+ लंका के लिए प्रस्थान -
चौवनवां पर्व

  कथा 

कथा :

अथानंतर― जिसकी ध्वजाओं और छत्रादि की सुंदरता नष्ट हो गयी थी ऐसी सेना आगे कर हनुमान् किष्किंधा नगरी को प्राप्त हुआ ॥1॥ तदनंतर किष्किंधा निवासी मनुष्यों की सागर के समान अपार भीड़ ने बाहर निकल कर जिसके दर्शन किये थे, जो धीर था तथा स्वभाव से ही उत्तम चेष्टाओं का धारक था ऐसे हनुमान् ने नगर में प्रवेश किया ॥2॥ उस समय क्षत-विक्षत शरीर के धारक महायोधाओं को देखने के लिए जिन्होंने झरोखों में मुख लगा रक्खे थे, ऐसी नगर निवासिनी स्त्रियों में बड़ा क्षोभ उत्पन्न हुआ॥3॥तत्पश्चात् अपने निवास स्थान पर आकर हनुमान ने पिता की तरह हितकारी हो सेना को सब ओर यथायोग्य ठहराया ॥4॥ तदनंतर राजा सुग्रीव के साथ मिलकर, लंका में जो कार्य हुआ था वह उसे बतलाया । तत्पश्चात् समाचार देने के लिए राम के चरण मूल में गया ॥5॥ उस समय श्रीराम इस प्रकार की चिंता करते हुए बैठे थे कि सत्पुरुष हनुमान् आकर मुझ से कहेगा कि हे भद्र ! तुम्हारी प्रिया जीवित है॥ 6॥ अत्यंत सुंदर शरीर के धारक राम क्षीण हो चुके थे तथा उत्तरोत्तर क्षीण होते जा रहे थे । वे वियोगरूपी अग्नि से उस तरह आकुलित हो रहे थे जिस तरह कि दावानल से कोई हाथी आकुलित होता है॥ 7 । वे महा शोकरूपी पाताल में विद्यमान थे तथा समस्त संसार से उन्हें द्वेष उत्पन्न हो रहा था । हनुमान हस्तकमल जोड़कर तथा मस्तक से लगाकर उनके पास गया ॥8॥ प्रथम तो हनुमान ने, जिसके विशाल नेत्र, हर्ष से युक्त थे ऐसे मुख के द्वारा जानकी का समाचार कहा और उसके बाद उत्तम वचनों के द्वारा सब समाचार प्रकट किया ॥9॥सीता ने जो कुछ अभिज्ञान अर्थात् परिचय कारक वृत्तांत कहे थे वे सब कह चुकने के बाद उसने राजा रामचंद्र के लिए चूडामणि दिया और इस तरह वह कृतकृत्यता को प्राप्त हुआ॥ 10॥ वह चूडामणि कांति रहित था, सो ऐसा जान पड़ता मानो चिंता के कारण ही उसकी कांति जाती रही हो । वह राम के हाथ में इस प्रकार विद्यमान था मानो थककर ही बैठा हो और सीता की चोटी में बंधे रहने से मलिन हो गया था सो ऐसा जान पड़ता था मानो शोक से ही दुःखी होकर मलिन गया हो ॥11॥ वह प्रभाहीन चूडामणि राम की अंजलि में पहुंचकर ऐसा लगने लगा मानो अश्रु ही छोड़ रहा हो । राम ने उसे बड़ी उत्सुकता के कारण नेत्रों से देखा था, या पिया था, या उससे कुशल समाचार पूछा था सो कहने में नहीं आता ॥12॥ दुर्बलता के कारण जिसको अंगुलियाँ विरल हो गयी थीं ऐसी अंजलि में विद्यमान तथा जिससे किरणरूपी धाराओं का समूह झर रहा था ऐसे उस चूड़ामणि के प्रति राम ने शोक प्रकट किया ॥13॥ तदनंतर किरणों के प्रकाश से जिसने अंजलि भर दी थी ऐसे उस चूड़ामणि को राम ने मस्तक पर धारण किया । उस समय ऐसा जान पड़ता था मानो उस चूड़ामणि ने स्वयं रोकर ही जल की अंजलि भर दी हो ॥14॥ प्रिया के उस अभिज्ञान को राम ने अपने जिस अंग पर धारण किया उसी ने मानो सीता का आलिंगन प्राप्त कर लिया था ॥15॥ उस समय उनके समस्त अंगों में जिसकी संभावना भी नहीं थी ऐसा सर्वव्यापी, कठोर तथा सघन रोमांच निकल आया मानो हर्ष का निर्झर ही फूट पडा हो ॥16॥राम ने बड़े संभ्रम के साथ हनुमान् का आलिंगन कर उससे पूछा कि क्या सचमुच ही मेरी कोमलांगी प्रिया प्राण धारण कर रही है― जीवित है? ॥17॥ इसके उत्तर में हनुमान् ने नम्रीभूत होकर कहा कि हे नाथ ! जीवित है । मैं अन्यथा समाचार नहीं लाया हूँ, हे राजन् ! सुखी होइए ॥18॥किंतु इतना अवश्य है कि गुणों के समूह को नदी स्वरूप वह बाला तुम्हारे विरहरूपी दावानल के मध्य में वर्तमान है, अश्रुओं के द्वारा दुर्दिन बना रही है निरंतर वर्षा करती रहती है॥19॥वेणी बंधन के छूट जाने से उसके केश कांतिहीन हो गये हैं, वह अत्यंत दु:खी है, बार-बार दीनता पूर्वक साँसें भरती है और चिंतारूपी सागर में डूबी है॥ 20 ।꠰ वह कृशोदरी तो स्वभाव से ही थी पर अब आपके वियोग से और भी अधिक कृशोदरी जान पड़ती है । रावण को क्रोध भरी स्त्रियां उसकी निरंतर आराधना करती रहती हैं ॥21॥ वह शरीर की सर्व चिंता छोड़ निरंतर आपकी ही चिंता करती रहती हैं । इस तरह हे देव ! आपकी प्रिय वल्लभा दुःखमय जीवन व्यतीत कर रही है अतः यथायोग्य प्रयत्न कीजिए ॥22॥ हनुमान् के उक्त वचन सुनकर राम के नेत्र कमल म्लान हो गये । वे बहुत देर तक चिंता से आकुलित हो अत्यंत दुःखी हो उठे॥ 23॥ शिथिल एवं अलसाये शरीर को धारण करने वाले राम लंबी तथा गरम सांस भरकर अपने जीवन की अनेक प्रकार से अत्यधिक निंदा करने लगे ॥24॥ तदनंतर उनकी चेष्टा जानकर हनुमान् ने यह कहा कि हे महाबुद्धिमान् ! शोक क्यों करते हो ? कर्तव्य में मन दीजिए ॥25॥ किष्किंध नगर के राजा सुग्रीव की दीर्घ सूत्रता जान पड़ती है और सीता का भाई भामंडल बार-बार बुलाने पर भी देर कर रहा है ॥26॥ इसलिए हम लोग नौकाओं अथवा भुजाओं से ही शीघ्र समुद्र को तैरकर कल ही निःसंदेह नीच रावण की नगरी लंका को चलेंगे ॥27॥

तदनंतर सिंहनाद नामक महाबुद्धिमान् विद्याधर ने कहा कि इस तरह अभिमानी के समान मत कहो । आप विद्वान् पुरुष हैं ॥28॥ आपकी जो दशा लंका में हुई है वही इस समय यहाँ हम लोगों की होगी इसलिए आदरपूर्वक सब कुछ निश्चयकर हितकारी कार्य करना चाहिए ॥29॥ पवनपुत्र हनुमान् ने कोट, अट्टालिकाएँ तथा गोपुरों से सहित एवं बाग-बगीचों से सुशोभित लंका पुरी को नष्ट किया है ॥30॥ इसलिए महाविद्याधरों का अधिपति रावण इस समय क्रुद्ध हो रहा है और उसके क्रुद्ध होनेपर दैववश हम सबको यह सामूहिक मृत्यु प्राप्त हुई है ॥31॥

तदनंतर चंद्रमरीचि नामक विद्याधर ने अत्यंत ओजपूर्ण वचन कहे कि क्या तुम सिंह से समान अत्यंत भय को प्राप्त हो रहे हो ? ॥32॥ भयभीत तो रावण को होना चाहिए अथवा वह कौन है और उससे क्या प्रयोजन है? उसने अन्याय किया है इसलिए मृत्यु उसके आगे नाच रही है ॥33॥ हमारे पास ऐसे बहुत विद्याधर राजा हैं जो महावेगशाली हैं तथा जिन्होंने हजारों बार अपने चमत्कार दिखाये हैं ॥34॥ उनके नाम हैं घनगति, तीव्र, भूतनाद, गजस्वन, क्रूर, केलीकिल, भीम, कुंड, गोरति, अंगद, नल, नील, तडिद्वक्त्र, मंदर, अशनि, अर्णव, चंद्रज्योति, मृगेंद्र, वज्रदंष्ट, दिवाकर, उल्का और लांगूल नामक दिव्य अस्त्रों के समूह में निर्वाध पौरुष को धारण करने वाला हनुमान, महाविद्याओं का स्वामी भामंडल, तीक्ष्णपवन के समान पराक्रम का धारक महेंद्रकेतु, अद्भुत पराक्रमी प्रसन्नकीर्ति और उसके महाबलवान् पुत्र । इनके सिवाय किष्किंधनगर के स्वामी राजा सुग्रीव के और भी अनेक महापराक्रमी सामंत हैं जो कार्य को प्रारंभ कर बीच में नहीं छोड़ते, आज्ञाकारी हैं और आदेश की प्रतीक्षा कर रहे हैं॥35-39।।

तदनंतर चंद्रमरीचि के वचन सुनकर विद्याधरों ने अपने नीचे नेत्र विनयपूर्वक राम के ऊपर लगाये अर्थात् उनकी ओर देखा॥ 40॥ तत्पश्चात् जिसका सौम्यभाव अव्यक्त था ऐसे राम के मुख पर उन्होंने वह भयंकर भृकुटी का जाल देखा जो कि यमराज के लतागृह-निकुंज के समान जान पड़ता था ॥41॥ उन्होंने देखा कि श्रीराम लंका की ओर जो लाल-लाल दृष्टि लगाये हुए हैं, वह राक्षसों का क्षय सूचित करने के लिए उदितकेतु की रेखा के समान जान पड़ती है ॥42॥ तदनंतर उन्होंने देखा कि राम ने वही दृष्टि अपने उस सुदृढ़ धनुष पर लगा रक्खी है जो चिरकाल से मध्यस्थता को प्राप्त हुआ है, तथा यमराज की भृकुटीरूपी लता की उपमा धारण करने वाला है ॥43॥ उनका केशों का समूह क्रोध से कंपित तथा शिथिल होकर बिखर गया था और ऐसा जान पड़ता था मानो अंधकार के द्वारा जगत् को व्याप्त करने के लिए यमराज का खजाना ही खुल गया था ॥44॥ तेजोमंडल के बीच में स्थित उनका उस प्रकार का मुख ऐसा जान पड़ता था मानो प्रलयकाल का देदीप्यमान तरुण सूर्य ही हो ॥45॥ इस तरह राक्षसों का नाश करने के लिए जो गमन संबंधी उतावली कर रहे थे ऐसे राम को देखकर उन सब विद्याधरों के मन क्षुभित हो उठे तथा सब शीघ्र ही प्रस्थान करने के लिए उद्यत हो गये ॥46॥

अथानंतर राम की चेष्टाओं से प्रेरित हुए समस्त विद्याधर चंद्रमरीचि की वाणी का सम्मान कर आकाशमार्ग से चल पड़े । उस समय वे सब विद्याधर नाना प्रकार के शस्त्र धारण किये हुए थे और उत्तमोत्तम संपदाओं से सहित थे॥47॥ युद्ध की उत्कंठा से युक्त राम और लक्ष्मण ने, ध्वनि के द्वारा गुफाओं को पूर्ण करनेवाले प्रयाणकालिक बाजे बजवाकर प्रस्थान किया ॥48॥ मार्गशीर्ष वदी पंचमी के दिन सूर्योदय के समय उन सबका प्रस्थान हुआ था और प्रस्थान काल में होनेवाले निम्नांकित शुभ शकुनों से उनका उत्साह बढ़ रहा था ॥49॥ उस समय उन्होंने देखा कि निर्धूम अग्नि की ज्वाला दक्षिणावर्त से प्रज्वलित हो रही है, समीप ही मयूर मनोहर शब्द कर रहा है, उत्तमोत्तम अलंकारों से युक्त स्त्री सामने खड़ी है, सुगंधि को फैलाने वाली वायु बह रही है ॥50॥ निर्ग्रंथ मुनिराज सामने से आ रहे हैं, आकाश में छत्र फिर रहा है, घोड़ों की गंभीर हिनहिनाहट फैल रही है, घंटा का मधुर शब्द हो रहा है, दही से भरा कलश सामने से आ रहा है ॥51॥ बायीं ओर नवीन गोबर को बार-बार बिखेरता तथा पंखों को फैलाता हुआ काक मधुर शब्द कर रहा है॥ 52॥ भेरी और शंख का शब्द हो रहा है, सिद्धि हो, जय हो, समृद्धिमान् होओ, तथा किसी विघ्न-बाधा के बिना ही शीघ्र प्रस्थान करो । इत्यादि मंगल शब्द हो रहे हैं ॥53॥ इन मंगलरूप शुभ शकुनों से उन सबका उत्साह वृद्धिंगत हो रहा था । चारों दिशाओं से आये हुए विद्याधरों से जिसकी सेना बढ़ रही थी और इसलिए जो शुक्ल पक्ष के चंद्रमा की उपमा धारण कर रहा था ऐसा सुग्रीव चलने के लिए उद्यत हुआ ॥54॥ जो नाना प्रकार के यान और विमानों से सहित थे तथा जिनका वाहनों पर नाना प्रकार की पताकाएं फहरा रही थीं ऐसे वे सब विद्याधर राजा वेग से आकाश में जाते हुए अत्यधिक सुशोभित हो रहे थे ॥55॥किष्किंध नगर के राजा सुग्रीव, हनुमान, शल्य, दुर्मर्षण, नल, नील, काल, सुषेण तथा कुमुद आदि राजा आकाश में उड़े जा रहे थे, सो जिनकी ध्वजाओं में अत्यंत देदीप्यमान वानर के चिह्न थे ऐसे ये महाबलवान् विद्याधर ऐसे जान पड़ते थे मानो आकाश को ग्रसने के लिए ही उद्यत हुए हों॥ 56-57॥ विराधित की ध्वजा में निर्झर के समान हार, जांबव को ध्वजा में महावृक्ष, सिंहरव की ध्वजा में व्याघ्र, मेघकांत की ध्वजा में हाथी तथा अन्य विद्याधरों की ध्वजाओं में वंश-परंपरा से चले आये अनेक चिह्न सुशोभित थे । ये सभी उज्ज्वल छत्रों के धारक थे ॥58-59॥ अत्यंत तेजस्वी भूतनाद उनके आगे चल रहा था और लोकपाल के समान हनुमान् उसके पीछे स्थित था ॥60॥ यथायोग्य सामंतों के समूह से घिरे, परम तेजस्वी तथा हर्ष से भरे वे सब विद्याधर लंका जाते हुए अत्यधिक सुशोभित हो रहे थे ॥61॥ जिस प्रकार पहले सुकेश के पुत्र माल्य आदि ने लंका की ओर प्रयाण किया था उसी प्रकार राम आदि राजाओं ने विमानों के अग्रभाग पर आरूढ़ हो लंका की ओर प्रयाण किया ॥62॥ विराधित विद्याधर राम को बगल में स्थित था और अपने मंत्रियों से सहित जांबव उनके पीछे चल रहा था ॥63॥ बायें हाथ की ओर सुषेण और दाहिने हाथ की ओर सुग्रीव स्थित था । इस प्रकार व्यवस्था से चलते हुए वे सब निमेष मात्र में वेलंधर नामक पर्वतपर जा पहुँचे ॥64॥ वेलंधर नगर का स्वामी समुद्र नाम का विद्याधर था सो उसने परम युद्ध के द्वारा नल का आतिथ्य किया ॥65॥ तदनंतर बाहुबल से युक्त नल ने स्पर्धा के साथ उसके सैनिक मार डाले और उसे बाँध लिया ॥66॥ तदनंतर राम का आज्ञाकारी होनेपर उसे सम्मानित कर छोड़ दिया तथा उसी नगर का राजा बना दिया । राम आदि संत लोग भी उसके नगर में यथायोग्य ठहरे ॥67॥ राजा समुद्र को सत्यश्री, कमला, गुणमाला और रत्नचूला नाम की कन्याएँ थीं जो उत्तम शोभा से युक्त थीं, स्त्रियों के गुणों से विभूषित थीं तथा देवांगनाओं के समान जान पड़ती थीं । हर्ष से भरे राजा समुद्र ने वे सब कन्याएँ लक्ष्मण के लिए समर्पित की ॥68-69॥ उस नगर में एक रात्रि ठहरकर सब लोग सुवेलगिरि को चले गये । वहाँ सुवेल नगर में सुवेल नाम का विद्याधर राज्य करता था॥70॥ सो उसे भी युद्ध में अनायास जीतकर विद्याधरों ने हर्षित हो वहाँ उस प्रकार क्रीड़ा की जिस प्रकार कि देव नंदन वन में रहते हैं॥ 71॥ वहाँ अक्षय नामक मनोहर वन में कुशलतापूर्वक रात्रि व्यतीत कर दूसरे दिन उत्तम शोभा को धारण करनेवाले विद्याधर लंका जाने के लिए उद्यत हुए ॥72॥

तदनंतर जो ऊँचे प्राकार से युक्त थी, सुवर्णमय भवनों से व्याप्त थी, कैलास के शिखर के समान सफेद कमलों से सुशोभित थी, नाना प्रकार के फर्शों और प्रकाश से देदीप्यमान थी, कमल वनों से युक्त थी, प्याऊ आदि की रचनाओं से अलंकृत थी, नाना रंगों से उज्ज्वल ऊँचे-ऊँचे जिन-मंदिरों से अलंकृत तथा पवित्र थी और महेंद्र की नगरी के समान जान पड़ती थी ऐसी लंका को निकटवर्तिनी देख परमवैभव के धारक विद्याधर हंसद्वीप में ठहर गये॥ 73-76॥ वहाँ के हंसपुर नामा नगर में महाबलवान् राजा हंसरथ को जीतकर सबने इच्छानुसार क्रीड़ा की॥ 77॥ जिसके पास बार-बार दूत भेजा गया है ऐसा भामंडल आज या कल अवश्य आ जावेगा इस प्रकार प्रतीक्षा करते हुए सब वहाँ ठहरे थे॥ 78।।

गौतम स्वामी कहते हैं कि पुण्यात्मा प्राणी जिस-जिस देश में जाते हैं उसी-उसी देश में वे शत्रुओं को जीतकर भोगों का समागम प्राप्त करते हैं । उद्यमशील पुण्यात्मा जीवों के लिए कोई भी वस्तु पर के हाथ में नहीं रहती । समस्त मनचाही वस्तुएँ उनके हाथ में आ जाती हैं ॥79॥ इसलिए जो भव्य संसार में उत्तम भोग भोगना चाहता है उसे जिनेंद्रदेव के मुखारविंद से उदित सर्वश्रेष्ठ प्रशंसनीय धर्म का पालन करना चाहिए । क्योंकि भोगों का नश्वर संगम तो दूर रहा वह इस धर्म के प्रभाव से सूर्य से भी अधिक उज्ज्वल मोक्ष को प्राप्त कर लेता है॥ 80॥

इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित पद्मपुराण में लंका के लिए प्रस्थान का वर्णन करने वाला चौवनवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥54॥