कथा :
अथानंतर राजा श्रेणिक ने गौतम स्वामी से इस प्रकार कहा कि हे भगवन ! विद्याओं की विधि में निपुण जो हस्त और प्रहस्त नामक सामंत पहले किसी के द्वारा नहीं जीते जा सके वे बड़ा आश्चर्य है कि नल और नील के द्वारा कैसे मारे गये ? हे नाथ! आप मेरे लिए इसका कारण कहिए ॥1-2॥ तदनंतर श्रुत रहस्य के ज्ञाता गौतम गणधर ने कहा कि हे राजन् ! कर्मों से प्रेरित प्राणियों की ऐसी ही गति होती है ॥3॥ पूर्व कर्म के प्रभाव से पापी जीवों की यह दशा है कि पहले जो जिसके द्वारा मारा जाता है वह उसे मारता है ॥4॥ पहले जिसने विपत्ति में पड़े हुए जिस मनुष्य को उस विपत्ति से छुड़ाया है वह उसे भी बंधन तथा व्यसन-संकट आदि के समय छुड़ाता है ॥5॥ इनकी कथा इस प्रकार है कि कुशस्थल नामक नगर में लौकिक मर्यादा को पालने वाले कुछ दरिद्र कुटुंबी पास-पास में रहते थे ॥6॥ उनमें इंधक और पल्लवक नामक दो भाई थे जो एक ही माता के उदर से उत्पन्न थे, पुत्रों तथा स्त्रियों के कारण क्लेश को प्राप्त रहते थे, जाति के ब्राह्मण थे, हल चलाने का काम करते थे, स्वभाव से दयालु थे, साधुओं की निंदा से विमुख थे, तथा अपने एक जैन-मित्र की संगति से आहारदान आदि कार्यों में तत्पर रहते थे ॥7-8॥ उन दोनों के पड़ोस में ही एक दूसरा दरिद्र कुटुंबियों का युगल रहता था जो स्वभाव से निर्दय था, दुष्ट था और लौकिक मिथ्या प्रवृत्तियों से मोहित रहता था ॥9॥ एक बार राजा की ओर से जो दान बँटता था उसमें कलह हो गयी जिससे अत्यंत क्रूर परिणामों के धारक उन दरिद्र कुटुंबियों के द्वारा इंधक और पल्लवक मारे गये ॥10॥ मुनि दान के प्रभाव से दोनों, हरिक्षेत्र में उत्तम भोगों को भोगने वाले आर्य हुए । वहाँ दो पल्य को उनकी आयु थी । उसके पूर्ण होने पर दोनों ही देवलोक में उत्पन्न हुए ॥11॥दूसरे जो क्रूर दरिद्र कुटुंबी थे वे अधर्मरूप परिणाम से मरकर दुःखों से परिपूर्ण कालंजर नामक वन में खरगोश हुए ॥12॥ सो ठीक ही है क्योंकि मिथ्यादर्शन से युक्त तथा साधुओं की निंदा करने वाले पापी प्राणियों की ऐसी ही गति होती है ॥13 ॥तदनंतर तिर्यंचों की नाना योनियों में चिरकाल तक भ्रमण कर दोनों बड़ी कठिनता से मनुष्य पर्याय प्राप्त कर तापस हुए ॥14॥ वहाँ वे बड़ी-बड़ी जटाएँ रखाये हुए थे, डील-डौल के विशाल थे, फल तथा पत्ते आदि का भोजन करते थे और तीव्र तपस्या से दुर्बल हो रहे थे । मिथ्याज्ञान के समय ही दोनों की मृत्यु हुई ॥15॥ दोनों ही मरकर विजयार्ध पर्वत के दक्षिण में वह्निकुमार विद्याधर की अश्विनी नामा स्त्री की कुक्षि से दो पुत्र हुए ॥16 ॥ये दोनों ही शीघ्रता से कार्य करनेवाले असुरों के समान आकार के धारक थे, जगत् में अतिशय प्रसिद्ध थे तथा आगे चलकर रावण के हस्त, प्रहस्त नामक मंत्री हुए थे ॥17॥ पहले जिनका कथन कर आये हैं ऐसे इंधक और पल्लवक स्वर्ग से च्युत होकर उत्तम मनुष्य पर्याय को प्राप्त हुए । तदनंतर गृहस्थाश्रम में ही तपकर दोनों उत्तम देव हुए ॥18॥ फिर पुण्य का क्षय होने से स्वर्ग से च्युत हो किष्कु नामक नगर में महाबल के धारक नल और नोल हुए ॥19 ॥हस्त और प्रहस्त ने भवांतर में जो नल और नील को मारा था इसका फल लौटकर इस भव में उन्हीं को प्राप्त हुआ अर्थात् उनके द्वारा वे मारे गये ॥20॥ पूर्वभव में जो जिसे मारता है वह इस भव में उसके द्वारा मारा जाता है, पूर्वभव में जो जिसकी रक्षा करता है वह इस भव में उसके द्वारा रक्षित होता है तथा पूर्वभव में जो जिसके प्रति उदासीन रहता है वह इस भव में उसके प्रति उदासीन रहता है ॥21 ॥जिसे देखकर अकारण क्रोध उत्पन्न होता है उसे निःसंदेह परलोक संबंधी शत्रु जानना चाहिए ॥22 ॥और जिसे देखकर नेत्रों के साथ-साथ मन आह्लादित हो जाता है उसे निःसंदेह पूर्वभव का मित्र जानना चाहिए ॥23 ॥समुद्र के लहराते जल में जर्जर नाव वाले मनुष्य को जो मगर, मच्छ आदि बाधा पहुंचाते हैं तथा स्थल में म्लेच्छ पीड़ा पहुँचाते हैं वह सब पापकर्म का फल है ॥24॥ पर्वतों के समान मदोन्मत्त हाथियों, नाना प्रकार के शस्त्र धारण करनेवाले योद्धाओं, तीव्र वेग के धारक घोड़ों एवं कवच धारण करने वाले अहंकारी भृत्यों के साथ युद्ध हो अथवा नहीं हो और आप स्वयं सदा प्रमादरहित सावधान रहे तो भी पुण्यहीन मनुष्य की रक्षा नहीं होती ॥25-26 ॥इसके विपरीत पुण्यात्मा मनुष्य जहाँ से हटता है, जहाँ से बाहर निकलता है अथवा जहाँ स्थिर रहता है वहाँ तप तथा दान ही उसकी रक्षा करते हैं, यथार्थ में न देव रक्षा करते हैं और न भाई-बंधु ही ॥27॥देखा जाता है कि जो भाई-बंधुओं के मध्य में स्थित है, पिता जिसका आलिंगन कर रहा है, जो धनी और अत्यंत शूरवीर है वह भी मृत्यु को प्राप्त होता है, कोई दूसरा पुरुष उसकी रक्षा करने में समर्थ नहीं होता है ॥28॥ युद्ध हो चाहे न हो सम्यग्दर्शन के साथ-साथ अच्छी तरह पाले हुए पात्रदान, व्रत तथा शील ही इस मनुष्य की रक्षा करते हैं ॥29 ॥जिसने पूर्व पर्याय में दया, दान आदि के द्वारा धर्म का उपार्जन नहीं किया है और फिर भी दीर्घ जीवन की इच्छा करता है सो उसकी वह इच्छा अत्यंत निष्फल है ॥30॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि तप के बिना मनुष्यों के कर्म नष्ट नहीं होते यह जानकर विज्ञ पुरुषों को शत्रुओं पर भी क्षमा करनी चाहिए ॥31 ॥यह उत्तम हृदय का धारक पुरुष मेरा उपकार करता है और यह अतिशय दुष्ट मनुष्य मेरा अपकार करता है । लोगों को ऐसा विचार करना अच्छा नहीं है क्योंकि इसमें अपने ही द्वारा अर्जित कर्म कारण है ॥32 ॥ऐसा जानकर जिन्होंने सुख-दुःख के बाह्य निमित्तों को गौण कर खोटी चेष्टाओं का परित्याग कर दिया है ऐसे श्रेष्ठ विद्वानों को निमित्त कारणों में तीव्र राग अथवा दोष नहीं करना चाहिए ॥33 ॥गाढ़ अंधकार के द्वारा आच्छादित मार्ग जब सूर्य के द्वारा प्रकाशित हो जाता है तब नेत्रवान् मनुष्य न तो पृथ्वी के गड्ढों में गिरता है; न पत्थर पर टकराता है और न सर्प ही को प्राप्त होता है ॥34॥ इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित पद्मपुराण में हस्त-प्रहस्त और नल-नील के पूर्वभवों का वर्णन करने वाला उनसठवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥59॥ |