब नन्द को मरवा डाला तब उसके क्रोध का पार नहीं रहा । प्रतिहिंसा की आग उसके हृदय में दिन-रात जलने लगी । पर उस समय उसके पास कोर्इ साधन बदला लेने का न था । इसलिये वह लाचार चुप रहा । नन्द की मृत्यु के बाद वह इसी क्राँचपुर में आकर यहाँ के राजा सुमित्र का मंत्री हो गया । राजा ने जब मुनिसंघ के आने का समाचार सुना तो वह उसकी वन्दना पूजा के लिए आया, बड़ी भक्ति से उसने सब मुनियों की पूजा कर उनसे धर्मोपदेश सुना और बाद उनकी स्तुति कर वह अपने महल में लौट आया । मिथ्यात्वी सुबन्धु को चाणक्य से बदला लेने का अब अच्छा मौका मिल गया । उसने उस मुनिसंघ के चारों ओर खूब घास इकठ्ठा करवाकर उसमें आग लगवा दी । मुनिसंघ पर हृदय को हिला देने वाला बड़ा ही भयंकर दु:सह उपसर्ग हुआ सही, पर उसने उसे बड़ी सहंन-शीलता के साथ सह लिया और अन्त में अपनी शुक्लध्यान रूपी आत्मशक्ति से कर्मों का नाश कर सिद्धगति लाभ की । जहाँ राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, दु:ख, चिन्ता आदि दोष नहीं है और सारा संसार जिसे सबसे श्रेष्ठ समझता है । चाणक्य आदि निर्मल चरित्र के धारक ये सब मुनि अब सिद्धगति में ही सदा रहेंगे । ज्ञान के समुद्र ये मुनिराज मुझे भी सिद्धगति का सुख दें । |