+ रावण और लक्ष्मण का युद्ध -
चौहत्तरवाँ पर्व

  कथा 

कथा :

अथानंतर पूर्वकृत पुण्योदय से हर्ष को धारण करता हुआ रावण आदर के साथ अपनी प्रिय स्त्री मंदोदरी से इस प्रकार पूछता है कि हे प्रिये ! चारुदर्शने ! महाभयकारी युद्ध होना है अतः कौन जाने फिर तुम्हारा दर्शन हो या न हो ॥1-2॥ यह सुन सब स्त्रियों ने कहा कि हे नाथ । सदा वृद्धि को प्राप्त होओ, शत्रुओं को जीतो । तुम्हें हम सब शीघ्र ही युद्ध से लौटा हुआ देखेंगी ॥3॥ ऐसा कहकर जिसे हजारों स्त्रियाँ अपने नेत्रों से देख रही थीं तथा जिसकी प्रभा अत्यंत विशाल थी ऐसा राक्षसों का राजा रावण नगर के बाहर निकला ॥4॥ बाहर निकलते ही उसने बहुरूपिणी विद्या के द्वारा निर्मित तथा शरद्ऋतु के सूर्य के समान देदीप्यमान ऐंद्र नाम का महारथ देखा ॥5॥ वह महारथ वर्षाकालीन मेघों के समान कांति वाले एक हजार हाथियों से जुता था, कांति के मंडल से सहित था, ऐसा जान पड़ता था मानो मेरुपर्वत को ही जीतना चाहता हो ॥6॥ उसमें जुते हुए हाथी मदोन्मत्त थे, इनके गंडस्थलों से झरने झर रहे थे, उनके सफेद पीले रंग के चार-चार खड़े दाँत थे, वे शंखों तथा चमरों से सुशोभित थे, मोतियों की मालाओं से युक्त थे, उनके गले में बँधे बड़े-बड़े घंटा शब्द कर रहे थे, वे ऐरावत हाथी के समान थे, नाना धातुओं के रंग से सुशोभित थे, उनका जीतना अशक्य था, वे विनय की भूमि थे, मेघों के समान गर्जना से युक्त थे, कृष्ण मेघों के समूह के समान थे तथा सुंदर विभ्रम को धारण करते हुए शोभायमान थे॥7-9॥ जिसकी भुजा के अग्रभाग पर मनोहर बाजूबंद बंधा हुआ था तथा जिसकी कांति इंद्र के समान थी, ऐसा रावण उस विद्यानिर्मित रथ पर आरूढ़ हुआ ॥10॥ विशाल नयन तथा अनुपम आकृति को धारण करने वाला रावण उस रथ पर आरूढ़ हुआ अपने तेज से मानो समस्त लोक को ग्रस ही रहा था ॥11॥ जो अपने समान थे, अपना हित करने वाले थे, महाबलवान थे, देवों के समान कांति से युक्त थे और अभिप्राय को जानने वाले थे ऐसे गगनवल्लभनगर के स्वामी को आदि लेकर दश हजार विद्याधर राजाओं से घिरा रावण सुग्रीव और भामंडल को देख कुपित होता हुआ उनके सन्मुख गया । रावण की दक्षिण दिशा में भालू अत्यंत भयंकर शब्द कर रहे थे और आकाश में सूर्य को आच्छादित करते हुए गीध मँडरा रहे थे ॥12--14॥ शूरवीरता के अहंकार से भरे महासुभट यद्यपि यह जानते थे कि ये अपशकुन मरण को सूचित कर रहे हैं तथापि वे कुपित हो आगे बढ़े जाते थे ॥15॥

अपनी सेना के मध्य में स्थित राम ने भी आश्चर्यचकित हो सैनिकों से पूछा कि हे भद्रपुरुषो ! इस नगरी के बीच में तेज से देदीप्यमान, सुवर्णमयी बड़े-बड़े शिखरों से अलंकृत, तथा बिजली से सहित मेघसमूह के समान कांति को धारण करने वाला यह कौन-सा पर्वत है ? ॥16-17॥ सुपेण आदि विद्याधर स्वयं भ्रांति में पड़ गये इसलिए वे पूछने वाले राम के लिए सहसा उत्तर देने के लिए समर्थ नहीं हो सके । फिर भी राम उनसे बार-बार पूछे जा रहे थे कि कहो यह यहाँ कौन-सा पर्वत दिखाई दे रहा है ? तदनंतर भय से काँपते हुए जांबव आदि ने धीमे स्वर में कहा कि हे राम ! यह बहुरूपिणी विद्या के द्वारा निर्मित वह रथ है जो हम लोगों को कालज्वर उत्पन्न करने में निपुण है ॥18-20॥ सुग्रीव के पुत्र अंगद ने जाकर जिसे कुपित किया था ऐसा वह महा मायामय अभ्युदय को धारण करने वाला रावण इस पर सवार है॥21॥

जांबव आदि के उक्त वचन सुन लक्ष्मण ने सारथि से कहा कि शीघ्र ही रथ लाओ । सुनते ही सारथि ने आज्ञापालन किया अर्थात् रथ लाकर उपस्थित कर दिया ॥22॥ तदनंतर जिनके शब्द क्षुभित समुद्र के शब्द के समान थे, जिनके शब्दों के साथ करोड़ों शंखों के शब्द मिल रहे थे ऐसी भयंकर भेरियाँ बजाई गई ॥23॥ उस शब्द को सुनकर विकट चेष्टाओं के धारक योद्धा, कवच पहिन तथा तरकस बाँध लक्ष्मण के पास आ खड़े हुए ॥24॥ हे प्रिये ! डर मत, यहीं ठहर, लौट जा, शोक तज, मैं लंकेश्वर को जीतकर आज ही तेरे समीप वापिस आ जाऊँगा इस प्रकार गर्वीले वीर, अपनी उत्तम स्त्रियों को सांत्वना दे कवच आदि से तैयार हो यथायोग्य रीति से बाहर निकले ॥25-26॥ जो परस्पर की प्रतिस्पर्धावश वेग से अपने वाहनों को प्रेरित कर रहे थे, तथा जो शस्त्रों की ओर देख-देखकर चंचल हो रहे थे ऐसे योद्धा रथ आदि वाहनों पर आरूढ़ हो चले ॥27॥ महागज से जुते तथा गंभीर और उदार शब्द करने वाले रथ पर सवार हुआ विद्याधरों का राजा भूतस्वन अलग ही सुशोभित हो रहा था ॥28॥ इसी विधि से दूसरे विद्याधर राजाओं ने भी हर्ष के साथ क्रुद्ध हो युद्ध करने के लिए लंकेश्वर के प्रति प्रस्थान किया॥26॥ क्षुभित समुद्र के समान आकृति को धारण करने वाले रावण के प्रति बड़े वेग से दौड़ते हुए योद्धा, गंगानदी की बड़ी ऊँची तरंगों की भाँति अत्यधिक धक्काधूमी को प्राप्त हो रहे थे ॥30॥

तदनंतर जिन्होंने धवल यश से संसार को व्याप्त कर रक्खा था तथा जो उत्तम आकृति को धारण करने वाले थे ऐसे राम-लक्ष्मण युद्ध के लिए अपने निवास स्थान से बाहर निकले ॥31॥ जो गरुड़ के रथ पर आरूढ़ थे, जिनकी ध्वजा में गरुड़ का चिह्न था, जिनके शरीर की कांति उन्नत मेघ के समान थी, जिन्होंने अपनी कांति से आकाश को श्याम कर दिया था, जो मुकुट, कुंडल, धनुष, कवच, बाण और तरकस से युक्त थे, तथा जो संध्या की लाली से युक्त अंजनगिरि के समान आभा के धारक थे ऐसे लक्ष्मण अत्यधिक सुशोभित हो रहे थे ॥32-34॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! कांतिरूपी अलंकारों से सुशोभित तथा नाना प्रकार के यान और विमानों से गमन करने वाले अनेक बड़े-बड़े विद्याधर भी युद्ध करने के लिए निकले ॥35॥ जब राम लक्ष्मण का गमन हुआ तब पहले की भाँति इष्ट स्थानों पर बैठकर कोमल शब्द करने वाले पक्षियों ने उन्हें आनंद युक्त किया ॥33॥

अथानंतर क्रोध से युक्त, महाबल से सहित, वेगवान् एवं महादावानल के समान प्रचंड आकृति को धारण करने वाला रावण उनके सामने चला ॥37॥ आकाश में स्थित गंधर्वों और अप्सराओं ने दोनों सेनाओं में रहने वाले सुभटों के ऊपर बार-बार फूलों की वर्षा की ॥38॥ पैदल सैनिकों के समूह जिनकी चारों ओर से रक्षा कर रहे थे, चतुर महावत जिन्हें चला रहे थे तथा जो अंजनगिरि के समान विशाल आकार से युक्त थे ऐसे मदोन्मत्त हाथी मद झरा रहे थे॥39॥ सूर्य के रथ के समान जिनके आकार थे, जिनमें चंचल घोड़े जुते हुए थे, जो सारथियों से सहित थे, जिनसे विशाल शब्द निकल रहा था तथा जो तीव्र वेग से सहित थे ऐसे रथ आगे बढ़े जा रहे थे ॥40॥ जो अत्यधिक हर्ष से युक्त थे, जिनके शस्त्र चमक रहे थे, तथा जिन्होंने अपने झुंड के झुंड बना रक्खे थे ऐसे गर्वीले पैदल सैनिक रणभूमि में उछलते जा रहे थे ॥41॥ जो घोड़ों के पीठ पर सवार थे, हाथों में तलवार बरछी तथा भाले लिये हुए थे और कवच से जिनके वक्षःस्थल आच्छादित थे ऐसे योद्धाओं ने रणभूमि में प्रवेश किया ॥42॥ वे योद्धा परस्पर एक दूसरे को आच्छादित कर लेते थे, एक दूसरे के सामने दौड़ते थे, एक दूसरे से स्पर्धा करते थे, एक दूसरे को जीतते थे, उनसे जीते जाते थे, उन्हें मारते थे, उनसे मारे जाते थे और वीर गर्जना करते थे ॥43॥ कहीं व्यग्र मुद्रा के धारक तेजस्वी घोड़े घूम रहे थे तो कहीं केश मुट्ठी और गदा का भयंकर युद्ध हो रहा था॥44॥ कितने ही वीरों के वक्षःस्थल में तलवार से घाव हो गये थे, कोई बाणों से घायल हो गये थे और कोई भालों की चोट खाये हुए थे तथा बदला चुकाने के लिए वे वीर भी शत्रुओं को उसी प्रकार ताड़ित कर रहे थे ॥45॥ अभीष्ट पदार्थों के सेवन से जिन्हें निरंतर लालित किया था ऐसी इंद्रियां कितने ही सुभटों को इस प्रकार छोड़ रही थीं, जिस प्रकार कि खोटे मित्र काम निकलने पर छोड़ देते हैं ॥46॥ जिनकी आँतों का समूह बाहर निकल आया था ऐसे कितने ही सुभट अपनी बहुत भारी वेदना को प्रकट नहीं कर रहे थे किंतु उसे छिपा कर दाँतों से ओठ काटते हुए शत्रु पर प्रहार करते थे और उसी के साथ नीचे गिरते थे ॥47॥ देवकुमारों के समान तेजस्वी, महाभोगों के भोगने वाले और स्त्रियों के शरीर से लड़ाये हुए जो सुभट पहले महलों के शिखरों पर क्रीड़ा करते थे वे ही उस समय चक्र तथा कनक आदि शस्त्रों से खंडित हो रणभूमि में सो रहे थे, उनके शरीर विकृत हो गये थे तथा गीध और शियारों के समूह उन्हें खा रहे थे॥48-49॥ जिस प्रकार समागम की इच्छा रखने वाली स्त्री, नख क्षत देने के अभिप्राय से सोते हुए पति के पास पहुँचती है उसी प्रकार नाखूनों से लोंच का अभिप्राय रखने वाली शृगाली रणभूमि में पड़े हुए किसी सुभट के पास पहुँच रही थी ॥50॥ पास पहुँचने पर उसके हलन-चलन को देख जब शृगाली को यह जान पडा कि यह तो जीवित है तब वह हड़बड़ाती हुई डरकर इस प्रकार भागी जिस प्रकार कि मंत्रवादी के पास से डाकिनी भागती है॥51॥ कोई एक यक्षिणी किसी शूरवीर को जीवित जानकर भयभीत हो धीरे-धीरे इस प्रकार भागी जिस प्रकार कि कोई व्यभिचारिणी पति को जीवित जान शंका से युक्त हो नेत्र चलाती हुई भाग जाती है ॥52॥ युद्धभूमि में किसी की पराजय होती थी और किसी की हार । इससे जीवों के शुभ अशुभ कर्मों का उदय वहाँ समानरूप से प्रत्यक्ष ही दिखाई दे रहा था ॥53॥ कितने ही सुभट पुण्यकर्म के सामर्थ्य से अनेक शत्रुओं पर विजय प्राप्त करते थे और पूर्वभव में पाप करने वाले बहुत से योद्धा पराजय को प्राप्त हो रहे थे ॥54॥ जिन्होंने पूर्व पर्याय में मत्सरभाव से पुण्य और पाप दोनों का मिश्रित रूप से संचय किया था वे युद्धभूमि में दूसरों को जीतते थे और मृत्यु निकट आने पर दूसरों के द्वारा जीते भी जाते थे ॥55॥ इससे जान पड़ता है कि धर्म ही मर्म स्थानों की रक्षा करता है, धर्म ही दुर्जेय शत्रु को जीतता है, धर्म ही सहायक होता है और धर्म ही सब ओर से देख-रेख रखता है ॥56॥ जो मनुष्य पूर्वभव के पुण्य से रहित है उसकी घोड़ों से जुते हुए दिव्य रथ, पर्वत के समान हाथी, पवन के समान वेगशाली घोड़े और असुरों के समान देदीप्यमान पैदल सैनिक भी रक्षा नहीं कर सकते और जो पूर्व पुण्य से रक्षित है वह अकेला ही शत्रु को जीत लेता है॥57-58॥ इस प्रकार प्रचंड बलशाली योद्धाओं से परिपूर्ण युद्ध के होने पर योद्धा, दूसरे योद्धाओं से इतने पिछल जाते थे कि उन्हें अवकाश ही नहीं मिलता था ॥59॥ शस्त्रों से चमकते हुए कितने ही योद्धा ऊपर को उछल रहे थे और कितने ही मर-मरकर नीचे गिर रहे थे उनसे आकाश ऐसा हो गया था मानो उत्पात के मेघों से ही घिर गया हो ॥60॥

अथानंतर मारीच, चंद्रनिकर, वज्राक्ष, शुक, सारण तथा अन्य राक्षस राजाओं ने शत्रुओं की सेना को पीछे हटा दिया ॥61॥ तब हनूमान्, चंद्ररश्मि, नील, कुमुद तथा भूतस्वन आदि वानरवंशीय राजाओं ने राक्षसों की सेना को नष्ट कर दिया ॥62॥ तत्पश्चात् कुंद, कुंभ, निकुंभ, विक्रम, श्रीजंबूमाली, सूर्यार, मकरध्वज तथा वनरथ आदि राक्षस पक्ष के बड़े-बड़े राजा तथा वेगशाली योद्धा उन्हें सहायता देने के लिए खड़े हुए ॥63-64॥ तदनंतर भूधर, अचल, संमेद, विकाल, कुटिल, अंगद, सुषेण, कालचक्र और ऊर्मितरंग आदि वानर पक्षीय योद्धा, अपने पक्ष के लोगों को आलंबन देने के लिए उद्यत हो उनके सामने आये । उस समय ऐसा कोई योद्धा नहीं दिखाई देता था जो किसी प्रतिद्वंदी से रहित हो ॥65-66॥ जिस प्रकार कमलों से सहित सरोवर में महागज क्रीड़ा करता है उसी प्रकार अंजना का पुत्र हनूमान् हाथियों से जुते रथ पर सवार हो उस युद्धभूमि में क्रीड़ा कर रहा था ॥37॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! इच्छानुसार काम करने वाले उस एक शूरवीर ने राक्षसों की बड़ी भारी सेना को उन्मत्त जैसा कर दिया; उसका होश गायब कर दिया ॥68॥ इसी बीच में क्रोध के कारण जिसके नेत्र दूषित हो रहे थे ऐसे महा दैत्य मय ने आकर हनूमान् पर प्रहार किया ॥69॥ सो पुंडरीक के समान नेत्रों को धारण करने वाले हनुमान ने भी बाण निकालकर तीक्ष्ण बाण वर्षा से मय को रथ रहित कर दिया॥70॥ मय को विह्वल देख रावण ने शीघ्र ही बहुरूपिणी विद्या के द्वारा निर्मित रथ उसके पास भेजा ॥71॥ महाकांति के धारक मय ने प्रज्वलितोत्तम नामक उस रथ पर आरूढ़ हो हनुमान के साथ युद्ध कर उसे रथ रहित कर दिया ॥72-73॥ तब वानरों की सेना भाग खड़ी हुई । उसे भागती देख राक्षस पक्ष के सुभट कहने लगे कि इसने जैसा किया ठीक उसके विपरीत फल प्राप्त कर लिया अर्थात् करनी का फल इसे प्राप्त हो गया ॥74॥ तदनंतर हनूमान को शस्त्र रहित देख भामंडल दौड़ा सो बाण वर्षा करने वाले मय ने उसे भी रथ रहित कर दिया ॥75॥ तदनंतर किष्किंधनगर का राजा सुग्रीव कुपित हो मय के सामने खड़ा हुआ सो मय ने उसे भी शस्त्र रहित कर पृथिवी पर पहुँचा दिया॥76॥ तत्पश्चात् क्रोध से भरे विभीषण ने मय को आगे किया सो दोनों में परस्पर एक दूसरे के बाणों को काटने वाला महा युद्ध हुआ॥77॥ युद्ध करते-करते विभीषण का कवच टूट गया जिससे रुधिर की धारा बहने लगी और वह फूले हुए अशोकवृक्ष के समान लाल दिखने लगा ॥78॥ सो विभीषण को ऐसा देख तथा वानरों की सेना को विह्वल, भयभीत पराङ्मुख और बिखरी हुई देखकर राम युद्ध के लिए उद्यत हुए॥79॥ वे विद्यामयी सिंहों से युक्त रथ पर सवार हो ‘डरो मत’ यह शब्द करते तथा मुसकराते हुए शीघ्र ही दौड़े ॥80॥ रावण की सेना बिजली सहित वर्षाकालीन मेघों की सघन घटा के समान थी और राम प्रातःकाल के सूर्य के समान कांति के धारक थे सो इन्होंने रावण की सेना में प्रवेश किया ॥81॥ जब राम, शत्रुसेना का संहार करने के लिए उद्यत हुए तब हनूमान्, भामंडल, सुग्रीव और विभीषण भी धैर्य को प्राप्त हुए॥82॥ राम से बल पाकर जिसका समस्त भय छूट गया था ऐसी वानरों की सेना पुनः युद्ध करने के लिए प्रवृत्त हुई ॥83॥ उस समय देवों के रोमांच उत्पन्न करने वाले शस्त्रों की वर्षा होने पर लोक में अंधकार छा गया और वह ऐसा लगने लगा मानो दूसरा ही लोक हो ॥84॥ तदनंतर राम, थोड़े ही प्रयास से मय को बाणों से आच्छादित करने के लिए उस तरह अत्यधिक तल्लीन हो गये जिस तरह कि चमरेंद्र को बाणाच्छादित करने के लिए इंद्र तल्लीन हुआ था ॥85॥ तदनंतर राम के बाणों से मय को विह्वल देख तेज से यम की तुलना करने वाला रावण कुपित हो दौड़ा ॥86॥ तब परम प्रतापी वीर लक्ष्मण ने उससे कहा कि ओ विद्याधर ! कहाँ जा रहे हो ? मैं आज तुम्हें देख पाया हूँ ॥87॥ रे क्षुद्र ! चोर ! पापी ! परस्त्री रूपी दीपक पर मर मिटने वाले शलभ ! नीच पुरुष ! दुश्चेष्ट ! खड़ा रह खड़ा रह मुझसे युद्ध कर ॥88॥ आज साहसपूर्वक तेरी वह दशा करता हूँ जिसे कुपित दुष्ट यम भी नहीं करेगा ? ॥89॥ यह भी राघव देव समस्त पृथिवी के अधिपति हैं । धर्ममय बुद्धि को धारण करने वाले इन्होंने तुझ चोर का वध करने के लिए मुझे आज्ञा दी है ॥90॥

तदनंतर क्रोध से भरे रावण ने लक्ष्मण से कहा कि अरे मूर्ख ! क्या तुझे यह ऐसी लोक प्रसिद्ध बात विदित नहीं है कि पृथिवीतल पर जो कुछ सुंदर, श्रेष्ठ और सुखदायक वस्तु है मैं ही उसके योग्य हूँ । यतश्च मैं राजा हूँ अतएव वह मुझ में ही शोभा पाती हैं अन्यत्र नहीं ॥91-92॥ हाथी के योग्य घंटा कुत्ता के लिए शोभा नहीं देता । इसलिए योग्य द्रव्य का योग्य द्रव्य के साथ समागम हुआ इसकी आज भी क्या चर्चा करनी है ॥93॥ तू एक साधारण मनुष्य है, चाहे जो बकने वाला है, मेरी समानता नहीं रखता तथा अत्यंत दीन है अतः तेरे साथ युद्ध करने में यद्यपि मुझे लज्जा आती है॥94॥ तथापि इन सबके द्वारा बहकाया जाकर यदि युद्ध करना चाहता है तो स्पष्ट है कि तेरे मरने का काल आ पहुँचा है अथवा तू अपने जीवन से मानो उदास हो चुका है ॥95॥

तब लक्ष्मण ने कहा कि तू जैसा प्रभु है मैं जानता है । अरे पापी ! इस विषय में अधिक कहने से क्या ? मैं तेरी सब गर्जना अभी हरता हूँ ॥96॥ इतना कहने पर रावण ने सनसनाते हुए बाणों से लक्ष्मण को इस प्रकार रोका जिस प्रकार कि वर्षाऋतु का मेघ किसी पर्वत को आ रोकता है ॥97॥ इधर से जिनका वज्रमयी दंड था तथा शीघ्रता के कारण जिन्होंने मानो धनुष का संबंध देखा ही नहीं था ऐसे बाणों से लक्ष्मण ने उसके बाणों को बीच में ही नष्ट कर दिया॥98॥ उस समय टूटे-फूटे और चूर-चूर हुए बाणों के समूह से आकाश और भूमि भेदरहित हो गई थी ॥99॥

तदनंतर जब लक्ष्मण ने रावण को शस्त्ररहित कर दिया तब उसने आकाश को व्याप्त करने वाला माहेंद्र शस्त्र छोड़ा ॥100॥ इधर से शस्त्रों का क्रम जानने में निपुण लक्ष्मण ने पवन बाण का प्रयोग कर उसके उस माहेंद्र शस्त्र को क्षणभर में नष्ट कर दिया ॥101॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! क्रोध से जिसके मुख का तेज दमक रहा था ऐसे रावण ने फिर आग्नेय बाण चलाया जिससे समस्त दिशाएँ देदीप्यमान हो उठीं ॥102॥ इधर से लक्ष्मण ने वारुणास्त्र चलाकर उस आग्नेय बाण को, वह कार्य प्रारंभ करे कि उसके पूर्व ही निमेष मात्र में बुझा दिया ॥103॥ तदनंतर लक्ष्मण ने रावण पर पाप नाम का शस्त्र छोड़ा सो उधर से रावण ने धर्म नामक शस्त्र के प्रयोग से उसका निवारण कर दिया ॥104॥ तत्पश्चात् लक्ष्मण ने इंधन नामक शस्त्र का प्रयोग किया जिसे रावण ने इंधन नामक शस्त्र से ही निरर्थक कर दिया ॥105॥ तदनंतर रावण ने फल और फूलों की वर्षा करने वाले वृक्षों के समूह से आकाश को अत्यंत व्याप्त कर दिया ॥106॥ तब लक्ष्मण ने आकाश को अंधकार युक्त करने वाले तामस बाणों के समूह से रावण को आच्छादित कर दिया ॥107॥ तदनंतर रावण ने सहस्रकिरण अस्त्र के द्वारा तामस अस्त्र को नष्ट कर जिसमें फनों का समूह उठ रहा था ऐसा दंदशूक अस्त्र चलाया ॥108॥ तत्पश्चात् इधर से लक्ष्मण ने गरुड़ बाण चलाकर उस दंदशूक अस्त्र का निराकरण कर दिया जिससे आकाश ऐसा हो गया मानो स्वर्ण की कांति से ही भर गया हो ॥109॥ तदनंतर लक्ष्मण ने प्रलयकाल के मेघ के समान शब्द करने वाला तथा विषरूपी अग्नि के कणों से दुःसह उरगास्त्र छोड़ा॥110॥ जिसे धीर वीर रावण ने वर्हणास्त्र के प्रयोग से दूर कर दिया और उसके बदले जिसका दूर करना अशक्य था ऐसा विघ्नविनाशक नाम का शस्त्र छोड़ा ॥111॥ तदनंतर इच्छित वस्तुओं में विघ्न डालने वाले उस विघ्नविनाशक शस्त्र के छोड़ने पर लक्ष्मण देवोपनीत शस्त्रों के प्रयोग करने में मोह को प्राप्त हो गये अर्थात् उसे निवारण करने के लिए कौन शस्त्र चलाना चाहिये इसका निर्णय नहीं कर सके ॥112॥ तब वे केवल वज्रमय दंडों से युक्त बाणों को ही अधिक मात्रा में चलाते रहे और रावण भी उस दशा में स्वाभाविक बाणों से ही युद्ध करता रहा ॥113॥ उस समय लक्ष्मण और रावण के बीच कान तक खींचे बाणों से ऐसा भयंकर युद्ध हुआ जैसा कि पहले त्रिपृष्ठ और अश्वग्रीव में हुआ था ॥114॥

गौतम स्वामी कहते हैं कि जब प्रेरणा देने वाले पूर्वोपार्जित पुण्य-पापकर्म उदय को प्राप्त होते हैं तब मनुष्य उन्हीं के अनुरूप कार्य को सिद्ध अथवा असिद्ध करने वाले फल को प्राप्त होते हैं ॥115॥ जो अत्यधिक क्रोध की अधीनता को प्राप्त हैं और जिन्होंने अपना चित्त प्रारंभ किये हुए कार्य की सिद्धि में लगा दिया है ऐसे मनुष्य न तीव्र शस्त्र को गिनते हैं, न अग्नि को गिनते हैं, न सूर्य को गिनते हैं और न वायु को ही गिनते हैं॥116॥

इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराण में रावण और लक्ष्मण के युद्ध का वर्णन करने वाला चौहत्तरवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥74॥