+ विशल्या का पूर्वभव -
चौसठवां पर्व

  कथा 

कथा :

अथानंतर रावण लक्ष्मण का मरण निश्चित जान अत्यंत दुखी होता हुआ मन में पुत्रों और भाई के बध का विचार करने लगा । भावार्थ― रावण को यह निश्चय हो गया कि शक्ति के प्रहार से लक्ष्मण अवश्य मर गया होगा और उसके प्रतिकार स्वरूप रामपक्ष के लोगों ने कैद किये हुए इंद्रजित तथा मेघवाहन इन दो पुत्रों और कुंभकर्ण भाई को अवश्य मार डाला होगा । इस विचार से वह मन ही मन बहुत दुःखी हुआ ॥1꠰꠰ वह विलाप करने लगा कि हाय भाई ! तू अत्यंत उदार था और मेरा हित करने में सदा उद्यत रहता था सो इस अयुक्त बंधन की अवस्था को कैसे प्राप्त हो गया ? ॥2॥ हाय पुत्रो ! तुम तो महाबलवान् और मेरी भुजाओं के समान दृढ़ थे । कर्म के नियोग से ही तुम इस नूतन बंधन को प्राप्त हुए हो ॥3॥ शत्रु तुम लोगों का क्या करेगा? यह सोचकर मेरा मन अत्यंत व्याकुल हो रहा है । मैं पापी शत्रु के कर्तव्य को नहीं जानता हूँ अथवा निश्चित ही है कि वह अनिष्ट ही करेगा अर्थात् तुम्हें मारेगा ही ॥4॥ आप-जैसे उत्तम, प्रीति के पात्र पुरुष बंधन के दुःख को प्राप्त हुए हैं इसलिए मैं अत्यधिक पीडा को प्राप्त हो रहा हूँ । हाय, यह कष्ट मुझे क्यों रहा है ? ॥5॥ इस प्रकार जिसके यूथ-झुंड का महागज पकड़ लिया गया है ऐसे अन्य गजराज की तरह वह रावण निरंतर अप्रकट रूप से मन ही मन शोक का अनुभव करने लगा ॥6॥

तदनंतर जब सीता ने सुना कि लक्ष्मण शक्ति से घायल हो पृथिवी पर गिर पड़े हैं तब वह शोक को प्राप्त हो विलाप करने लगी॥ 7॥ वह कहने लगी कि हाय भाई लक्ष्मण ! हाय विनीत ! हाय गुण रूपी आभूषण से सहित ! तुम मुझ अभागिनी के लिए इस अवस्था को प्राप्त हुए हो ॥8॥ यद्यपि मैं इस तरह संकट में पड़ी हुई भी तुम्हारा दर्शन करना चाहती हूँ तथापि मैं अभागिनी पापिनी आपका दर्शन नहीं पा रही हूँ ॥9॥ आप-जैसे वीर को मारते हुए पापी शत्रु ने किस वीर के मारने का संदेह मुझे उत्पन्न नहीं किया है ? अर्थात् जब उसने आप-जैसे वीर को मार डाला है तब वह प्रत्येक वीर को मार सकता है॥ 10॥ तुम भाई का भला करने में चिंता लगा पहले बंधुजनों से बिछोह को प्राप्त हुए और अब बडी कठिनाई से समुद्र को पार कर इस अवस्था को प्राप्त हुए हो ॥11॥ क्या मैं क्रीड़ा करने में निपुण विनयी, सुंदर वचन बोलने वाले एवं परम आश्चर्य के कार्य करने वाले तुम्हें फिर भी देख सकूँगी ? ॥12॥ देव सब प्रकार से तुम्हारे जीवन की रक्षा करें और सब लोगों के मन को हरण करने वाले तुम शीघ्र ही शल्यरहित अवस्था को प्राप्त होओ ॥13॥ इस प्रकार विलाप करने वाली शोकवती सीता को भाव से स्नेह रखने वाली विद्याधरियों ने सांत्वना प्राप्त करायी ॥14॥ उन्होंने समझाते हुए कहा कि हे देवि ! तुम्हारे देवर का अभी तक निश्चय नहीं जान पडा है इसलिए इसके विषय में विलाप करना उचित नहीं है॥ 15॥ धैर्य धारण करो, वीरों की तो ऐसी गति होती ही है । जो हो चुकता है उसके प्रतीकार होते हैं यथार्थ में पृथिवी की चेष्टा विचित्र है॥ 16॥ इस प्रकार विद्याधरियों के कहने से सीता कुछ निराकुल हुई । गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! अब इस लक्ष्मण पर्व में जो कुछ हुआ उसे श्रवण कर ॥17॥

अथानंतर इसी बीच में एक सुंदर मनुष्य डेरे के द्वार पर आकर भीतर प्रवेश करने लगा तब भामंडल ने उसे रोकते हुए कहा कि तू कौन है ? किसका आदमी है ? कहाँ से आया है ? और किस लिए प्रवेश करना चाहता है ? खड़ा रह, खड़ा रह, सब बात ठीक-ठीक बता, यहाँ अपरिचित लोगों का आगमन निषिद्ध है ॥18-19॥ इसके उत्तर में उस पुरुष ने कहा कि मुझे यहाँ आये कुछ अधिक एक मास हो गया । मैं राम का दर्शन करना चाहता हूँ परंतु अब तक अवसर ही प्राप्त नहीं हुआ ॥20॥ इस समय उनका दर्शन करता हूँ । यदि आप लोगों की लक्ष्मण को शीघ्र ही जीवित देखने की इच्छा है तो मैं आपको इसका उपाय बताता हूँ ॥21॥ उसके इतना कहते हो राजा भामंडल बहुत संतुष्ट हुआ । वह द्वार पर अपना प्रतिनिधि बैठाकर उसे राम के समीप ले गया॥ 22॥ उस पुरुष ने बड़े आदर से राम को प्रणाम कर कहा कि हे महाराज ! खेद मत कीजिए, कुमार निश्चित ही जीवित हैं ॥23॥ मेरी माता का नाम सुप्रभा तथा पिता का नाम चंद्रमंडल है । मैं देवगति पर का रहने वाला हूँ तथा चंद्रप्रतिम मेरा नाम है ॥24॥ किसी समय मैं आकाश में धूम रहा था उसी समय राजा वेलाध्यक्ष के पुत्र सहस्रविजय ने जो कि हमारा शत्रु था मुझे देख लिया॥ 25॥ तदनंतर स्त्री संबंधी वैर का स्मरण कर वह क्रोध को प्राप्त हो गया जिससे उसका मेरे साथ योद्धाओं को भय उत्पन्न करने वाला― कठिन युद्ध हुआ ॥26॥ तत्पश्चात् उसने मुझे चंडरवा नामक शक्ति से मारा जिससे मैं रात्रि के समय आकाश से अयोध्या के महेंद्रोदय नामक सघन वन में गिरा ॥27॥ आकाश से पड़ते हुए ताराबिंब के समान मुझे देख अयोध्या के राजा भरत तर्क करते हुए मेरे समीप आये ॥28॥ शक्ति लगने से जिसका वक्षःस्थल शल्ययुक्त था ऐसे मुझ को देख राजा भरत दया से दुखी हो उठे । तदनंतर जीवन दान देने वाले उन सत्पुरुष ने मुझे चंदन के जल से सींचा ॥29॥ उसी समय शक्ति कहीं भाग गयी और मेरा रूप पहले के समान हो गया तथा उस सुगंधित जल से मुझे अत्यधिक सुख उत्पन्न हुआ ॥30॥ पुरुषों में इंद्र के समान श्रेष्ठ उन महात्मा भरत ने मुझे यह दूसरा जन्म दिया है जिसका कि फल आपका दर्शन करना है । भावार्थ-शक्ति निकालकर उन्होंने मुझे जीवित किया उसी के फलस्वरूप आपके दर्शन पा सका हूँ ॥31॥ इसी बीच में परम हर्ष को प्राप्त हुए, सुंदर रूप के धारक राम ने उससे पूछा कि हे भद्र ! उस गंधोदक की उत्पत्ति भी जानते हो ?॥32॥ इसके उत्तर में उसने कहा कि हे देव ! जानता हूँ सुनिए, मैं आपके लिए बताता हूँ । मैंने राजा भरत से पूछा था तब उन्होंने इस प्रकार कहा था ॥33॥ कि नगर-ग्रामादि से सहित यह देश एक बार जिनका प्रतिकार नहीं किया जा सकता था ऐसे अनेक महारोगों से आक्रांत हो गया ॥34॥ उरोघात― जिसमें वक्षःस्थल-पसली आदि में दर्द होने लगता है, महादाहज्वर― जिसमें महादाह उत्पन्न होता है, लालापरिस्राव― जिसमें मुंह से लार बहने लगती है, सर्व-शूल― जिसमें सर्वांग में पीड़ा होती है, अरुचि― जिसमें भोजनादि की रुचि नष्ट हो जाती है, छदि― जिसमें वमन होने लगते हैं, श्वयथु― जिसमें शरीर पर सूजन आ जाता है, और स्फोटक― जिसमें शरीर पर फोड़े निकल आते हैं, इत्यादि समस्त रोग उस समय मानो परम क्रुद्ध हो रहे थे । इस देश में ऐसा एक भी प्राणी नहीं बचा था जो कि इन रोगों द्वारा गिराया न गया हो ॥35-36॥ केवल द्रोणमेघ नाम का राजा मंत्रियों, पशुओं तथा बंधु आदि परिवार के साथ अपने नगर में देव के समान नीरोग बचा था ऐसा मेरे सुनने में आया ॥37॥ मैंने उसे बुलाकर कहा कि हे माम ! जिस प्रकार तुम नीरोग हो उसी प्रकार मुझे भी अविलंब नीरोग करने के योग्य हो ॥38॥ तदनंतर उसने बुलाकर अपनी सुगंधि से दूर-दूर तक के दिङमंडल को व्याप्त करने वाला जल मुझ पर सींचा और मुझे परम नीरोगता प्राप्त करा दी ॥39॥ उस जल से न केवल मैं ही नीरोग हुआ किंतु मेरा अंतःपुर, नगर और समस्त देश रोगरहित हो गया ॥40॥ हजारों रोगों को उत्पन्न करने वाली, अत्यंत दुःसह, एवं मर्म घात करने में निपुण दूषित वायु ही उस जल से नष्ट हो गयी ॥41॥ मैंने राजा द्रोणमेघ से बार-बार पूछा कि हे माम ! यह जल कहाँ से प्राप्त हुआ है जिसने शीघ्र ही रोगों को नष्ट करने वाला यह आश्चर्य उत्पन्न किया है॥ 42॥ इसके उत्तर में द्रोणमेघ ने कहा कि हे राजन् ! सुनिए, मेरी गुणों से सुशोभित तथा सब प्रकार के विज्ञान में निपुण विशल्या नाम की पुत्री है ॥43॥ जिसके गर्भ में आते ही अनेक रोगों से पीड़ित मेरी स्त्री सर्व रोगों से रहित हो मेरा उपकार करने वाली हुई थी ॥44॥ वह जिन-शासन में आसक्त है, निरंतर पूजा करने में तत्पर रहती है, मनोहारिणी है और शेषाक्षत के समान सर्व बंधु जनों की पूज्या है ॥45॥ यह महासुगंधि से सहित उसी का स्नान-जल है जो कि क्षण-भर में सब रोगों को नाश कर देता है॥ 46॥ तदनंतर द्रोणमेघ के वह वचन सुन मैं परम आश्चर्य को प्राप्त हआ और बड़े वैभव से मैंने उस पुत्री को पूजा को ॥47॥ नगरी से निकलकर जब वापस आ रहा था तब सत्यहित नामक मुनिराज जो कि मुनिसंघ के स्वामी थे वे मिले । मैंने विनयपूर्वक प्रणाम कर उनसे विशल्या का चरित्र पूछा ॥48॥ राजा भरत विद्याधर से कहते हैं कि हे विद्याधर ! तदनंतर मेरे पूछने पर चार ज्ञान के धारी, महास्नेही मुनिराज विशल्या का दिव्य चरित्र इस प्रकार कहने लगे कि― ꠰꠰49॥

विदेह क्षेत्र में स्वर्ग के समान पुंडरीक नामक देश है । उसके चक्रधर नामक नगर में त्रिभुवनानंद नाम का चक्रवर्ती रहता था । ॥50॥ उसकी अनंगशरा नाम को एक कन्या थी जो गुण रूपी आभूषणों से सहित थी, कर्मों की अपूर्व सृष्टि थी और सौंदर्य का प्रवाह बहाने वाली थी॥51॥ चक्रवर्ती त्रिभुवनानंद का एक पुनर्वसु नाम का सामंत था जो कि प्रतिष्ठपुर नगर का स्वामी था । काम से प्रेरित हो उस दुर्बुद्धि ने विमानपर चढ़ाकर उस कन्या का अपहरण किया॥ 52॥ क्रोध से भरे चक्रवर्ती की आज्ञा पाकर सेवकों ने उसका पीछा किया और बहुत काल तक युद्ध कर उसके विमान को अत्यधिक चूर कर डाला ॥53॥ तदनंतर जिसका विमान चूर-चूर किया जा रहा था ऐसे उस पुनर्वसु ने कन्या को विमान से छोड़ दिया जिससे वह चंद्रमा को शरदकालीन कांति के समान आकाश से नीचे गिरी ॥54॥ पुनर्वसु के द्वारा नियुक्त की हुई पर्णलध्वी नामक विद्या के सहारे स्वेच्छा से उतरती हुई वह श्वापद नामक अटवी में आयी ॥55॥

तदनंतर जो बड़े-बड़े विद्याधरों के लिए भी भय उत्पन्न करने वाली थी, जिसमें प्रवेश करना कठिन था, बड़े-बड़े वृक्षों को सघन झाड़ियों से जिसमें अंधकार फैल रहा था, जहाँ विविध प्रकार के ऊँचे वृक्ष नाना लताओं से आलिंगित थे, पल्लवों की सघन छाया से दूर की हुई सूर्य के किरणों ने भयभीत होकर ही मानो जिसे छोड़ दिया था, जो भेड़िये, शरभ, चीते, तेंदुए तथा सिंहों आदि से सेवित थी, जहाँ की कठोर भूमि ऊँची-नोची थी, और जो बड़े-बड़े बिलों से सहित थी ऐसी उस महाअटवी में जाकर महाभय को प्राप्त हुई बेचारी अनंगसेना दीपक की शिखा के समान काँपने लगी ॥56-59॥ नदी के तीर आकर और सब दिशाओं की ओर देख महाखेद से युक्त होती हुई वह कुटुंबीजनों को चितार-चितारकर रोने लगी ॥60॥ वह कहती थी कि हाय मैं लोक की रक्षा करने वाले, इंद्र के समान सुशोभित उन चक्रवर्ती पिता से उत्पन्न हुई और महास्नेह से लालित हुई । आज प्रतिकूल दैव से― भाग्य की विपरीतता से इस अवस्था को प्राप्त हुई हूँ । हाय, जिसका देखना भी कठिन है ऐसे इस वन में आ पड़ी हूँ क्या करूँ ? ॥61-62॥ हाय पिता ! तुम तो महापराक्रमी, सब लोक को रक्षा करते हो फिर वन में असहाय पड़ी हुई मुझ पर दया क्यों नहीं करते हो ? ॥63॥ हाय माता ! गर्भ धारण का वैसा दुःख सहकर इस समय दया क्यों नहीं कर रही हो ? ꠰꠰64॥ हाय मेरे अंतःकरण के समान प्रवृत्ति करने वाले तथा उत्तम गुणों से युक्त परिजन ! तुमने तो मुझे एक क्षण के लिए भी कभी नहीं छोड़ा फिर इस समय क्यों छोड़ रहे हो ? ॥65॥ मैं दुखिया क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? किसका आश्रय लूं ? किसे देखें और इस महावन में मैं पापिनी कैसे रहूँ ? ॥66॥ क्या यह स्वप्न है ? अथवा नरक में मेरा जन्म हुआ है ? क्या मैं वही हूँ अथवा यह कौन-सी दशा सहसा प्रकट हई है ? ॥67-68 । इस प्रकार चिरकाल तक विलाप कर वह अत्यंत विह्वल हो गयी । उसका वह विलाप क्रूर पशुओं के भी मन को पिघला देने वाला था ॥69॥ तदनंतर भूख-प्यास की बाधा से जिसका शरीर झुलस गया था, जो निरंतर शोकरूपी सागर में निमग्न रहती थी और जिसका मन अत्यंत दीन हो गया था ऐसी अनंगसेना फल तथा पत्रों से निर्वाह करने लगी ॥70॥ वन के कमल समूह की शोभा का सर्वस्व हरने वाला शीत काल आया सो उसने कर्मों का फल भोगते हुए व्यतीत किया॥71॥ जिसमें पशुओं के समूह साँसें भरते थे, अनेक वृक्ष सूख गये थे, तथा जिससे शरीर अत्यंत रूक्ष पड़ गया था ऐसे ग्रीष्म ऋतु के सूर्य का आतप उसने उसी प्रकार सहन किया ॥72॥ जिसमें तीक्ष्ण बिजली कौंध रही थी, शीतल जलधारा से अंधकार फैल रहा था, और नदियों के प्रवाह बढ़ रहे थे ऐसा वर्षा काल भी उसने जिस किसी तरह पूर्ण किया॥ 73॥ कांतिहीन, फटा, दुबला, बिखरे बालों से युक्त एवं मल से आवृत उसका शरीर वर्षा से भीगे चित्र के समान निष्प्रभ हो गया था॥ 4 । जिस प्रकार चंद्रमा को क्षीण कला सूर्य के प्रकाश से निष्प्रभ हो जाती है उसी प्रकार उसका दुर्बल शरीर लावण्य से रहित हो गया ॥75॥ परिपाक के कारण धूसर वर्ण से युक्त फलों से झु के हुए कैथाओं के वन में जाकर वह बार-बार पिता का स्मरण कर रोने लगती थी॥76॥ मैं चक्रवर्ती से उत्पन्न हो वन में इस दशा को प्राप्त हो रही हूँ सो निश्चित ही जंमांतर में किये हुए पापकर्म के उदय से मेरो यह दशा हुई है ॥77॥ इस प्रकार अविरल अश्रु वर्षा से जिसका मुख दुर्दिन के समान हो गया था ऐसी वह अनंगसेना नीची दृष्टि से पृथिवी की ओर देख पक जाने के कारण अपने आप गिरे हुए फल लेकर शांत हो जाती थी ꠰꠰78॥ वेला-तेला आदि उपवासों से जिसका शरीर अत्यंत कृश हो गया था ऐसी वह बाला जब कभी केवल पानी से ही पारणा करती थी सो भी एक ही बार॥79॥ जो अनंगसेना पहले अपने केशों से च्युत हो शय्या पर पड़े फूलों से भी खेद को प्राप्त होती थी आज वह मात्र पृथिवी पर शयन करती थी ॥80॥ जो पहले पिता का संगीत सुन जागती थी वह आज शृगाल आदि के द्वारा छोड़े हुए भयंकर शब्द सुनकर जागती थी ॥81 । इस प्रकार महा सहन करती तथा बीच-बीच में प्रासुक आहार की पारणा करती हुई उस अनंगसेना ने तीन हजार वर्ष तक बाह्य तप किया॥ 8॥ तदनंतर जब वह निराशता को प्राप्त हो गयी तब विरक्त हो उस धीर-वीरा ने चारों प्रकार का आहार त्यागकर सल्लेखना धारण कर ली॥ 83॥ उसने जिन-शासन में पहले जैसा सुन रखा था वैसा नियम ग्रहण किया कि मैं सौ हाथ से बाहर को भूमि में नहीं जाऊँगी ॥84॥

अथानंतर उसे सल्लेखना का नियम लिये हुए जब छह रात्रियाँ व्यतीत हो चुकी तब लब्धि दास नामक एक पुरुष मेरु पर्वत को वंदना कर लौट रहा था सो उसने उस कन्या को देखा । तदनंतर जब लब्धि दास उसे पिता के घर ले जाने के लिए उद्यत हुआ तब उसने यह कहकर मना कर दिया कि मैं सल्लेखना धारण कर चुकी हूँ॥85-86॥ तत्पश्चात् लब्धि दास शीघ्र ही चक्रवर्ती के पास गया और उसके साथ पुनः उस स्थानपर आया ॥87॥ जब वह आया तब अत्यंत भयंकर एक बड़ा मोटा अजगर उसे खा रहा था यह देख उसे समाधान करने में तत्पर हुआ ॥88ः । तदनंतर जिसने सल्लेखना धारण की थी, और दुर्बलता के कारण जो ऐसी जान पड़ती थी मानो दूसरी ही हो ऐसी उस पुत्री को देख चक्रवर्ती वैराग्य को प्राप्त हो गया॥ 89॥ जिससे उसने सब प्रकार की इच्छा छोड़ महावैराग्य से युक्त हो बाईस हजार पुत्रों के साथ दीक्षा धारण कर ली ॥10॥ भूख से पीड़ित होने के कारण सामने आये हुए उस अत्यंत स्थूल अजगर के द्वारा खायी हुई वह कन्या मरकर ईशान स्वर्ग में गयी ॥91॥ यद्यपि वह जानती थी कि इस अजगर से मेरो मृत्यु होगी तथापि उसने उसे इस दया भाव से कि इसे थोड़ी भी पीड़ा नहीं हो दूर नहीं हटाया था ॥12॥

तदनंतर जब पुनर्वसु युद्ध में समस्त विद्याधरों को परास्त कर आया तब वह अपनी प्रेमपात्र अनंगशरा को नहीं देख विरह की भूमि में पड़ बहुत दुःखी हुआ । अंत में उसने द्रुमसेन नामक मुनिराज के समीप दिगंबर दीक्षा धारण कर ली और अत्यंत कठिनत पत पाकर इसी का निदान करता हुआ मरा जिससे स्वर्ग में देव हुआ और वहाँ से च्युत हो यह अत्यंत सुंदर लक्ष्मण हुआ है॥ 93-95॥ पहले को अनंगशरा देवलोक से च्युत हो राजा द्रोणमेघ की यह विशल्या नाम की पुत्री हुई है॥ 96॥ महागुणों को धारण करने वाली विशल्या इस नगर-देश अथवा भरतक्षेत्र में पूर्व कर्मों के प्रभाव से अत्यंत उत्तम हुई॥ 97॥ यतश्च उसने पूर्वभव में उत्सर्ग सहित महातप किया था इसलिए उसका स्नान जल महागुणों से सहित है॥ 98॥ इस देश में जिसने सब लोगों पर शासन जमा रखा था तथा जो महारोग उत्पन्न करने वाली थी ऐसी विषम वायु इस जल से क्षय को प्राप्त हो गयी है॥ 99॥ यह वायु ऐसी क्यों हो गयी ? इस प्रकार पूछने पर उस समय मुनिराज ने कौतूहल को धारण करने वाले भरत के लिए इस प्रकार कहा कि ॥100॥

विंध्या नाम का एक महाधनवान् व्यापारी गधे, ऊँट तथा भैंसे आदि जानवर लदाकर गजपुर नगर से आया और तुम्हारी उस अयोध्या नगरी में ग्यारह माह तक रहा । अनेक वर्षों से सहित उसका एक भैंसा तीव्र रोग के भार से पीड़ित हो नगर के बीच मरा और अकाम निर्जरा के योग से देव हुआ ॥101-103॥ वह अश्व चिह्न से चिह्नित महाबलवान् वायुकुमार जाति का देव हुआ । वाय्वावर्त उसका नाम था, वह वायु कुमार देवों का स्वामी था, श्रेयस्करपुर नगर का स्वामी, रसातल में निवास करने वाला देदीप्यमान, क्रूर और इच्छानुसार क्रियाओं को करने वाला वह बहुत बड़ा भवनवासी देव था ॥104-105॥

अवधिज्ञान से सहित होने के कारण उसने पूर्वभव में प्राप्त हुए पराभव को जान लिया । उसे विदित हो गया कि मैं पहले भैंसा था और अयोध्या में आकर रहा था । उस समय मेरे शरीर पर अनेक घाव थे । भूख-प्यास आदि से मेरा शरीर लिप्त था, अनेक रोगों से पीड़ित हुआ मैं मार्ग की कीचड़ में पड़ा था, लोग मुझे पीटते थे । उस समय मैं गोबर आदि मल से व्याप्त हुआ निश्चेष्ट पड़ा था और सब लोग मेरे मस्तक पर पैर रखकर जाते थे ॥106-108॥ अब यदि मैं शीघ्र ही उसका भयंकर निग्रह नहीं करता हूँ― बदला नहीं चुकाता हूँ तो मेरा यह इस प्रकार का बड़प्पन युक्त देवपर्याय पाना व्यर्थ है॥ 109॥ इस प्रकार विचारकर उसने क्रोध से प्रेरित हो उस देश में नाना रोगों को उत्पन्न करने वाली वायु चलायी ॥110॥ यह वही देव विशल्या के स्नान जल के द्वारा क्षण-भर में विनाश को प्राप्त कराया गया है सो ठोक ही है क्योंकि लोक में बलवानों के लिए भी उनसे अधिक बलवान् होते हैं ॥111॥ चंद्रप्रतिम विद्याधर, राम से कहता है कि यह कथा सत्त्वहित नामा मुनि ने राजा भरत से जिस प्रकार कही और भरत ने जिस प्रकार मुझ से कही उसी प्रकार हे राम ! मैंने आप से कही हैं ॥112॥ इसलिए शीघ्र ही विशल्या का स्नान जल लाने का यत्न करो । लक्ष्मण के जीवित होने का और दूसरा उपाय नहीं है॥ 113॥

गौतम स्वामी कहते हैं कि जो इस तरह मृत्यु के मार्ग में स्थित हैं तथा समस्त लोग जिनके मरण का निश्चय कर चुके हैं ऐसे महापुरुषों के पुण्यकर्म के उदय से जीवन प्रदान करने वाला कोई न कोई उपाय विदित हो ही जाता है॥114॥ अहो ! वे पुरुष अत्यंत महान् तथा उत्कृष्ट हैं कि महाविपत्ति में पड़े हुए जिनके लिए सूर्य के समान उज्ज्वल पुरुष यथार्थ तत्त्व का निवेदन कर विपत्ति से निकलने का उपाय बतलाते हैं― प्रकट करते हैं ॥115॥

इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित पद्मपुराण में विशल्या के पूर्वभव का वर्णन करने वाला चौंसठवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥64॥