+ दंडक वन में निवास -
बयालीसवाँ पर्व

  कथा 

कथा :

अथानंतर पात्रदान के प्रभाव से सीता सहित राम-लक्ष्मण इसी पर्याय में रत्न तथा सुवर्णादि संपत्ति से युक्त हो गये ॥1॥ तदनंतर जो स्वर्णमयी अनेक बेल-बूटों के विन्यास से सुंदर था, जो उत्तमोत्तम खंभों, वेदि का तथा गर्भगृह से सहित था, ऊँचा था, जिसके झरोखे बड़े-बड़े मोतियों की माला से सुशोभित थे, जो छोटे-छोटे गोले, दर्पण, फन्नूस, तथा खंडचंद्र आदि सजावट की सामग्री से अलंकृत था, शयन, आसन, वादित्र, वस्त्र तथा गंध आदि से भरा था, जिसमें चार हाथी जुते थे और जो विमान के समान था ऐसे रथ पर सवार होकर ये सब बिना किसी बाधा के जटायु पक्षी के साथ-साथ धैर्यशाली मनुष्यों के मन को हरण करने वाले वन में विचरण करते थे ॥2-5॥वे उस मनोहर वन में इच्छानुसार क्रीड़ा करते हुए कहीं एक दिन, कहीं एक पक्ष और कहीं एक माह ठहरते थे ॥6॥ हम यहाँ निवास करेंगे यहाँ ठहरेंगे इस प्रकार कहते हुए वे किसी बड़े बैल की नयी घास खाने की इच्छा के समान वन में सुखपूर्वक विचरण करते बड़े-बड़े निर्झरों से गंभीर थे तथा जिन में ऊंचे-ऊँचे वृक्ष लग रहे थे ऐसे कितने ही ऊँचे-नीचे प्रदेशों को पार कर वे धीरे-धीरे जा रहे थे ॥8॥ सिंहों के समान निर्भय हो स्वेच्छा से घूमते हुए वे, भीरु मनुष्यों को भय देने वाले दंडक वन के उस मध्य भाग में प्रविष्ट हुए जहाँ हिमगिरि के समान विचित्र पर्वत थे तथा मोतियों के हार के समान सुंदर निर्झर और नदियाँ स्थित थीं ॥9-10॥ जहाँ का वन, पीपल, इमली, बैरी, बहेड़े, शिरीष, केले, राल, अक्षरोट, देवदारु, धौ, कदंब, तिलक, लोध, अशोक, नील और लाल रंग को धारण करने वाले जामुन, गुलाब, आम, अंवाडा, चंपा, कनेर, सागौन, ताल, प्रियंगु, सप्तपर्ण, तमाल, नागकेशर, नंदी, कौहा, बकौली, चंदन, नीप, भोजपत्र, हिंगुलक, बरगद, सफेद तथा काला अगुरु, कुंद, रंभा, इंगुआ, पद्मक, मुचकुंद, कुटिल, पारिजातक, दुपहरिया, केतकी, महुआ, खैर, मैनार, खदिर, नीम, खजूर, छत्रक, नारंगी, बिजौरे, अनार, असन, नारियल, कथा, रसोंद, आँवला, शमी, हरड, कचनार, करंज, कुष्ट, कालीय, उत्कच, अजमोद कंकोलदालचीनी लौंगमिरच, चमेली, चव्य, आँवला, कृर्षक, अतिमुक्तक, सुपारी पान, इलायची, लालचंदन, बेंत, श्यामलता, मेढासिंगी, हरिद्र, पलाश, तेंदू, बेल, चिरोल, मेथी चंदन, अरडूक, सेंम, बीजसार, इनसे तथा इनके सिवाय अन्य वृक्षों से सुशोभित था ॥11-21॥उस वन के लंबे-चौड़े प्रदेश स्वयं उत्पन्न हुए अनेक प्रकार के धान्यों तथा रसीले पौंडों और ईखों से व्याप्त थे ॥22॥ नाना प्रकार की लताओं से युक्त विविध वृक्षों के समूह से वह वन ठीक दूसरे नंदनवन के समान सुशोभित हो रहा था । ॥23॥ मंद-मंद वायु से हिलते हुए अत्यंत कोमल किसलयों से वह अटवी ऐसी जान पड़ती थी मानो राम आदि के आगमन से उत्पन्न हर्ष से नृत्य ही कर रही हो । ॥24॥ वायु के द्वारा हरण की हुई पराग से वह अटवी ऊपर उठी हुई-सी जान पड़ती थी और उत्तम गंध को धारण करने वाली वायु मानो उसका आलिंगन कर रही थी ॥25 ॥वह भ्रमरों की झंकार से ऐसी जान पड़ती थी मानो मनोहर गान ही गा रही हो और पहाड़ी निर्झरों के उड़ते हुए जल कणों से ऐसे विदित होती थी मानो शुक्ल एवं सुंदर हास्य ही कर रही हो ॥26॥ चकोर, भेरुंड, हंस, सारस, कोकिला, मयूर, बाज, कुरर, तोता, उलूक, मैना, कबूतर, भृंगराज, तथा भारद्वाज आदि पक्षी मनोहर शब्द करते हुए उस अटवी में क्रीड़ा करते थे॥27-28॥ पक्षियों के उस मधुर कोलाहल से वह वन ऐसा जान पड़ता था मानो प्राप्त कार्य में निपुण होने से संभ्रम के साथ सबका स्वागत ही कर रहा हो॥29॥कलरव करते हुए पक्षी कोमल वाणी से मानो यही कह रहे थे कि हे साध्वि ! राजपुत्रि ! तुम कहाँ से आ रही हो और कहाँ आयी हो ॥30॥ सफेद, नीले तथा लाल कमलों से व्याप्त अतिशय निर्मल सरोवरों से वह वन ऐसा जान पड़ता था मानो कुतूहलवश देखने के लिए उद्यत ही हुआ हो ॥31॥फलों के भार से झुके हुए अग्र भागों से वह वन ऐसा जान पड़ता था मानो बड़े आदर से राम आदि को नमस्कार ही कर रहा हो और सुगंधित वायु से ऐसा सुशोभित होता था मानो आनंद के श्वासोच्छ्वास ही छोड़ रहा हो ॥32॥

तदनंतर सौमनसवन के समान सुंदर वन को देख-देखकर राम ने विकसित कमल के समान खिले हुए नेत्रों को धारण करने वाली सीता से कहा कि हे प्रिये ! इधर देखो, ये वृक्ष लताओं तथा निकटवर्ती गुल्मों और झाड़ियों से ऐसे जान पड़ते हैं मानो कुटुंब सहित ही हों ॥33-34॥ वकुल वृक्ष के वक्षस्थल से लिपटी हुई इस प्रियंगु लता को देखो । यह ऐसी जान पड़ती है मानो पति के वक्षःस्थल से लिपटी प्रेम भरी सुंदरी ही हो ॥35॥यह माधवी लता हिलते हुए पल्लव से मानो सौहार्द के कारण ही आम का स्पर्श कर रही है ॥36॥ हे सीते ! जिसके नेत्र मद से आलस हैं, हस्तिनी जिसे प्रेरणा दे रही है और जिसने कलिकाओं के समूह को भ्रमरों से रहित कर दिया है ऐसा यह हाथी कमल वन में प्रवेश कर रहा है ॥37॥जो अत्यधिक गर्व को धारण कर रहा है, जो लीला से सहित है, तथा जिसके खुरों के अग्रभाग सुशोभित हैं ऐसा यह अत्यंत नील भैंसा वज्र के समान सींग के द्वारा वामी के उच्च शिखर को भेद रहा है ॥38॥ इधर देखो, इस साँप के शरीर का बहुत कुछ भाग बिल से बाहर निकल आया था फिर भी यह सामने इंद्रनील मणि के समान नीलवर्ण वाले मयूर को देखकर भयभीत हो फिर से उसी बिल में प्रवेश कर रहा है ॥39॥ हे सिंह के समान नेत्रों को धारण करने वाली तथा फैलती हुई कांति से युक्त प्रिये ! इस मनोहर पर्वत पर गुहा के अग्रभाग में स्थित सिंह की उदात्त चेष्टा को देखो जो इतना दृढ़ चित्त है कि रथ का शब्द सुनकर क्षणभर के लिए निद्रा छोड़ता है और कटाक्ष से उसकी ओर देखकर तथा धीरे से जमुहाई लेकर फिर भी उसी तरह निर्भय बैठा है ॥40॥ इधर नाना मृगों का रुधिर पान करने से जिसका मुख अत्यंत लाल हो रहा है, जो अहंकार से फूल रहा है, जिसका मुख नेत्रों की पीली-पीली कांति से युक्त है, तथा चमकीले बालों से युक्त जिसकी पूँछ पीछे से घूमकर मस्तक के समीप आ पहुँची है ऐसा यह व्याघ्र नाखूनों के द्वारा वृक्ष के मूलभाग को खोद रहा है ॥41॥ जिन्होंने स्त्रियों के साथ-साथ अपने बच्चों के समूह को बीच में कर रखा है, जिनके चंचल नेत्र बहुत दूर तक पड़ रहे हैं, जो अत्यधिक सावधान हैं, जो कुछ-कुछ दूर्वा के ग्रहण करने में चतुर हैं और कौतुकवश जिनके नेत्र अत्यंत विशाल हो गये हैं ऐसे ये हरिण समीप में आकर तुम्हें देख रहे हैं ॥42॥ हे सुंदरि ! धीरे-धीरे जाते हुए उस वराह को देखो, जिसकी दाँढों में मोथा लग रहा है, जिसका बल अत्यंत उन्नत है, जिसने अभी हाल नयी कीचड़ अपने शरीर में लगा रखी है, तथा जिसकी नाक बहुत लंबी है ॥43॥ हे सुलोचने ! प्रयत्न के बिना ही जिसका शरीर नाना प्रकार के वर्गों से चित्रित हो रहा है ऐसा यह चीता इस तृण बहुल वन के एकदेश में अपने बच्चों के साथ अत्यधिक क्रीड़ा कर रहा है ॥44॥ इधर जिसके पंख जल्दी घूम रहे हैं ऐसा यह तरुण बाज-पक्षी दूर से ही सब ओर देखकर सोते हुए शरभ के मुख से बड़ी शीघ्रता के साथ मांस को छीन रहा है ॥45॥ इधर जिसका मस्तक कमल जैसी आवर्त से सुशोभित है; जो कुछ-कुछ हिलती हुई ऊँची काँदौर को धारण कर रहा है, जो विशाल शब्द कर रहा है तथा जो उत्तम विभ्रम से सहित है ऐसा यह बैल सुशोभित हो रहा है ॥46॥ कहीं तो यह वन उत्तमोतम सघन वृक्षों से युक्त है, कहीं छोटे-छोटे अनेक प्रकार के तृणों से व्याप्त है, कहीं निर्भय मृगों के बड़े-बड़े झुंडों से सहित है, कहीं अत्यंत भयभीत कृष्ण मृगों के लिए सघन झाड़ियों से युक्त है ॥47॥ कहीं अतिशय मदोन्मत्त हाथियों के द्वारा गिराये हुए वृक्षों से सहित है, कहीं नवीन वृक्षों के समूह से युक्त है, कहीं भ्रमर-समूह की मनोहारी झंकार से सुंदर है, कहीं अत्यंत तीक्ष्ण शब्दों से भरा हुआ है ॥48॥ कहीं प्राणी भय से इधर-उधर घूम रहे हैं, कहीं निश्चिंत बैठे हैं, कहीं गुफाएँ जल से रहित हैं, कहीं गुफाओं से जल बह रहा है ॥49॥ कहीं यह वन लाल है, कहीं सफेद है, कहीं पीला है, कहीं हरा है, कहीं मोड़ लिये हुए है, कहीं निश्चल है, कहीं शब्दसहित है, कहीं शब्दरहित है, कहीं विरल है, कहीं सघन है, कहीं नीरस-शुष्क है, कहीं तरुण-हराभरा है, कहीं विशाल है, कहीं विषम है, और कहीं अत्यंत सम है ॥50॥ हे प्रिये जानकि ! देखो यह प्रसिद्ध दंडकवन कर्मों के प्रपंच के समान अनेक प्रकार का हो रहा है ॥51॥ हे सुमुखि ! शिखरों के समूह से आकाशरूपी आँगन को व्याप्त करने वाला यह दंडक नाम का पर्वत है जिसके नाम से ही यह वन दंडक वन कहलाता है ॥52॥ इस पर्वत के शिखर पर गेरू आदि-आदि धातुओं से उत्पन्न हो ऊँची उठने वाली लाल-लाल कांति से आच्छादित हुआ आकाश ऐसा जान पड़ता है मानो लाल फूलों के समूह से ही व्याप्त हो रहा हो ॥53 ॥इधर इस पर्वत की गुफाओं में दूर से ही अंधकार के समूह को नष्ट करने वाली देदीप्यमान औषधियों की बड़ी-बड़ी शिखाएँ वायुरहित स्थान में स्थित दीपकों के समान जान पड़ती हैं ॥54॥इधर पाषाण-खंडों के बीच अत्यधिक शब्द के साथ बहुत ऊँचे से पड़ने वाले ये झरने मोतियों के समान जलकणों को छोड़ते हुए सूर्य को किरणों के साथ मिलकर सुशोभित हो रहे हैं ॥55॥ हे कांते ! इस पर्वत के कितने ही प्रदेश सफेद हैं, कितने ही नील हैं, कितने ही लाल हैं, और कितने ही वृक्षावली से व्याप्त होकर अत्यंत सुंदर दिखाई देने हैं ॥56 ॥हे वरोष्ठि ! सघन वन में वायु से हिलते हुए वृक्षों के अग्रभाग पर कहीं-कहीं सूर्य को किरणें ऐसी सुशोभित होती हैं मानो उसके खंड ही हों ॥57॥हे सुमुखि ! जो कहीं तो फलों के भार से झुके हुए वृक्षों के समूह से युक्त है; कहीं पड़े हुए पुष्परूपी वस्त्रों से सुशोभित है, और कहीं कलरव करने वाले पक्षियों से व्याप्त है ऐसा यह दंडकवन अत्यधिक सुशोभित हो रहा है ॥58 ॥इधर, जिसे अपनी पूँछ अधिक प्यारी है, जिसके वल्लभ पीछे-पीछे दौड़े चले आ रहे हैं, जो चंद्रमा के समान सफेद कांति का धारक है, और जो अपने बच्चों पर चंचल दृष्टि डाल रहा है ऐसा यह चमरी मृगों का समूह दुष्ट जीवों के द्वारा उपद्रुत होने पर भी अपनी मंदगति को नहीं छोड़ रहा है तथा बाल टूट जाने के भय से कठोर एवं सघन झाड़ी में प्रवेश नहीं कर रहा है ॥59॥हे कांते ! इधर इस पर्वत की गुफाओं के आगे यह क्या नील शिला रखी है ? अथवा अंधकार का समुह व्याप्त है ? इधर यह वृक्षों के मध्य में आकाश स्थित है अथवा स्फटिकमणि की शिला विद्यमान है ? और इधर यह काली चट्टान है या कोई बड़ा हाथी गाढ़ निद्रा का सेवन कर रहा है इस तरह अत्यंत सादृश्य के कारण इस पर्वत के भूभागों पर चलना कठिन जान पड़ता है ॥60॥ हे प्रिये । यह वह क्रौंचरवा नाम की जगत्-प्रसिद्ध नदी है कि जिसका जल तुम्हारी चेष्टा के समान अत्यंत उज्ज्वल है ॥61॥हे सुकेशि ! जो मंद-मंद वायु से प्रेरित होकर लहरा रहा है, जो तट पर स्थित वृक्षों के पुष्प समूह को धारण कर रहा है और जो कैलास के समान शुक्ल रूप से सुंदर है ऐसा इस नदी का जल अत्यंत सुशोभित हो रहा है ॥62॥ यह जल कहीं तो हंस समूह के समान उज्ज्वल फेन समूह से युक्त है, कहीं टूट-टूटकर गिरे हुए फूलों के समूह से सहित है, कहीं भ्रमरों के समूह से इसका कमलवन पूरित है और कहीं यह बड़े-बड़े सघन पाषाणों के समूह से उपलक्षित है ॥63॥यह नदी कहीं तो हजारों मगरमच्छों के संचार से विषम है, कहीं इसका जल अत्यंत वेग से सहित है और कहीं यह घोर तपस्वी-साधुओं की चेष्टा के समान अत्यंत प्रशांत भाव से बहती है॥64॥ हे शुक्ल दाँतों को धारण करने वाली सीते ! इस नदी का जल एक ओर तो अत्यंत नील शिला समूह की किरणों से मिश्रित होकर नीला हो रहा है तो दूसरी ओर समीप में स्थित सफेद पाषाण खंडों की किरणों से मिलकर सफेद हो रहा है । इस तरह यह परस्पर मिले हुए हरिहर-नारायण और महादेव के शरीर के समान अत्यंत सुशोभित हो रहा है ॥65 ॥लाल-लाल शिलाखंडों की किरणों से व्याप्त यह निर्मल नदी, कहीं तो सूर्योदय कालीन पूर्व दिशा के समान सुशोभित हो रही है और कहीं हरे रंग के पाषाणखंड की किरणों के समूह से जल के मिश्रित होने से शेवाल की शंका से आने वाले पक्षियों को विरस कर रही है ॥66॥हे कांते ! इधर निरंतर चलने वाली वायु के संग से हिलते हुए कमल-समूह पर जो इच्छानुसार अत्यंत मधुर शब्द कर रहा है, निरंतर भ्रमण कर रहा है और उसकी पराग से जो लाल वर्ण हो रहा है ऐसा भ्रमरों का समूह तुम्हारे मुख से निकली सुगंधि के समान उत्कृष्ट सुगंधि से उन्मत्त हुआ अत्यधिक सुशोभित हो रहा है ॥67॥ हे दयिते ! जो अतिशय स्वच्छ है तथा बहाव छोड़कर पाताल तक भरा है ऐसा इस नदी का जल कहीं तो तुम्हारे मन के समान परम गांभीर्य को धारण कर रहा है और कहीं भ्रमरों से व्याप्त तथा कुछ-कुछ हिलते हुए नील कमलों से उत्तम स्त्री के देखने से समुत्पन्न नेत्रों की शोभा धारण कर रहा है ॥68॥ इधर कहीं जो नाना प्रकार के कमल वनों में विचरण कर रहा है, प्रेम से युक्त है, उच्च शब्द कर रहा है और तीन मद से विवश हो जो परस्पर कलह कर रहा है ऐसा पक्षियों का समूह सुशोभित हो रहा है ॥69 ॥मेघरहित आकाश में विद्यमान चंद्रमा के समान उज्ज्वल मुख को धारण करने वाली हे प्रिये ! इधर जिस पर स्त्रियों सहित क्रीड़ा करने वाले पक्षियों के समूह ने अपने चरण-चिह्न बना रखे हैं ऐसा इस नदी का यह बालुमय तट तुम्हारे नितंबस्थल की सदृशता धारण कर रहा है ॥70 ॥जिस प्रकार अनेक उत्तम विलासों-हावभावरूप चेष्टाओं से सहित तरंग के समान उत्तम भौंहों से युक्त एवं उत्तम शील को धारण करने वाली सुभद्रा सुंदर एवं विस्तृत गुणसमूह से युक्त, शुभ चेष्टाओं के धारक तथा संसार में सर्वसुंदर भरत चक्रवर्ती को प्राप्त हुई थी उसी प्रकार अनेक विलासों पक्षियों के संचार से युक्त जल को धारण करने वाली, भौंहों के समान उत्तम तरंगों से युक्त, अतिशय मनोहर यह नदी, अत्यंत सुंदर तथा विस्तृत गुणसमूह से सहित शुभ चेष्टा से युक्त एवं जगत् सुंदर लवणसमुद्र को प्राप्त हुई है ॥71॥ हे प्रिये ! जो फल और फूलों से अलंकृत हैं, नाना प्रकार के पक्षियों से व्याप्त हैं, निरंतर हैं तथा जल से भरे मेघ-समूह के समान जान पड़ते हैं ऐसे ये किनारे के वृक्ष हम दोनों को प्रीति उत्पन्न करने के लिए ही मानो इस नदी कूल में प्राप्त हुए हैं ॥72 ॥इस प्रकार जब राम ने अत्यंत विचित्र शब्द तथा अर्थ से सहित वचन कहे तब हर्षित होती हुई सीता ने आदरपूर्वक कहा ॥73 ॥कि हे प्रियतम ! यह नदी विमल जल से भरी है, लहरों से रमणीय है, हंसादि पक्षियों के समूह इसमें इच्छानुसार क्रीड़ा कर रहे हैं और आपका मन भी इसमें लग रहा है तो इसके जल में हम लोग भी क्यों नहीं क्षण-भर क्रीड़ा करें ॥4॥

तदनंतर छोटे भाई लक्ष्मण के साथ-साथ राम ने सीता के वचनों का समर्थन किया और सब रथरूपी घर से उतरकर मनोहर भूमि पर आये॥75॥सर्वप्रथम लक्ष्मण ने नवीन पकड़े हुए हाथी को जंगली मार्गों के बीच चलने से उत्पन्न हुई थकावट को दूर करने वाला स्नान कराया । उसके बाद उसे नाना प्रकार के स्वादिष्ट उत्तमोत्तम कोमल पत्ते और फूलों का समूह इकट्ठा किया तथा उसकी योग्य परिचर्या की ॥76॥ तदनंतर जिनका मन नाना प्रकार के गुणों की खान था ऐसे लक्ष्मण ने राम के साथ-साथ नदी में स्नान करना प्रारंभ किया । वे कभी जल के प्रवाह में आगे बढ़े हुए वृक्षों के समूह पर चढ़कर जल में कूदते थे, कभी अनुपम चेष्टाएँ करते थे और कभी नाना प्रकार की जलक्रीड़ा संबंधी उत्तमोत्तम विधियों का प्रयोग करते थे ॥77॥जो फेन के वलय अर्थात् समूह अथवा फेनरूपी चूड़ियों से सहित थी, जो प्रकट उठती हुई तरंगरूपी मालाओं से युक्त थी, जो मसले हुए सफेद -नीले और लाल कमलपत्रों से व्याप्त थी, जिसमें मधुर शब्द उत्पन्न हो रहा था और जो एकांत समागम से सेवित थी ऐसी वह नदीरूपी स्त्री ऐसी जान पड़ती थी मानो रघुकुल के चंद्र-रामचंद्र के साथ उपभोग ही कर रही हो ॥78॥ रामचंद्रजी पानी में गोता हत दूर लंबे जाकर कमल वन में छिप गये तदनंतर पता चलने पर शीघ्र ही सीता उनके पास जाकर क्रीड़ा करने लगी ॥79॥ पहले जो हंसादि पक्षी अपनी स्त्रियों के साथ जल में क्रीड़ा कर रहे थे और कमलों के वन में विचरण करने से उत्पन्न पराग से जिनके पंख सुशोभित हो रहे थे वे अब शीघ्र ही किनारों पर आकर नाना प्रकार के मधुर शब्द करने लगे तथा नाना कार्यों की आसक्ति छोड़कर तथा मन को विषयांतर से रहित कर राम-लक्ष्मण-सीता की श्रेष्ठ जलक्रीड़ा देखने लगे, सो ठीक ही है क्योंकि ये तिर्यंच भी कोमल चित्त के धारक मनुष्यों की मनोहर चेष्टा को समझते हैं― जानते हैं ॥80-81 ॥तदनंतर राम ने सीता के साथ-साथ उत्तम गीत गाते हुए हथेलियों के आघात से जल का बाजा बजाया । उस जलवाद्य का शब्द मृदंग के शब्द से भी अधिक मधुर, सुंदर और विचित्र था ॥82॥ उस समय राम का चित्त जलक्रीड़ा में आसक्त था तथा वे स्वयं नाना प्रकार की उत्तम चतुर चेष्टाओं के करने में तत्पर थे । भाई के स्नेह से भरे एवं समुद्रघोष धनुष से सहित लक्ष्मण उनके चारों ओर चक्कर लगा रहे थे । यद्यपि लक्ष्मण अत्यंत वेग से युक्त थे तो भी उस समय वेग को दूर कर सुंदर चाल के चलने में तत्पर थे ॥83 ॥इस प्रकार उज्ज्वल लीला को धारण करने वाले राम भाई और स्त्री के साथ, तट पर स्थित मृगों को हर्ष उपजाने वाली जलक्रीड़ा इच्छानुसार कर गजराज के समान किनारे पर आने के लिए उद्यत हुए॥84॥स्नान के बाद वन में उत्पन्न हुई अतिशय श्रेष्ठ वस्तुओं के द्वारा शरीर वृत्ति अर्थात् भोजन कर वे अनेक प्रकार की कथाएँ करते हुए जहाँ लताओं के मंडप से सूर्य का संचार रुक गया था ऐसे दंडक वन में देवों के समान आनंद से बैठ गये ॥85॥ तदनंतर जटायु के मस्तक पर हाथ रखे हुई सीता जिनके पास बैठी थी ऐसे राम निश्चिंत चित्त हो इस प्रकार बोले ॥86॥ कि हे भाई ! यहाँ स्वादिष्ट फलों से युक्त नाना प्रकार के वृक्ष हैं, स्वच्छ जल से भरी नदियाँ हैं और लताओं से निर्मित नाना मंडप हैं ॥87 ॥यह दंडक नाम का महापर्वत अनेक रत्नों से परिपूर्ण तथा उत्तम क्रीड़ा के योग्य नाना प्रदेशों से युक्त है ॥88॥ हम लोग इस पर्वत के समीप अत्यंत मनोहर नगर बनायें और वन में उत्पन्न हुई पोषण करने वाली अनेक भैंसें रख लें ॥89॥ जहाँ दूसरों का आना कठिन है ऐसे इस अत्यंत सुंदर वन में हम लोग देश बसायें क्योंकि यहाँ मुझे बड़ा संतोष हो रहा है॥90॥ जिनका चित्त हम लोगों में लग रहा है और जो निरंतर शोक के वशीभूत रहती हैं ऐसी अपनी माताओं को, अपना हित करने वाले समस्त परिकर एवं परिवार के साथ, जाओ शीघ्र ही ले आओ अथवा नहीं-नहीं ठहरो, यह ठीक नहीं है इसमें मेरा मन शुद्धता को प्राप्त नहीं हो रहा है ॥91-92॥ऋतु आने पर मैं स्वयं जाऊँगा, तुम सीता के प्रति सावधान रहकर यत्न सहित यहीं ठहरना ॥93॥ तदनंतर राम की पहली बात सुनकर लक्ष्मण बड़ी नम्रता से जाने लगे थे पर दूसरी बात सुनकर रुक गये । उसी समय जिनका चित्त प्रेम से आर्द्र हो रहा था ऐसे राम ने पुनः कहा कि देदीप्यमान सूर्य से दारुण यह ग्रीष्मकाल तो व्यतीत हुआ अब यह अत्यंत भयंकर वर्षाकाल उपस्थित हुआ है॥94-95॥ जो क्षोभ को प्राप्त हुए समुद्र के समान गर्जना कर रहे हैं तथा जो चलते-फिरते अंजनगिरि के समान जान पड़ते हैं ऐसे बिजली से युक्त ये मेघ दिशाओं को अंधकार से युक्त कर रहे हैं॥96॥ जिस प्रकार जिनेंद्र भगवान् के जन्म के समय देव रत्नराशि की वर्षा करते हैं, उसी प्रकार मेघों का शरीर धारण करने वाले देव निरंतररूप से आकाश को आच्छादित कर जल छोड़ रहे हैं― पानी बरसा रहे हैं ॥97॥ जो स्वयं महान् है, अत्यधिक गर्जना करने वाले हैं, जो अपनी मोटी धाराओं से पर्वतों को और भी अधिक उन्नत कर रहे हैं, जो आकाशांगण में निरंतर विचरण कर रहे हैं तथा जिनमें बिजली चमक रही है ऐसे ये मेघ अत्यधिक सुशोभित हो रहे हैं॥98॥ वेगशाली वायु के द्वारा प्रेरित ये कितने ही सफेद मेघ असंयमी मनुष्यों के तरुण हृदयों के समान इधर-उधर घूम रहे हैं ॥99॥ जिस प्रकार विशेषता का निश्चय नहीं करने वाला धनाढ्य मनुष्य कुपात्र के लिए धन देता है उस प्रकार यह मेघ धान्य की भूमि छोड़कर पर्वत पर पानी बरसा रहा है॥100॥ इस समय बड़े वेग से नदियां बहने लगी हैं, अत्यधिक कीचड़ से युक्त हो जाने के कारण पृथिवी पर विहार करना दुर्भर हो गया है और जल के संबंध से शीतल तीक्ष्ण वायु चलने लगी है इसलिए हे भद्र ! तुम्हारा जाना ठीक नहीं है ॥101॥ इस प्रकार राम के कहने पर लक्ष्मण बोले कि आप स्वामी हो जैसा कहते हो वैसा ही मैं करता हूँ । इस तरह अपने सुंदर निवास स्थल में वे नाना प्रकार को स्नेहपूर्ण कथाएं करते हुए सूर्य के परिचय से रहित वर्षाकाल तक सुख से रहे ॥102॥

इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मचरित में दंडक वन में निवास का वर्णन करने वाला बयालीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥42॥