कथा :
अथानंतर जिन्हें चक्ररत्न उत्पन्न हुआ था ऐसे लक्ष्मण सुंदर को देखकर विद्याधर राजाओं ने हर्षित हो उनका इस प्रकार अभिनंदन किया ॥1॥ वे कहने लगे कि पहले भगवान अनंतवीर्य स्वामी ने जिस आठवें नारायण का कथन किया था यह वही उत्पन्न हुआ है । चक्ररत्न इसके हाथ में आया है । यह महाकांतिमान, अत्युत्तम शरीर का धारक और श्रीमान है तथा इसके बल का वर्णन करना अशक्य है ॥2-3॥ और यह राम, आठवां बलभद्र है जिसके रथ को खड़ी जटाओं को धारण करने वाले तथा सूर्य के समान देदीप्यमान सिंह खींचते हैं ॥4॥ जिसने रण में मय नामक महादैत्य को बंदीगृह में भेजा था तथा जिसके हाथ में यह हल रूपी रत्न अत्यंत शोभा देता है ॥5॥ ये दोनों ही पुरुषोत्तम पुण्य के प्रभाव से बलभद्र और नारायण हुए हैं तथा परम प्रीति से युक्त हैं॥ 6॥ तदनंतर सुदर्शनचक्र को लक्ष्मण के हाथ में स्थित देख, राक्षसाधिपति रावण इस प्रकार की चिंता को प्राप्त हुआ ॥7॥ वह विचार करने लगा कि उस समय वंदनीय अनंतवीर्य केवली ने जो दिव्यध्वनि में कहा था जान पड़ता है कि वही यह कर्मरूपी वायु से प्रेरित हो आया है ॥8॥ जिसका छत्र देख विद्याधर राजा भयभीत हो जाते थे, बड़ी-बड़ी सेनाएं छत्र तथा पताकाएं फेंक विनाश को प्राप्त हो जाती थीं तथा समुद्र का जल ही जिसका वस्त्र है और हिमालय तथा विंध्ययाचल जिसके स्तन हैं ऐसी तीन खंड की वसुधा दासी के समान जिसकी आज्ञाकारिणी थी ॥6-10॥ वही मैं आज युद्ध में एक भूमिगोचरी के द्वारा पराजित होने के लिए किस प्रकार देखा गया हूँ ? अहो ! यह बड़ी कष्टकर अवस्था है ? यह आश्चर्य भी देखो ॥11॥ कुलटा के समान चेष्टा को धारण करने वाली इस राजलक्ष्मी को धिक्कार हो यह पापी मनुष्यों का सेवन करने के लिए चिर परिचित पुरुषों को एक साथ छोड़ देती है ॥12॥ ये पंचेंद्रियों के भोग किंपाक फल के समान परिपाक काल में अत्यंत विरस हैं, अनंत दुःखों का संसर्ग कराने वाले हैं और साधुजनों के द्वारा निंदित हैं॥ 13॥ वे संसार श्रेष्ठ भरतादि पुरुष धन्य हैं जो चक्ररत्न से सहित निष्कंटक विशाल राज्य को विष मिश्रित अन्न के समान छोड़कर जिनेंद्र संबंधी व्रत को प्राप्त हुए तथा रत्नत्रय की आराधना कर परमपद को प्राप्त हुए ॥14-15॥ मैं दीन पुरुष संसार वृद्धि का अतिशय कारण जो बलवान मोहकर्म है उसके द्वारा पराजित हुआ हूँ । ऐसी चेष्टा को धारण करने वाले मुझ को धिक्कार है ॥16॥ अथानंतर जिन्हें चक्ररत्न उत्पन्न हुआ था ऐसे विशाल तेज के धारक लक्ष्मण ने विभीषण का मुख देखकर कहा कि हे विद्याधरों के पूज्य ! यदि अब भी तुम सीता को सौंपकर यह वचन कहो कि मैं भी रामदेव के प्रसाद से जीवित हूँ तो तुम्हारी यह लक्ष्मी ज्यों की त्यों अवस्थित है क्योंकि सत्पुरुष मान भंग करके ही कृतकृत्यता को प्राप्त हो जाते हैं ॥17-19॥ तब मंद हास्य करने वाले रावण ने लक्ष्मण से कहा कि अहो ! तुझ क्षुद्र का यह अकारण गर्व करना व्यर्थ है । ॥20॥ अरे नीच ! मैं आज तुझे जो दशा दिखाता हूँ उसका अनुभव कर । मैं वह रावण ही हूँ और तू वही भूमिगोचरी है ॥21॥ तब लक्ष्मण ने कहा कि इस विषय में बहुत कहने से क्या लाभ है ? मैं सब तरह से तुम्हें मारने वाला नारायण उत्पन्न हुआ हूँ॥ 22॥ तदनंतर रावण ने व्यंगपूर्ण चेष्टा बनाते हुए कहा कि यदि इच्छा मात्र से नारायण बन रहा है तो फिर इच्छामात्र से इंद्रपना क्यों नहीं प्राप्त कर लेता॥ 23॥ पिता ने तुझे घर से निकाला जिससे दुःखी होता हुआ वन-वन में भटकता रहा । अब निर्लज्ज हो नारायण बनने चला है सो तेरा नारायणपना मैं खूब जानता हूँ ॥24॥ अथवा तू नारायण रह अथवा जो कुछ तेरे मन में हो सो बन जा परंतु मैं लगे हाथ तेरे मनोरथ को भंग करता हूँ ॥25॥ तू इस अलातचक्र से कृत-कृत्यता को प्राप्त हुआ है सो ठीक ही है क्योंकि क्षुद्र जंतुओं को दुष्ट वस्तु से भी महान् उत्सव होता है॥26॥ अथवा अधिक कहने से क्या ? मैं आज तुझे इन पापी विद्याधरों के साथ चक्र के साथ और वाहन के साथ सीधा पाताल भेजता हूँ ॥27॥ यह वचन सुन नूतन नारायण-लक्ष्मण ने क्रोधवश घुमाकर रावण की ओर चक्ररत्न फेंका ॥28॥ उस समय वह चक्र वज्र को जन्म देने वाले मेघसमूह की घोर गर्जना के समान भयंकर तथा प्रलयकालीन सूर्य के समान कांति का धारक था ॥26॥ जिस तरह पूर्व में, नारायण के द्वारा चलाये हुए चक्र को रोकने के लिए हिरण्यकशिपु उद्यत हुआ था उसी प्रकार क्रोध से भरा रावण बाणों के द्वारा उस चक्र को रोकने के लिए उद्यत हुआ ॥30॥ यद्यपि उसने तीक्ष्ण दंड और वेगशाली वज्र के द्वारा भी उसे रोकने का प्रयत्न किया तथापि पुण्य क्षीण हो जाने से वह कुटिल चक्र रुका नहीं किंतु उसके विपरीत समीप ही आता गया ॥31॥ तदनंतर रावण ने चंद्रहास खड्ग खींचकर समीप आये हुए चक्ररत्न पर प्रहार किया सो उसकी टक्कर से प्रचुर मात्रा में निकलने वाले तिलगों से आकाश व्याप्त हो गया ॥32॥ तत्पश्चात् उस चक्ररत्न ने सन्मुख खड़े हुए शोभाशाली रावण का वज्र के समान वक्षःस्थल विदीर्ण कर दिया ॥33॥ जिससे पुण्यकर्म क्षीण होने पर प्रलय काल की वायु से प्रेरित विशाल अंजनगिरि के समान रावण पृथिवी पर गिर पड़ा ॥34॥ ओंठों को डसने वाला रावण पृथिवी पर पड़ा ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो कामदेव ही सो रहा हो अथवा स्वर्ग से कोई देव ही आकर च्युत हुआ हो ॥35॥ स्वामी को पड़ा देख समुद्र के समान शब्द करने वाली जीर्ण-शीर्ण सेना छत्र तथा पताकाएँ फेंक चौड़ी हो गई अर्थात् भाग गई ॥36॥ रथ हटाओ, मार्ग देओ, घोड़ा इधर ले जाओ, यह पीछे से हाथी आ रहा है, विमान को बगल में करो, अहो ! यह स्वामी गिर पड़ा है, बड़ा कष्ट हुआ इस प्रकार वार्तालाप करती हुई वह सेना विह्वल हो भाग खड़ी हुई ॥37-38॥ तदनंतर जो परस्पर एक दूसरे पर पड़ रहे थे, जो महाभय से कंपायमान थे, और जिनके मस्तक पृथिवी पर पड़ रहे थे ऐसे इन शरणहीन मनुष्यों को देखकर सुग्रीव, भामंडल तथा हनुमान् आदि ने "नहीं डरना चाहिए" "नहीं डरना चाहिए" आदि शब्द कहकर सांत्वना प्राप्त कराई ॥36-40॥ जिन्होंने सब ओर ऊपर वस्त्र का छोर घुमाया था ऐसे उन सुग्रीव आदि महापुरुषों के, कानों के लिए रसायन के समान मधुर वचनों से सेना सांत्वना को प्राप्त हुई ॥41॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! समुद्रांत पृथिवी में अनेक आश्चर्य के कार्य करने वाली उस प्रकार की लक्ष्मी का उपभोग कर रावण, पुण्यकर्म का क्षय होने पर इस दुर्दशा को प्राप्त हुआ ॥42॥ इसलिए अत्यंत चंचल एवं पुण्य प्राप्ति की आशा से रहित इस लक्ष्मी को धिक्कार है । हे भव्यजनो ! ऐसा मन में विचारकर सूर्य के तेज को जीतने वाले तपोधन होओ― तप के धारक बनो ॥43॥ इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराण में रावण के वध का कथन करने वाला छिहतरवां पर्व समाप्त हुआ ॥76॥ |