कथा :
अथानंतर इसी बीच में जिनके शरीर दिव्य कवचों से आच्छादित थे, जो लक्ष्मी और श्रीवत्स चिह्न के धारक थे, तेजोमंडल के मध्य में गमन कर रहे थे, सिंह तथा गरुड़वाहन पर आरूढ़ थे अत्यंत सुंदर थे सेनारूपी सागर के मध्य में स्थित थे सिंह तथा गरुड़चिह्न से चिह्नित पताकाओं से युक्त थे, पर-पक्ष का क्षय करने के लिए उद्यत थे और उत्कट बल के धारक थे, ऐसे परम महिमा संपन्न राम और लक्ष्मण विभीषण के साथ रणभूमि के मध्य में आये ॥1-3॥ जिन्होंने दिव्य छत्र के द्वारा सूर्य की किरणें दूर हटा दी थीं तथा जो मित्रों के साथ स्नेह करने वाले थे ऐसे शीघ्रता से भरे लक्ष्मण आगे हुए ॥4॥ उस समय लक्ष्मण हनुमान् आदि प्रमुख वानरवंशी वीरों से घिरे थे तथा जिसका वर्णन करना अशक्य था ऐसे देव सदृशरूप को धारण कर रहे थे ॥5॥ लक्ष्मण के आगे प्रस्थान करने पर आश्चर्यजनक तेज के धारक विभीषण ने देखा कि यह संसार एक साथ उदित हुए बारह सूर्यों से ही मानो देदीप्यमान हो रहा है ॥6॥ लक्ष्मण के आते ही वह उस प्रकार का सघन तामस अस्त्र गरुड़ के तेज से न जाने कहाँ चला गया ॥7॥ लवणसमुद्र के जल को क्षोभित करने वाली गरुड़ के पंखों की वायु से सब नाग इस प्रकार नष्ट हो गये जिस प्रकार कि साधु के द्वारा खोटे भाव नष्ट हो जाते हैं॥8॥गरुड़ के पंखों से छोड़ी हुई किरणों के प्रकाश से युक्त संसार ऐसा जान पड़ने लगा मानो स्वर्ण रस से ही बना हो ॥9॥ तदनंतर जिनके नागपाश के बंधन दूर हो गये थे ऐसे विद्याधरों के अधिपति सुग्रीव और भामंडल धैर्य को प्राप्त हुए ॥10॥ जो सुख से निद्रा प्राप्त कर रत्नमयी कंबलों से आवृत थे, सर्परूपी लताओं की रेखाओं से जिनके शरीर अलंकृत थे अर्थात् जिनके शरीर में नागपाश के गड़रा पड़ गये थे, जो पहले से कहीं अधिक सुशोभित थे, और जिनके श्वासोच्छवास का निकलना अब स्पष्ट हो गया था, ऐसे दोनों ही राजा इस प्रकार उठ बैठे, जिस प्रकार कि सुख से सोये पुरुष निद्रा क्षय होने पर उठ बैठते हैं ॥11-12॥ तदनंतर आश्चर्य को प्राप्त हुए श्रीवृक्ष आदि विद्याधर राजाओं ने पूजा कर राम लक्ष्मण से पूछा कि हे नाथ ! आप दोनों की विपत्ति के समय जो पहले कभी देखने में नहीं आयी ऐसी यह अद्भुत विभूति किस कारण प्राप्त हुई है सो कहिए ॥13-14॥ वाहन, अस्त्र रूपी संपत्ति, छत्र, परम कांति, ध्वजाएँ और नाना प्रकार के रत्न जो कुछ आपको प्राप्त हुए हैं वे सब दिव्य हैं, देवोपनीत हैं ऐसा सुना जाता है॥ 15॥ तदनंतर राम ने उन सबके लिए कहा कि एक बार वंशस्थविल पर्वत के अग्रभाग पर देशभूषण और कुलभूषण मुनियों को उपसर्ग हो रहा था सो मैं वहाँ पहुँच गया॥ 16॥ मैंने उपसर्ग दूर किया, उसी समय दोनों मुनिराजों को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ, चतुर्मुखाकार होकर दोनों विराजमान हुए, देवनिर्मित प्रातिहार्य उत्पन्न हुए, देवों का आगमन हुआ, गरुडेंद्र हम से संतुष्ट हुआ और उससे हमें घर की प्राप्ति हुई । इस समय उसी गरुड़ेंद्र के ध्यान से इन महाविद्याओं की प्राप्ति हुई॥ 17-18॥ तदनंतर सावधान हो मुनियों की उत्तम कथा श्रवण कर, जो परम प्रमोद को प्राप्त हो रहे थे और जिनके मुखकमल हर्ष से विकसित हो रहे थे ऐसे उन सब विद्याधर राजाओं ने कहा कि ॥19॥ भक्तिपूर्वक की हुई साधुसेवा के प्रभाव से मनुष्य इसी भव में विशाल उत्तम यश, बुद्धि की प्रगल्भता, उदार चेष्टा और निर्मल पुण्य विधि को प्राप्त होता है ॥20॥ मुनिजन उत्तम बुद्धि को धर्म में लगाकर मनुष्यों का जैसा शुभोदय से संपन्न परम प्रिय हित करते हैं वैसा हित न माता करती है, न पिता करता है, न मित्र करता है और न सगा भाई ही करता है ॥21॥ इस प्रकार चिरकाल तक प्रशंसा कर जिन्होंने अपनो भावनाएँ समर्पित की थी और जिनेंद्रमार्ग की उन्नति से जो परम आश्चर्य को प्राप्त हो रहे थे, ऐसे महावैभव से युक्त राजा, राम और लक्ष्मण का आश्रय पाकर अत्यंत सुशोभित हो रहे थे ॥22॥ इस तरह भव्य जीवरूपी कमलों के उत्सव को करने वाली पवित्र कथा सुनकर जो हर्षरूपी महारस के सागर में निमग्न हो परम प्रीति को धारण कर रहे थे, ऐसे देवों के समान समस्त विद्याधर राजाओं ने, विकसित कमलों के समान नेत्रों को धारण करने वाले उन देव पूजित राम-लक्ष्मण की सब प्रकार से पूजा की॥ 23॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि जंमांतर में पुण्य का संचय करने वाला मनुष्य, इस संसार में न केवल अपने आपका ही उत्तम उत्सवों से संयोग करता है किंतु सूर्य के समान समस्त पदार्थों को दिखाकर अन्य लोगों का भी अत्यधिक वैभव के साथ संयोग करता है अर्थात् पुण्यात्मा मनुष्य स्वयं वैभव को प्राप्त होता है और दूसरों को भी वैभव प्राप्त कराता है ॥24॥ इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित पद्मपुराण में सुग्रीव और भामंडल का नागपाश से युक्त हो आश्वासन प्राप्ति का वर्णन करने वाला इकसठवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥61॥ |