+ भामंडल का समागम -
तीसवाँ पर्व

  कथा 

कथा :

अथानंतर मेघों के आडंबर से युक्त वर्षाकाल कहीं चला गया और आकाश माँजे हुए कृपाण के समान निर्मल प्रभा का धारक हो गया॥1॥कमल उत्पल आदि जल में उत्पन्न होने वाले पुष्प कामीजनों को उन्माद करते हुए सुशोभित होने लगे तथा जल साधुओं के हृदय के समान निर्मल हो गया ॥2॥ कुमुदों के सफेद पुष्पों से प्रकटरूप से हँसता हुआ शरदकाल आ पहुँचा, इंद्रधनुष नष्ट हो गया और पृथ्वी कीचड़ से रहित हो गयी ॥3॥ जिनमें बिजली चमकने की संभावना नहीं थी और जो रूई के समूह के समान सफेद कांति के धारक थे ऐसे मेघों के खंड कहीं-कहीं दिखाई देने लगे ॥4॥ संध्या का लाल-लाल प्रकाश जिसका सुंदर ओंठ था, चाँदनी ही जिसका अत्यंत उज्ज्वल वस्त्र था और चंद्रमा ही जिसका चूडामणि था, ऐसी रात्रिरूपी नववधू उस समय अत्यधिक सुशोभित हो रही थी ॥5॥ चक्रवाक पक्षी जिनकी शोभा बढ़ा रहे थे, और मदोन्मत्त सारस जहाँ शब्द कर रहे थे ऐसी वापिकाएं कमल वन में घूमते हुए राजहंसों से सुशोभित हो रही थीं॥ 6॥ इस तरह यह जगत् यद्यपि शरदऋतु से सुशोभित था तो भी सीता की चिंता करने वाले भामंडल के लिए अग्नि के समान जान पड़ता था॥ 7॥

अथानंतर अरति से जिसका शरीर आकर्षित हो रहा था ऐसा भामंडल एक दिन लज्जा छोड़ पिता के आगे अपने परममित्र वसंत ध्वज से इस प्रकार बोला कि॥8॥आप बड़े दीर्घसूत्री हैं― देर से काम करने वाले हैं और दूसरे के कार्य करने में अत्यंत मंद हैं । उस सीता में जिसका चित्त लग रहा है ऐसे मुझे दुःख उठाते हुए अनेक रात्रियां व्यतीत हो गयीं । फिर भी तुझे चिंता नहीं है॥ 9॥ जिसमें उद्वेगरूपी बड़ी-बड़ी भंवरें उठ रही हैं ऐसे आशारूपी समुद्र में मैं डूब रहा हूँ । सो हे मित्र ! मुझे सहारा क्यों नहीं दिया जा रहा है ॥10॥ इस प्रकार आर्तध्यान से युक्त भामंडल के वचन सुनकर सभी विद्वान् हतप्रभ होते हुए परम विषाद को प्राप्त हुए॥ 11॥ तदनंतर उन सबको शोक से संतप्त तथा हाथियों के समान सूखते हुए देख भामंडल शिर नीचा कर क्षणभर के लिए लज्जा को प्राप्त हुआ ॥12॥ तब बृहत्केतु नामा विद्याधर बोला कि अबतक इस बात को क्यों छिपाया जाता है प्रकट कर देना चाहिए जिससे कि कुमार इस विषय में निराश हो जावे ॥13॥

तदनंतर उन सबने चंद्रयान को आगे कर लड़खड़ाते अक्षरों में सब समाचार भामंडल से कह दिया ॥14॥ उन्होंने कहा कि हे कुमार ! हम लोग कन्या के पिता को यहाँ ही ले आये थे और उससे यत्नपूर्वक कन्या की याचना भी की थी पर उसने कहा था कि मैं उस कन्या को राम के लिए देना संकल्पित कर चुका हूँ ॥15॥

उत्तर-प्रत्युत्तर से जब उसने हम सबको पराजित कर दिया तब हमने मंत्रणा कर धनुष रत्न की अवधि निश्चित की अर्थात् राम और भामंडल में से जो भी धनुष-रत्न को चढ़ा देगा वही कन्या का स्वामी होगा ॥16॥ हम लोगों ने धनुष की शर्त इसलिए रखी थी कि राम उसे चढ़ा नहीं सकेगा अतः अगत्या तुम्हें ही कन्या को प्राप्ति होगी परंतु वह धनुष रत्नरूपी लता पुण्याधिकारी राम के लिए ऐसी हुई जैसे भूख से पीड़ित सिंह के लिए मांस की डली अर्पित की गयी हो अर्थात् राम ने धनुष चढ़ा दिया जिससे वह साध्वी कन्या स्वयंवर में राम की स्त्री हो गयी । वह कन्या अपने वचनों से हृदय को हरने वाली थी, नवयौवन से उत्पन्न लावण्य से उसका शरीर भर रहा था, तरुण चंद्र के समान उसका मुख था, लक्ष्मी की तुलना करने वाली थी और काम से सहित थी ॥17-19॥

वे सागरावर्त और वज्रावर्त नामा धनुष आजकल के धनुष नहीं थे किंतु बहुत प्राचीन थे, गदा, हल आदि शस्त्रों से सहित थे, देवों से अधिष्ठित थे तथा सुपर्ण और उरग जाति के दैत्यों के कारण उनकी ओर देखना भी संभव नहीं था । फिर भी राम-लक्ष्मण ने उन्हें चढ़ा दिया और रामने वह त्रिलोकसुंदरी कन्या प्राप्त कर ली॥ 20-22॥ इस समय वह कन्या देवों के द्वारा भी जबरदस्ती नहीं हरी जा सकती है फिर जो उन धनुषों के निकल जा ने से अत्यंत सारहीन हो गये हैं ऐसे हम लोगों की तो बात ही क्या है ॥22॥ हे कुमार ! यदि यह कहो कि राम के स्वयंवर के पहले ही उसे क्यों नहीं हर लिया तो उसका उत्तर यह है कि रावण का जमाई राजा मधु जनक का मित्र है सो उसके रहते हम कैसे हर सकते थे ?॥ 23॥ इसलिए यह सब जान कर हे कुमार ! स्वस्थता को प्राप्त होओ, तुम तो अत्यंत विनीत हो, जो कार्य जैसा होना होता है उसे इंद्र भी अन्यथा नहीं कर सकता ॥24॥

तदनंतर स्वयंवर का वृत्तांत सुनकर भामंडल लज्जा और विषाद से युक्त होता हुआ दुःख के साथ यह विचार करने लगा कि॥25॥अहो ! मेरा यह विद्याधर जन्म निरर्थक है कि जिससे मैं साधारण मनुष्य की तरह उस प्रिया को प्राप्त नहीं कर सका॥ 26॥ ईर्ष्या और क्रोध से युक्त होकर उसने हँसते हुए सभा से कहा कि जब आप लोग भूमिगोचरी से भी भय रखते हो तब आपका विद्याधर होना किस काम का ? ॥27॥ मैं भूमिगोचरियों को जोतकर स्वयं ही उस उत्तम कन्या को ले आता हूँ तथा धनुषरूपी धरोहर का अपहरण करने वाले यक्षों का निग्रह करता हूँ ॥28॥ ऐसा कहकर वह तैयार हो विमान में बैठकर आकाश में जा उड़ा । वहाँ से उसने पुर और वन से भरा पृथ्वीतल देखा॥29॥तदनंतर उसकी दृष्टि अनेक पर्वतों से युक्त विदग्ध नामक देश में अपने पूर्वभव के मनोहर नगर पर पड़ी ॥30॥ यह नगर मैंने कभी देखा है-इस प्रकार चिंता करता हुआ वह जातिस्मरण को प्राप्त होकर मूर्च्छित हो गया ॥31॥ तदनंतर घबड़ाये हुए मंत्री उसे पिता के समीप ले आये । वहाँ स्त्रियों ने चंदन के द्रव से उसका शरीर सींचकर उसे सचेत किया ॥32॥ स्त्रियों ने परस्पर नेत्र का इशारा कर तथा हँसकर उससे कहा कि हे कुमार ! तुम्हारी यह कातरता अच्छी नहीं ॥33॥ जो तुम बुद्धिमान होकर भी भूचर्या का समस्त प्रयोजन बिना देखे ही गुरुजनों के आगे इस तरह मोह को प्राप्त हुए हो ॥34॥ देवियों से भी अधिक कांति को धारण करने वाली विद्याधर राजाओं की अनेक कन्याएँ हैं सो उन्हें तुम प्राप्त होओ । हे सुंदर ! इस तरह व्यर्थ ही लोकापवाद मत करो ॥35।।

तदनंतर लज्जा और शोक से जिसका मुख नीचा हो रहा था ऐसे भामंडल ने इस प्रकार कहा कि मुझे धिक्कार हो, जो मैंने तीव्र मोह में पड़कर इस प्रकार विरुद्ध चिंतवन किया ॥36॥ ऐसा कार्य तो अत्यंत नीचकुल वालों को भी करना उचित नहीं है । अहो, मेरे अत्यंत अशुभ कर्मों ने कैसी चेष्टा दिखायी ? ॥37॥मैंने उसके साथ एक ही उदर में शयन किया है । आज पापकर्म का उदय मंद हुआ इसलिए किसी तरह उसे जान सका हूँ ॥38॥ तदनंतर शोक के भार से पीड़ित भामंडल को गोद में रखकर बहुत भारी आश्चर्य से भरा चंद्रगति चुंबन कर पूछने लगा ॥39॥ कि हे पुत्र ! कह, तूने ऐसा कथन किसलिए किया ? इसके उत्तर में उसने कहा कि हे तात! मेरा कहने योग्य चरित सुनिए ॥40॥

पूर्वजन्म में मैं इसी देश के विदग्धनगर में दूसरे देशों को लूटने वाला, समस्त पृथिवी में प्रसिद्ध, युद्ध का प्रेमी, अपनी प्रजा की रक्षा करने वाला तथा महाविभव से संयुक्त कुंडल मंडित नाम का राजा था ॥41-42॥ वहाँ मैंने अशुभकर्म के उदय से एक ब्राह्मण की स्त्री हरी और ब्राह्मण को माया पूर्वक तिरस्कृत किया जिससे वह अत्यंत दुःखी होकर कहीं चला गया॥ 43॥ तदनंतर राजा अनरण्य के सेनापति ने मेरी सब संपत्ति हरकर मेरे पास केवल मेरा शरीर ही रहने दिया । अंत में अत्यंत दरिद्र हो पृथिवी पर भटकता हुआ मैं कहीं मुनियों के आश्रम में पहुँचा ॥44॥ वहाँ मैंने तीनों लोकों से पूज्य, सब पदार्थों को जानने वाले तथा महान् आत्मा के धारक अरहंत भगवान् का पवित्र धर्म प्राप्त किया ॥45॥ और समस्त जीवों के बांधवभूत श्रीगुरु के उपदेश से निरतिचार मांस त्याग व्रत धारण किया । मैं अत्यंत क्षुद्र शक्ति का धारक था इसलिए अधिक व्रत धारण नहीं कर सका॥ 46॥ अहो ! जिनशासन का बड़ा माहात्म्य है जो मैं महापापी होकर भी दुर्गति को प्राप्त नहीं हुआ ॥47॥ श्रीजिनधर्म की शरण होने से तथा व्रत और नियम के प्रभाव से मेरा जीव किसी अन्य जीव के साथ राजा जनक की विदेहा रानी के उदर में पहुंचा ॥48॥रानी विदेहा ने सुखपूर्वक कन्या के साथ एक पुत्र उत्पन्न किया सो जिस प्रकार गीध मांस के टुकड़े को हर लेता है उसी प्रकार किसी ने उस पुत्र को हर लिया ॥49॥ वह व्यक्ति उस बालक को नक्षत्रों से भी अधिक ऊंचे आकाश में ले गया । यथार्थ में व्यक्ति वही था जिसकी स्त्री पहले मैंने हरी थी ॥50॥ पहले तो उसने कहा कि मैं इसे मारता हूँ परंतु फिर दया कर उसने कुंडलों से अलंकृत कर धीरे से आकाश से छोड़ दिया ॥51॥ उस समय तुम परम उपवन में विद्यमान थे सो रात्रि में पड़ता देख तुमने मुझे ऊपर से ही पकड़ लिया और दयालु होकर अपनी रानी के लिए सौंपा ॥52॥ आपके प्रसाद से रानी की गोद में वृद्धि प्राप्त हुआ, उत्कृष्ट विद्याओं का धारक हुआ और बहुत ही लाड़प्यार से मेरा पालन हुआ ॥53॥ यह कहकर भामंडल चुप ही रहा तथा उपस्थित समस्त लोग हाहाकार करते तथा मस्तक हिलाते हुए आश्चर्य को प्राप्त हुए ॥54॥ राजा चंद्रगति यह अत्यंत आश्चर्यकारी वृत्तांत सुनकर परम प्रबोध तथा अत्यंत दुर्लभ संवेग को प्राप्त हुआ । उसने लोक धर्म अर्थात् स्त्री-सेवनरूपी वृक्ष को सुखरूपी फल से रहित तथा संसार का बंधन जाना, इंद्रियों के विषयों में जो बुद्धि लग रही थी उसका परित्याग किया, आत्म-कर्तव्य का ठीक-ठीक निश्चय किया, पुत्र के लिए विधिपूर्वक अपना राज्य दिया और बड़ी शीघ्रता से सर्वभूतहित नामक मुनिराज के चरण मूल में प्रस्थान किया॥ 55-57॥

भगवान् सर्वभूतहित भव्य जीवों को आनंद देने वाले गुणरूपी किरणों के समूह से समस्त संसार में प्रसिद्ध थे॥ 58॥ महेंद्रोदय नामा उद्यान में स्थित उन सर्वभूतहित मुनिराज की पूजा कर नमस्कार कर तथा भावपूर्वक स्तुति कर हाथ जोड़ मस्तक से लगाकर राजा चंद्रगति ने इस प्रकार कहा कि हे भगवन् ! मैं गृहवास से विरक्त हो चुका हूँ इसलिए आपके प्रसाद से जिनदीक्षा प्राप्त कर तपश्चरण करना चाहता हूँ ॥59-60॥ एवमस्तु ऐसा कहने पर भामंडल ने भावपूर्वक परम प्रभावना की । जोर-जोर से भेरियाँ बजने लगी, उत्तम स्त्रियों ने बांसुरी की ध्वनि के साथ मनोहर गीत गाया, करताल के साथ-साथ अनेक वादित्रों के समूह गर्जना करने लगे । राजा जनक का लक्ष्मीशाली पुत्र जयवंत हो रहा है बंदीजनों का यह जोरदार शब्द प्रतिध्वनि करता हुआ गूंजने लगा॥ 61-63॥ उद्यान से उठे हुए इस श्रोत्रहारी शब्द ने रात्रि के समय अयोध्यावासी समस्त लोगों को निद्रारहित कर दिया ॥64॥ऋषियों से संबंध रखने वाली इस हर्षध्वनि को सुनकर जैन लोग परम हर्ष को प्राप्त हुए और मिथ्यादृष्टि लोग विषाद से युक्त हो गये ॥65॥ उस शब्द को सुनकर सीता भी इस प्रकार जाग उठी मानो अमृत से ही सींची गयी हो, उसके समस्त अंग रोमांच से, व्याप्त हो गये तथा उसका बायाँ नेत्र फड़कने लगा ॥66॥ वह विचारने लगी कि यह जनक कौन है जिसका कि पुत्र जयवंत हो रहा है । यह अत्यंत उन्नत शब्द बार-बार सुनाई दे रहा है ॥67॥ राजा जनक कनक का बड़ा भाई और मेरा पिता है । मेरा भाई उत्पन्न होते ही हरा गया था सो यह वही तो नहीं है ? ॥68॥

ऐसा विचार कर भाई के स्नेह से जिसका मन व्याप्त हो रहा था ऐसी सीता विलाप करती हुई गला फाड़कर रोने लगी ॥69॥

तदनंतर सुंदर शरीर के धारी रामने मधुर अक्षरों में कहा कि वैदेहि ! भाई के शोक से विवश हो क्यों रही हो ॥70॥ यदि यह तुम्हारा भाई है तो कल मालूम करेंगे इसमें संशय नहीं है और यदि कहीं कोई दूसरा है तो हे पंडिते! शोक करने से क्या लाभ है ? ॥71॥ क्योंकि जो चतुर जन हैं वे बीते हुए, मरे हुए, हरे हुए, गये हुए अथवा गुमे हुए इष्टजन का शोक नहीं करते हैं ॥72॥ हे वल्लभे ! विषाद उसका किया जाता है जो कातर होता है अथवा बुद्धि हीन होता है । इसके विपरीत जो शूरवीर बुद्धिमान होता है उसका विषाद नहीं किया जाता ॥73॥ इस प्रकार दंपती के वार्तालाप करते-करते रात्रि बीत गयी सो मानो दया से ही शीघ्र चली गयी और प्रातःकाल संबंधी मंगलमय शब्द होने लगे॥74।।

तदनंतर राजा दशरथ अंग संबंधी कार्य कर आदर सहित पुत्रों और स्त्रीजनों के साथ नगरी से बाहर निकले ॥75॥सैकड़ों सामंत उनके साथ थे । वे जहाँ-तहां फैली हुई विद्याधरों की सेना को देखते हुए आश्चर्यचकित होते जा रहे थे ॥76॥ उन्होंने क्षण-भर में ही विद्याधरों के द्वारा निर्मित ऊंचे कोट और गोपुरों से सहित इंद्रपुरी के समान स्थान देखा॥ 77॥तदनंतर उन्होंने पताकाओं और तोरणों से चित्रित, रत्नों से अलंकृत एवं मुनिजनों से व्याप्त उस महेंद्रोदय नामा उद्यान में प्रवेश किया ॥78॥ वहाँ जाकर राजा दशरथ ने गुणों से श्रेष्ठ सर्वभूतहित नामा गुरु को नमस्कार कर तथा उनकी स्तुति कर सूर्योदय के समय राजा चंद्रगति का दीक्षा महोत्सव देखा॥ 79॥ उन्होंने विद्याधरों के साथ गुरु की बहुत बड़ी पूजा की और उसके बाद वे समस्त भाई-बंधुओं के साथ एक ओर बैठ गये ॥80॥ कुछ शोक को धारण करता हुआ भामंडल भी समस्त विद्याधरों के साथ एक ओर आकर बैठ गया ॥81॥ विद्याधर और भूमिगोचरी गृहस्थ तथा मुनिराज सभी लोग पास-पास बैठकर गुरुदेव से मुनि तथा गृहस्थधर्म का व्याख्यान सुन रहे थे ॥82॥ गुरुदेव कह रहे थे कि मुनियों का धर्म शूरवीरों का धर्म है, अत्यंत शांत दशारूप है, मंगलरूप है, अत्यंत दुर्लभ है, सिद्ध है, साररूप है और क्षुद्र जनों को भय उत्पन्न करने वाला है॥ 83॥इस मुनिधर्म को पाकर सम्यग्दृष्टि भव्यजीव निःसंदेह स्वर्ग का महासुख प्राप्त करते हैं॥ 84॥ और कितने ही लोक-अलोक को प्रकाशित करने वाले केवलज्ञान को प्राप्त कर लोक के अग्रभाग पर आरूढ़ हो मोक्ष का सुख प्राप्त करते हैं ॥85॥ तिर्यंच और नरक गति के दुःखरूपी अग्नि की ज्वालाओं से भरा हुआ यह संसार जिससे छूटता है वही मार्ग सर्वोत्तम है॥ 86॥ऐसे मार्ग का कथन उन मुनिराज ने किया था । वे मुनिराज समस्त प्राणियों का हित करने वाले थे, गंभीर गर्जना के समान स्वर को धारण करने वाले थे, समस्त जीवों के चित्त में आह्लाद उत्पन्न करने वाले थे तथा समस्त पदार्थों को जानने वाले थे ॥47॥ जिनके चित्त प्रसन्नता से भर रहे थे ऐसे समस्त लोगों ने संदेहरूपी संताप को नष्ट करने वाले मुनिराज के वचनरूपी जल का अपने-अपने कर्णरूपी अंजलिपुट से खूब पान किया॥88॥

तदनंतर जब वचनों में अंतराल पड़ा तब राजा दशरथ ने पूछा कि हे नाथ ! विद्याधरों के राजा चंद्रगति का वैराग्य किस कारण हुआ है ?॥89॥वहीं पास में बैठी निर्मल दृष्टि की धारक सीता अपने भाई को जानना चाहती थी इसलिए श्रवण करने की इच्छा से नम्र हो उसने मन को अत्यंत निश्चल कर लिया ॥90॥ तब विशुद्ध आत्मा के धारक भगवान् सर्वभूतहित मुनिराज बोले कि हे राजन् ! अपने द्वारा अजित कर्मो के द्वारा निर्मित जीवों की इस विचित्रता को सुनो ॥9॥ कर्मरूपी वाय से प्रेरित हआ यह भामंडल का जीव दीर्घकाल तक संसार में भ्रमण कर अत्यंत दुःखी हआ है । अंत में जब भामंडल पैदा हआ तब वह राजा चंद्रगति को प्राप्त हआ । चंद्रगति ने पालन-पोषण करने के लिए अपनी पुष्पवती भार्या को सौंपा । जब यह तरुण होकर स्त्रीविषयक चिंता को प्राप्त हुआ तब अपनी बहन सीता का चित्रपट देख अत्यंत व्यथा को प्राप्त हुआ॥92-93॥ सीता की मँगनी करने के लिए मायामयी अश्व के द्वारा राजा जनक का हरण हुआ अंत में सीता का धनुष-स्वयंवर हुआ और उसने स्वयंवर में राजा दशरथ के पुत्र राम को वर लिया । इस घटना से भामंडल परम चिंता को प्राप्त हुआ ॥94॥ अकस्मात् इसे पूर्व भव का स्मरण हुआ, जिससे यह मूर्च्छित हो गया । सचेत होने पर राजा चंद्रगति ने इसका कारण पूछा तब वह अपने पूर्व भव की वार्ता इस प्रकार कहने लगा ॥95॥ कि मैं भरत क्षेत्र के विदग्ध नामा नगर में कुंडल मंडित नाम का राजा था, मैं बड़ा अधर्मी था इसलिए मैंने उसी नगर में रहने वाले पिंगल नामक ब्राह्मण की मनोहर स्त्री का हरण किया था ॥96॥ मैं राजा अनरण्य के राज्य में उपद्रव किया करता था इसलिए उसके सेनापति बालचंद्र ने मेरी सर्व संपदा छीनकर मुझे देश से निकाल दिया । अंत में मैं भटकता हुआ मुनियों के आश्रम में पहुँचा और वहाँ मैंने अनामिष अर्थात् मांसत्याग का व्रत धारण किया ॥97॥ उसके फलस्वरूप धर्मध्यान से सहित हो तथा कलुषता से रहित होकर मैंने मरण किया और मरकर राजा जनक की रानी विदेहा के गर्भ में जन्म धारण किया । जिस स्त्री का मैंने हरण किया था भाग्य की बात कि वह भी उसी विदेहा के गर्भ में उसी समय आकर उत्पन्न हुई ॥98॥ पिंगल ने जब जंगल से लौटकर कुटिया सूनी देखी तो उसे इतना तीव्र दुःख हुआ कि मानो उसका शरीर कोटर की अग्नि से झुलस ही गया हो ॥19॥ वह उसके बिना पागल-जैसा हो गया, उसके नेत्रों से लगातार दुर्दिन की भाँति आँसुओं की वर्षा होने लगी तथा दुःखी होकर वह जो भी दिखता था उसी से पूछता था क्या तुमने मेरी कमललोचना प्रिया देखी है ? ॥100॥ वह हा कांते ! इस प्रकार चिल्लाता हुआ विलाप करने लगा तथा कहने लगा कि तुम मुझ में प्रीति होने के कारण प्रभावती माता, चक्रध्वज पिता, विशाल विभूति और प्रेम से भरे भाइयों को छोड़कर विदेश में आयी थीं ॥101-102॥ तुमने मेरे पीछे रूखा-सूखा भोजन और अशोभनीय वस्त्र ग्रहण किये हैं फिर भी हे सर्वावयवसुंदरि ! मुझे छोड़कर तुम कहाँ चली गयी हो ? ॥103॥ खेदखिन्न तथा वियोगरूपी अग्नि से जला हुआ पिंगल पहाड़ों और वनों से सहित पृथिवी में दुःखी होकर चिर काल तक भटकता रहा । अंत में तप करने लगा परंतु उस समय भी उसे स्त्री की उत्कंठा सताती रहती थी ॥104॥

तदनंतर देवपर्याय को पाकर वह इस प्रकार चिंता करने लगा कि क्या मेरी वह प्रिया सम्यक्त्व से रहित होकर तिर्यंचयोनि को प्राप्त हुई है ॥105॥ अथवा स्वभाव से सरल होने के कारण पुनः मानुषी हुई या आयु के अंत समय में जिनेंद्रदेव का स्मरण कर देव पर्याय को प्राप्त हुई है ? ॥106॥ ऐसा विचार कर तथा सब निश्चय कर उसने अपनी दृष्टि स्थिर की तथा कुपित होकर यह विचार किया कि इसे अपहरण करने वाला दुष्ट शत्रु कहाँ है ? कुछ समय के विचार के बाद उसे मालूम हो गया कि वह शत्रु भी इसी के साथ विदेहा रानी की कुक्षि में ही विद्यमान है ॥107॥ रानी विदेहा ने बालक और बालि का को जन्म दिया सो वैर का बदला लेने के लिए वह देव बालक को उठा ले गया परंतु कर्मोदय से उसके परिणाम शांत हो गये जिससे उसने उस बालक को लघुपर्णी विद्या से लघु कर जीते रहो इन शब्दों का उच्चारण कर आकाश से छोड़ा॥ 108॥जिसमें चाँदनी अट्टहास कर रही थी ऐसी रात्रि में आकाश से पड़ते हुए उस बालक को आपने पकड़ा था और अपनी रानी पुष्पवती के लिए सौंपा था । क्या यह आपको स्म है ? ॥109॥ मैंने आपके प्रसाद से विद्याधरपना प्राप्त किया । यथार्थ में विदेहा मेरी माता है वह सीता मेरी बहन है ॥110॥ भामंडल के ऐसा कहने पर विद्याधरों की समस्त सभा आश्चर्य को प्राप्त हुई तथा चंद्रगति संसार से भयभीत हो भामंडल के लिए राज्यलक्ष्मी सौंपकर तथा यह कह कर यहाँ चला आया कि हे वत्स ! तेरे माता-पिता शोक के कारण दुःख से रह रहे हैं सो उनके नेत्रों को आनंद प्रदान कर॥111-112॥ तदनंतर जो उत्पन्न होता है उसका मरण अवश्य होता है और जिसका मरण होता है वह गर्भ में स्थित होता है, ऐसा विचारकर चंद्रगति संसार से भयभीत हो वैराग्य को प्राप्त हुआ ॥113॥ इसी बीच में भामंडल ने सर्वभूतहित मुनिराज से पूछा कि हे प्रभो ! चंद्रगति आदि का मुझ पर बहुत भारी स्नेह किस कारण था॥ 114॥ इनके उत्तर में मुनिराज ने कहा कि हे भामंडल ! तेरे माता-पिता पूर्व भव में जिस प्रकार थे सो कहता हूँ सुन ॥115॥ दारुग्राम में एक विमुचि नाम का ब्राह्मण था । उसकी स्त्री का नाम अनुकोशा था और पुत्र का नाम अतिभूति था । अतिभूति की स्त्री का नाम सरसा था ॥116॥ किसी समय उसके घर अपनी ऊरी नामक माता के साथ कयान नाम का एक ब्राह्मण आया सो उसने अतिभूति की स्त्री सरसा तथा घर के भीतर का सारभूत धन दोनों का हरण किया अर्थात् सरसा और धन को लेकर कहीं भाग गया ॥117 । इस निमित्त से अतिभूति बहुत दुःखी हुआ और स्त्री की खोज में पृथिवी पर भ्रमण करने लगा । इधर उसके चले जा ने से घर पुरुषरहित हो गया सो बा की बचा धन भी चोर ले गये ॥118॥ विमुचि ब्राह्मण दक्षिणा की इच्छा करता हुआ पहले ही देशांतर चला गया था । वहाँ जब उसने सुना कि हमारा कुल-परंपरा से चला आया घर नष्ट हो गया है तब वह शीघ्र ही लौटकर वापस आया॥119॥ आकर उसने देखा कि उसकी स्त्री अनुकोशा अत्यंत विह्वल हो रही है और उसके शरीर पर जीर्ण-शीर्ण फटे चिथड़े हो शेष रह गये हैं । तब उसने उसे सांत्वना दी और कयान की माता ऊरी के साथ पुत्र को ढूँढ़ने के लिए गया॥ 120॥ उसने पृथिवीतल पर भ्रमण करते हुए लोगों से सुना कि सर्वारिपुर नामा नगर में एक आचार्य है जिन्होंने अपने अवधि ज्ञान से इस जगत् को प्रकाशित कर रखा है सो वह उनसे पुत्र की वार्ता पूछने के उद्देश्य से उनके पास गया । विमुचि महाशोक से भरा था और पुत्र तथा पुत्रवधू का पता न लगने से अत्यंत दुःखी था ॥121-122॥ वह आचार्य महाराज की तप ऋद्धि देखकर तथा संसार की नाना प्रकार की स्थिति सुनकर तीव्र वैराग्य को प्राप्त हुआ और उन्हीं के पास दीक्षा लेकर मुनि हो गया ॥123॥ विमुचि की स्त्री अनुकोशा और कयान की माता ऊरी इन दोनों ब्राह्मणियों ने भी कमलकांता नामक आर्यिका के पास दीक्षा लेकर तप धारण कर लिया ॥124॥ विमुचि, अनुकोशा और ऊरी ये तीनों प्राणी महानिस्पृह, धर्मध्यान से मरकर निरंतर प्रकाश से युक्त तथा आकुलतारहित ब्रह्मलोक नामक स्वर्ग में उत्पन्न हुए ॥125॥ अतिभूत तथा कयान दोनों ही हिंसा धर्म के समर्थक तथा मुनियों से द्वेष रखने वाले थे । इसलिए खोटे ध्यान से मरकर दुर्गति में गये ॥126॥ अतिभूति की स्त्री सरसा बलाहक नामक पर्वत की तलहटी में मृगी हुई सो व्याघ्र से भयभीत हो मृगों के झुंड से बिछड़कर दावानल में जल मरी॥ 127॥ तदनंतर दुःख देने में प्रवीण पापकर्म के शांत होने से मनस्विनी देवी के चित्तोत्सवा हुई ॥128॥ और कयान मरकर क्रम से घोड़ा तथा ऊँट हुआ । फिर मरकर धूम्रकेश का पुत्र पिंगल हुआ ॥129॥ अतिभूति भवभ्रमण कर क्रम से ताराक्ष नामक सरोवर के तीर पर हंस हुआ सो किसी समय श्येन अर्थात् बाज पक्षियों ने इसका समस्त शरीर नोंच डाला जिससे घायल होकर जिनमंदिर के समीप पड़ा ॥130॥ वहाँ गुरु यशोमित्र नामक शिष्य को बार-बार अर्हंत भगवान् का स्तोत्र पढ़ा रहे थे उसे सुनकर हंसने प्राण छोड़े ॥131॥ उसके फल स्वरूप वह नगोत्तर नामक पर्वत पर दश हजार वर्ष की आयु वाला किन्नर देव हुआ और वहाँ से च्युत होकर विदग्धनगर में राजा कुंडलमंडित हुआ॥ 132॥ पूर्वभव के संस्कार से चित्तोत्सवा कन्या का पिंगल ने अपहरण किया और उसके पास से कुंडलमंडित राजा ने अपहरण किया । इन सबका जो पूर्वभव का संबंध था वह पहले कहा जा चुका है ॥133॥ इनमें जो विमुचि ब्राह्मण था वह चंद्रगति राजा हुआ, उसकी अनुकोशा नाम की जो स्त्री थी वही पुष्पवती नाम की फिर से स्त्री हुई ॥134॥ कयान अपहरण करने वाला देव हुआ, सरसा चित्तोत्सवा हुई, ऊरी विदेहा और अतिभूति भामंडल हुआ ॥135꠰꠰

तदनंतर इस समस्त वृत्तांत को सुनकर जिनके नेत्र आँसुओं से भर गये थे ऐसे राजा दशरथ ने भामंडल का आलिंगन किया ॥136॥ उस समय सभा में जितने लोग बैठे थे सभी के मस्तक आश्चर्य से चकित रह गये, सभी के शरीर में बहुत भारी रोमांच निकल आये और सभी के नेत्र आनंद के आँसुओं से चंचल हो उठे॥ 137|मुख की आकृति ही जिसे प्रकट कर रही थी ऐसे भाई को बड़े प्रेम से देखकर सीता स्नेहवश मृगी की तरह रोती हुई, भुजाएँ ऊपर उठा दौड़ी और हे भाई ! मैं तुझे आज पहले ही पहल देख रही हूँ, यह कहकर उससे लिपट गयी और चिरकाल तक रुदन कर धैर्य को प्राप्त हुई॥ 138-139॥ राम, लक्ष्मण तथा अन्य बंधुओं ने भी सहसा उठकर भामंडल का आलिंगन किया तथा आदर सहित उससे वार्तालाप किया ॥140॥

तदनंतर उन श्रेष्ठ मुनिराज को नमस्कार कर सब विद्याधर और भूमिगोचरी मनुष्य उप वन से बाहर निकले । उस समय वे हर्ष से परिपूर्ण थे तथा अत्यंत सुशोभित हो रहे थे ॥141॥ भामंडल के साथ सलाह कर राजा दशरथ ने शीघ्र ही आकाशगामी विद्याधर के हाथ राजा जनक के पास पत्र भेजा ॥142॥ भामंडल का उत्तम विमान आकाश-मार्ग से आ रहा था, हंसों के द्वारा धारण किया गया था तथा बहुत से विद्याधर वीर उसे घेरे हुए थे ॥143॥ तदनंतर भामंडल को लेकर राजा दशरथ ने इंद्र के समान बड़ी विभूति से अयोध्या में प्रवेश किया ॥144॥ अक्षीण कोश के धनी राजा दशरथ ने भामंडल के आने पर प्रसन्न हो सब लोगों के साथ मिलकर बड़ा उत्सव किया ॥145॥ भामंडल राजा दशरथ के द्वारा बताये हुए रमणीय, विशाल, ऊँचे तथा वापी और बगीचा से सुशोभित महल में सुख से ठहरा ॥146॥ उस परमोत्सव के समय राजा दशरथ ने इतना अधिक दान दिया कि पृथ्वीतल के दरिद्र मनुष्य इच्छा से अधिक धन पाकर दरिद्रता से मुक्त हो गये ॥147॥ उधर पवन के समान शीघ्रगामी पत्रवाहक विद्याधर ने पुत्र के आगमन का समाचार सूना कर राजा जनक को सहसा हर्षित कर दिया॥148॥राजा जनक दिये हुए पत्र को बाँचकर तथा उसकी सत्यता का दृढ़ विश्वास कर परम प्रमोद को प्राप्त हुए । उनका सारा शरीर हर्ष से रोमांचित हो गया ॥149॥ वे उस विद्याधर से पूछने लगे कि हे भद्र ! क्या यह स्वप्न है ? अथवा जागृत दशा में होने वाला प्रत्यक्षज्ञान है, आओ, आओ मैं तुम्हारा आलिंगन करूँ ॥150॥ इतना कहकर आनंद के आँसुओं से जिनके नेत्रों की पुतलियाँ चंचल हो रही थीं ऐसे राजा जनक ने उस पत्र वाहक विद्याधर का ऐसा आलिंगन किया मानो साक्षात् पुत्र ही आ गया हो ॥151॥उन्होंने इस हर्ष से नृत्य करते हुए की तरह उस विद्याधर के लिए अपने शरीर पर स्थित समस्त वस्त्राभूषण दे दिये । शरीर पर केवल उतने ही वस्त्र शेष रहने दिये जिससे कि वे नग्न न दिखें ॥152॥हर्ष की वृद्धि करने वाले राजा जनक के बंधुवर्ग जब तक इकट्ठे होते हैं तब तक अपनी कांति से आकाश को आच्छादित करता हुआ भामंडल का विमान वहाँ आ पहुँचा ॥153॥राजा जनक ने अतृप्त हो बार-बार भामंडल का वृत्तांत पूछा और विद्याधरों ने सब वृत्तांत ज्यों का त्यों बड़े विस्तार से कहा॥ 154॥

तदनंतर राजा जनक समस्त भाई-बंधुओं के साथ विमान पर आरूढ़ हो निमेष मात्र में अयोध्या जा पहुँचे । उस समय अयोध्या तुरही के मधुर शब्द से शब्दायमान हो रही थी ॥155॥ आकाश से शीघ्र ही उतरकर उन्होंने पुत्र का गाढ़ आलिंगन किया । आलिंगन जन्य सुख से उनके नेत्र निमीलित हो गये और क्षणभर के लिए वे मूर्च्छा को प्राप्त हो गये ॥156॥सचेत होने पर उन्होंने जिनसे अश्रु-जल झर रहा था ऐसे विशाल लोचनों से तृप्ति कर पुत्र का अवलोकन किया तथा हाथ से उसका स्पर्श किया ॥157॥ माता विदेहा भी पुत्र को देखकर तथा आलिंगन कर हर्षातिरेक से मूर्च्छित हो गयी और सचेत होने पर ऐसा रुदन करने लगी कि जिससे तिर्यंचों को भी दया उत्पन्न हो रही थी ॥158॥वह विलाप करने लगी कि हाय पुत्र ! तू उत्पन्न होते ही किसी विकट वैरी के द्वारा क्यों अपहृत हो गया था ? ॥159॥ मेरा यह शरीर अग्नि के समान तेरे देखने की चिंता से अब तक जलता रहा है । आज चिरकाल के बाद तेरे दर्शनरूपी जल से शांत हुआ है ॥160॥ पुष्पवती बड़ी ही धन्य और भाग्यशालिनी उत्तम स्त्री है जिसने कि बाल्य अवस्था में क्रीड़ा से धूल धूसरित तेरे अंग अपनी गोद में रखे हैं तथा चंदन से लिप्त और केशर के तिलक से सुशोभित तेरे मुख का चुंबन किया है एवं शैशव अवस्था को धारण करने वाले तेरे कुमार कालीन शरीर को देखा है ॥161-162॥माता विदेहा के नेत्रों से आँसू और स्तनों से चिरकाल तक दूध निकलता रहा । वह उत्तम पुत्र का संग पाकर परम आनंद को प्राप्त हुई ॥163॥ जिस प्रकार ऐरावत क्षेत्र में ज़ंभा नाम की जिनशासन को सेवक देवी रहती है उसी प्रकार वह भामंडल पर दृष्टि लगाकर अर्थात् उसे देखती हुई सुखरूपी सागर में निमग्न होकर रहने लगी ॥164॥ तदनंतर एक मास तक अयोध्या में रहने के बाद भाई-बंधुओं के समागम से प्रसन्न एवं परम विनय को धारण करने वाले भामंडल ने श्रीराम से कहा कि ॥165॥ हे देव ! सीता के आप ही शरण हो और आप ही इसके सर्वोत्तम बांधव हो । आप इसके हृदय में इस प्रकार विद्यमान रहे कि जिससे यह उद्वेग को प्राप्त न हो ॥166॥ उत्कृष्ट हृदय के धारक भामंडल ने उत्तम चेष्टाओं से सुशोभित बहन का स्नेहवश आलिंगन कर उसे बार-बार उपदेश दिया ॥167॥ माता विदेहा ने भी सीता का आलिंगन कर कहा कि हे बेटी! तु अपने सास-ससुर को प्रिय हो, तथा परिजन के साथ ऐसा व्यवहार कर कि जिससे प्रशंसा को प्राप्त हो ॥168॥तदनंतर भामंडल सब लोगों से पूछकर तथा मिथिला का राज्य कनक के लिए सौंपकर माता-पिता को साथ ले अपने स्थानपर चला गया ॥169॥

गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे मगधेश्वर ! पूर्व भव में किये हुए धर्म का यह माहात्म्य देखो । धर्म के माहात्म्य से ही रामने विद्याधरों का राजा भामंडल-जैसा बंधु प्राप्त किया, गुण तथा रूप से परिपूर्ण सीता जैसी पत्नी प्राप्त की तथा देवों के समूह से अधिष्ठित कवच, हल, गदा आदि से युक्त एवं देवों के द्वारा दुर्लभ धनुष प्राप्त किये । लक्ष्मी का भांडार लक्ष्मण जैसा सेवक प्राप्त किया ॥170-171॥ जो मनुष्य अत्यंत विशुद्ध हृदय से भामंडल के इस इष्ट समागम को सुनता है सूर्य के समान प्रभा को धारण करने वाला वह शुभात्मा मनुष्य चिरकाल तक इष्टजनों के साथ समागम और आरोग्य को प्राप्त होता है ॥172॥

इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मचरित में भामंडल के समागम का वर्णन करने वाला तीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥30॥