
कथा :
अथानंतर किसी दिन हनुमान, सुग्रीव तथा विभीषण आदि प्रमुख राजाओं ने श्रीराम से प्रार्थना की कि हे देव ! प्रसन्न होओ, सीता अन्य देश में दुःख से स्थित है इसलिए लाने की आज्ञा की जाय ॥1-2॥ तब लंबी और गरम श्वास ले तथा क्षण भर कुछ विचार कर भाषा से दिशाओं को मलिन करते हुए श्रीराम ने कहा कि यद्यपि मैं उत्तम हृदय को धारण करने वाली सीता के शील को निर्दोष जानता हूँ तथापि वह यतश्च लोकापवाद को प्राप्त है अतः उसका मुख किस प्रकार देखूं ॥3-4॥ पहले सीता पृथिवीतल पर समस्त लोगों को विश्वास उत्पन्न करावे उसके बाद ही उसके साथ हमारा निवास हो सकता है अन्य प्रकार नहीं ॥5॥ इसलिए इस संसार में देशवासी लोगों के साथ समस्त राजा तथा समस्त विद्याधर बड़े प्रेम से निमंत्रित किये जावें ॥6॥ उन सब के समक्ष अच्छी तरह शपथ कर सीता इंद्राणी के समान निष्कलंक जन्म को प्राप्त हो ॥7॥ 'एवमस्तु'―'ऐसा ही हो' इस प्रकार कह कर उन्होंने बिना किसी विलंब के उक्त बात स्वीकृत की; फलस्वरूप नाना देशों और समस्त दिशाओं से राजा लोग आ गये ॥8॥ बालक वृद्ध तथा स्त्रियों से सहित नाना देशों के लोग महाकौतुक से युक्त होते हुए अयोध्या नगरी को प्राप्त हुए ॥9॥ सूर्य को नहीं देखने वाली स्त्रियाँ भी जब संभ्रम से सहित हो वहाँ आई थीं तब साधारण अन्य मनुष्य के विषय में तो कहा ही क्या जावे ? ॥10॥ अत्यंत वृद्ध अनेक लोगों का हाल जानने में निपुण जो राष्ट्र के श्रेष्ठ प्रसिद्ध पुरुष थे वे तथा अन्य सब लोग वहाँ एकत्रित हुए ॥11॥ उस समय परम भीड़ को प्राप्त हुए जन समूह ने समस्त दिशाओं में समस्त पृथिवी को मार्ग रूप में परिणत कर दिया था ॥12॥ लोगों के समूह घोड़े, रथ, बैल, पालकी तथा नाना प्रकार के अन्य वाहनों के द्वारा वहाँ आये थे ॥13। ऊपर विद्याधर आ रहे थे और नीचे भूमिगोचरी, इसलिए उन सबसे उस समय यह जगत् ऐसा जान पड़ता था मानो जंगम ही हो अर्थात् चलने फिरने वाला ही हो ॥14॥ क्रीड़ा-पर्वतों के समान लंबे चौड़े मंच तैयार किये गये, उत्तमोत्तम विशाल शालाएँ, कपड़े के उत्तम तंबू , तथा जिनकी अनेक गाँव समा जावें ऐसे खंभों पर खड़े किये गये, बड़े बड़े झरोखों से युक्त तथा विशाल मंडपों से सुशोभित महल बनवाये गये ॥15-16॥ उन सब स्थानों में स्त्रियाँ स्त्रियों के साथ और पुरुष पुरुषों के साथ, इस प्रकार शपथ देखने के इच्छुक सब लोग यथायोग्य ठहर गये ॥17॥ राजाधिकारी पुरुषों ने आगंतुक मनुष्यों के लिए शयन आसन तांबूल भोजन तथा माला आदि के द्वारा सब प्रकार की सुविधा पहुँचाई थी ॥18॥ तदनंतर राम की आज्ञा से भामंडल, विभीषण, हनुमान्, सुग्रीव, विराधित और रत्नजटी आदि बड़े-बड़े बलवान् राजा क्षणभर में आकाश मार्ग से पौंडरीकपुर गये ॥16-20॥ वे सब, सेना को बाहर ठहरा कर अंतरंग लोगों के साथ सूचना देकर तथा अनुमति प्राप्त कर सीता के स्थान में प्रविष्ट हुए ॥21॥ प्रवेश करते ही उन्होंने सीतादेवी का जय जयकार किया, पुष्पांजलि बिखेरी, हाथ जोड़ मस्तक से लगा चरणों में प्रणाम किया, सुंदर मणिमय फर्श से सुशोभित पृथिवी पर बैठे और सामने बैठ विनय से नम्रीभूत हो क्रमपूर्वक वार्तालाप किया ॥22-23॥ तदनंतर संभाषण करने के बाद अत्यंत गंभीर सीता, आंसुओं से नेत्रों को आच्छादित करती हुई अधिकांश आत्म निंदा रूप वचन धीरे धीरे बोली ॥24॥ उसने कहा कि दुर्जनों के वचन रूपी दावानल से जले हुए मेरे अंग इस समय क्षीरसागर के जल से भी शांति को प्राप्त नहीं हो रहे हैं ॥25॥ तब उन्होंने कहा कि हे देवि ! हे भगवति ! हे उत्तमे ! हे सौम्ये ! इस समय शोक छोड़ो और मन को प्रकृतिस्थ करो ॥26॥ संसार में ऐसा कौन प्राणी है जो तुम्हारे विषय में अपवाद करने वाला हो। वह कौन है जो पृथिवी चला सके और अग्निशिखा का पान कर सके ? ॥27॥ सुमेरु पर्वत को उठाने का किसमें साहस है ? चंद्रमा और सूर्य के शरीर को कौन मूर्ख जिह्वा से चाटता है ? ॥28॥ तुम्हारे गुण रूपी पर्वत को चलाने के लिए कौन समर्थ है ? अपवाद से किसकी जिह्वा के हजार टुकड़े नहीं होते ? ॥29॥ हम लोगों ने भरत क्षेत्र की भूमि में किंकरों के समूह यह कह कर नियुक्त कर रक्खे हैं कि जो भी देवी की निंदा करने में तत्पर हो उसे मार डाला जाय ॥30॥ और जो पृथिवी में अत्यंत नीच होने पर भी सीता की गुण कथा में तत्पर हो उस विनीत के घर में रत्नवर्षा की जाय ॥31॥ हे देवि ! धान्य रूपी संपत्ति की इच्छा करने वाले खेत के पुरुष अर्थात् कृषक लोग अनुरागवश धान्य की राशियों में तुम्हारी स्थापना करते हैं ? भावार्थ― लोगों का विश्वास है कि धान्य राशि में सीता की स्थापना करने से अधिक धान्य उत्पन्न होता है ॥32॥ हे देवि ! रामचंद्र जी ने तुम्हारे लिए यह पुष्पक विमान भेजा है सो प्रसन्न हो कर इस पर चढ़ा जाय और अयोध्या की ओर चला जाय ॥33॥ जिस प्रकार लता के बिना वृक्ष, दीप के बिना घर और चंद्रमा के बिना आकाश सुशोभित नहीं होते उसी प्रकार तुम्हारे बिना राम, अयोध्या नगरी और देश सुशोभित नहीं होते ॥34॥ हे मैथिलि ! आज शीघ्र ही स्वामी का पूर्णचंद्र के समान मुख देखो । हे कोविदे ! तुम्हें पति वचन अवश्य स्वीकृत करना चाहिए ॥35॥ इस प्रकार कहने पर सैकड़ों उत्तम स्त्रियों के परिकर के साथ सीता पुष्पक विमान पर आरूढ हो गई और बड़े वैभव के साथ वेग से आकाशमार्ग से चली ॥36॥ अथानंतर जब उसे अयोध्यानगरी दिखी उसी समय सूर्य अस्त हो गया अतः उसने चिंतातुर हो महेंद्रोदय नामक उद्यान में रात्रि व्यतीत की ॥37॥ राम के साथ होने पर जो उद्यान पहले उसके लिए अत्यंत मनोहर जान पड़ता था वही उद्यान पिछली घटना स्मृत होने पर उसके लिए अयोग्य जान पड़ता था ॥38॥ अथानंतर सीता की शुद्धि के अनुराग से ही मानों जब सूर्य उदित हो चुका, किंकरों के समान किरणों से जब समस्त संसार अलंकृत हो गया और शपथ से दुर्वाद के समान जब अंधकार भयभीत हो क्षय को प्राप्त हो गया तब सीता राम के समीप चली ॥39-40॥ मन की अशांति से जिसकी प्रभा नष्ट हो गई थी ऐसी हस्तिनी पर चढ़ी सीता, सूर्य के प्रकाश से आलोकित, पर्वत के शिखर पर स्थित महौषधि के समान यद्यपि निष्प्रभ थी तथापि उत्तम स्त्रियों से घिरी, उच्च भावना वाली दुबली पतली सीता, ताराओं से घिरी चंद्रमा की कला के समान अत्यधिक सुशोभित हो रही थी॥41-42॥ तदनंतर जिसे सब लोग वंदना कर रहे थे तथा जिसकी सब स्तुति कर रहे थे ऐसी धीर वीरा सीता ने विशाल, गंभीर एवं विनय से स्थित सभा में प्रवेश किया ॥43॥ विषाद, विस्मय, हर्ष और क्षोभ से सहित मनुष्यों का अपार सागर बार-बार यह शब्द कह रहा था कि वृद्धि को प्राप्त होओ, जयवंत होओ और समृद्धि से संपन्न होओ ॥44॥ अहो ! उज्ज्वल कार्य करने वाली श्रीमान् राजा जनक की पुत्री सीता का रूप धन्य है ? धैर्य धन्य है, पराक्रम धन्य है, उसकी कांति धन्य है, महानुभावता धन्य है, और समागम से सूचित होने वाली इसकी निष्कलंकता धन्य है ॥45-46॥ इस प्रकार उल्लसित शरीरों को धारण करने वाले मनुष्यों और स्त्रियों के मुखों से दिगदिगंत को व्याप्त करने वाले शब्द निकल रहे थे ॥47॥ आकाश में विद्याधर और पृथिवी में भूमिगोचरी मनुष्य, अत्यधिक कौतुक और टिमकार रहित नेत्रों से युक्त थे ॥48॥ अत्यधिक हर्ष से संपन्न कितनी ही स्त्रियाँ तथा कितने ही मनुष्य राम को टकटकी लगाये हुए उस प्रकार देख रहे थे जिस प्रकार कि देव इंद्र को देखते हैं ॥49॥ कितने ही लोग राम के समीप में स्थित लवण और अंकुश को देखकर यह कह रहे थे कि अहो! ये दोनों सुकुमार कुमार इनके ही सदृश हैं ॥50॥ कितने ही लोग शत्रुका क्षय करने में समर्थ लक्ष्मण को, कितने ही शत्रुघ्न को, कितने ही भामंडल को, कितने ही हनूमान् को, कितने ही विभीषण को, कितने ही विराधित को और कितने ही सुग्रीव को देख रहे थे ॥51-52॥ कितने ही आश्चर्य से चकित होते हुए जनकसुता को देख रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि वह क्षण मात्र में अन्यत्र विचरण करने वाले नेत्रों की मानो वसति ही थी ॥53॥ तदनंतर जिसका चित्त अत्यंत आकुल हो रहा था ऐसी सीता के पास जाकर तथा राम को देख कर माना था कि अब वियोगरूपी सागर का अंत आ गया है ॥54॥ आई हुई सीता के लिए लक्ष्मण ने अर्घ दिया तथा राम के समीप बैठे हुए राजाओं ने हड़बड़ाकर उसे प्रणाम किया ॥55॥ तदनंतर वेग से सामने आती हुई सीता को देख कर यद्यपि राम अक्षोभ्य पराक्रम के धारक थे तथापि उनका हृदय कांपने लगा ॥56॥ वे विचार करने लगे कि मैंने तो इसे हिंसक जंतुओं से भरे वन में छोड़ दिया था फिर मेरे नेत्रों को चुराने वाली यह यहाँ कैसे आ गई ? ॥57। अहो ! यह बड़ी निर्लज्ज है तथा महाशक्ति से संपन्न है जो इस तरह निकाली जाने पर भी विराग को प्राप्त नहीं होती ॥58॥ तदनंतर राम की चेष्टा देख, शून्यहृदया सीता यह सोचकर विषाद करने लगी कि मैंने विरह रूपी सागर अभी पार नहीं कर पाया है ॥59॥ विरह रूपी सागर के तट को प्राप्त हुआ मेरा मनरूपी जहाज निश्चित ही विध्वंस को प्राप्त हो जायगा-नष्ट हो जायगा ऐसी चिंता से वह व्याकुल हो उठी ॥60॥ 'क्या करना चाहिए' इस विषयका विचार करने में मूढ़ सीता, पैर के अंगूठे से भूमिको कुरेदती हुई राम के समीप खड़ी थी ॥61॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि उस समय राम के आगे खड़ी सीता ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो शरीरधारिणी स्वर्ग की लक्ष्मी ही हो अथवा इंद्र के आगे मूर्तिमती लक्ष्मी ही खड़ी हो ॥62॥ तदनंतर राम ने कहा कि सीते ! सामने क्यों खड़ी है ? दूर हट, मैं तुम्हें देखने के लिए समर्थ नहीं हूँ ॥63॥ मेरे नेत्र मध्याह्न के समय सूर्य की किरण को अथवा आशीविष-सर्प के मणि की शिखा को देखने के लिए अच्छी तरह उत्साहित हैं परंतु तुझे देखने के लिए नहीं ॥64॥ तू रावण के भवन में कई मास तक उसके अंतःपुर से आवृत्त होकर रही फिर भी मैं तुम्हें ले आया सो यह सब क्या मेरे लिए उचित था ? ॥65॥ तदनंतर सीता ने कहा कि तुम्हारे समान निष्ठुर कोई दूसरा नहीं है। जिस प्रकार एक साधारण मनुष्य उत्तम विद्या का तिरस्कार करता है उसी प्रकार तुम मेरा तिरस्कार कर रहे हो ॥66॥ हे वक्रहृदय ! दोहलाके बहाने वन में ले जाकर मुझ गर्भिणी को छोड़ना क्या तुम्हें उचित था ? ॥67॥ यदि मैं वहाँ कुमरण को प्राप्त होती तो इससे तुम्हारा क्या प्रयोजन सिद्ध होता ? केवल मेरी ही दुर्गति होती ॥68॥ यदि मेरे ऊपर आपका थोड़ा भी सद्भाव होता अथवा थोड़ी भी कृपा होती तो मुझे शांतिपूर्वक आर्यिकाओं की वसति के पास ले जाकर क्यों नहीं छोड़ा ॥69॥ यथार्थ में अनाथ, अबंधु, दरिद्र तथा अत्यंत दुःखी मनुष्यों का यह जिनशासन ही परम शरण है ॥70॥ हे राम ! यहाँ अधिक कहने से क्या ? इस दशा में भी आप प्रसन्न हों और मुझे आज्ञा दें। इस प्रकार कह कर वह अत्यंत दुःखी हो रोने लगी ॥71॥ तदनंतर राम ने कहा कि हे देवि ! मैं तुम्हारे निर्दोष शील, पातिव्रत्यधर्म एवं अभिप्राय की उत्कृष्ट विशुद्धता को जानता हूँ किंतु यतश्च तुम लोगों के द्वारा इस प्रकट भारी अपवाद को प्राप्त हुई हो अतः स्वभाव से ही कुटिल चित्त को धारण करने वाली इस प्रजा को विश्वास दिलाओ । इसकी शंका दूर करो ॥72-73॥ तब सीता ने हर्ष युक्त हो 'एवमस्तु' कहते हुए कहा कि मैं पाँचों ही दिव्य शपथों से लोगों को विश्वास दिलाती हूँ॥74॥ उसने कहा कि हे नाथ ! मैं उस कालकूट को पी सकती हूँ जो विषों में सबसे अधिक विषम है तथा जिसे सूंघकर आशीविष सर्प भी तत्काल भस्मपने को प्राप्त हो जाता है ॥75॥ मैं तुला पर चढ़ सकती हूँ अथवा भयंकर अग्नि की ज्वाला में प्रवेश कर सकती हूँ अथवा जो भी शपथ आपको अभीष्ट हो उसे कर सकती हूँ ॥76॥ क्षणभर विचारकर राम ने कहा कि अच्छा अग्नि में प्रवेश करो। इसके उत्तर में सीता ने बड़ी प्रसन्नता से कहा कि हाँ, प्रवेश करती हूँ ॥77॥ 'इसने मृत्यु स्वीकृत कर ली' यह विचारकर नारद विदीर्ण हो गया और हनूमान् आदि राजा शोक के भार से पीड़ित हो उठे ॥78॥ 'माता अग्नि में प्रवेश करना चाहती है।‘ यह निश्चयकर लवण और अंकुश ने बुद्धि में अपनी भी उसी गति का विचार कर लिया अर्थात् हम दोनों भी अग्नि में प्रवेश करेंगे ऐसा उन्होंने मन में निश्चय कर लिया ॥79॥ तदनंतर महाप्रभाव से संपन्न एवं बहुत भारी हर्ष को धारण करने वाले सिद्धार्थ क्षुल्लक ने भुजा ऊपर उठाकर कहा कि सीता के शीलव्रत का देव भी पूर्णरूप से वर्णन नहीं कर सकते फिर क्षुद्र प्राणियों की तो कथा ही क्या है ? ॥80-811॥ हे राम ! मेरु पाताल में प्रवेश कर सकता है और समुद्र सूख सकते हैं परंतु सीता के शीलव्रत में कुछ चंचलता उत्पन्न नहीं की जा सकती ॥1॥ चंद्रमा सूर्यपने को प्राप्त हो सकता है और सूर्य चंद्रपने को प्राप्त कर सकता है परंतु सीता का अपवाद किसी भी तरह सत्यता को प्राप्त नहीं हो सकता ॥82-83॥ मैं विद्याबल से समृद्ध हूँ और और मैंने पाँचों मेरु पर्वतों पर स्थित शाश्वत-अकृत्रिम चैत्यालयों में जो जिन-प्रतिमाएँ हैं उनकी वंदना को है। हे राम ! मैं जोर देकर कहता हूँ कि यदि सीता के शील में थोड़ी भी कमी है तो मेरी वह दुर्लभ वंदना निष्फलता को प्राप्त हो जाय ॥84-85॥ मैंने वस्त्र खंड धारण कर कई हजार वर्ष तक तप किया सो यदि ये तुम्हारे पुत्र न हों तो मैं उस तप की शपथ करता हूँ अर्थात् तप की शपथ पूर्वक कहता हूँ कि ये तुम्हारे ही पुत्र हैं ॥86॥ इसलिए हे बुद्धिमन् राम ! जिसमें भयंकर ज्वालावली रूप लहरें उठ रही हैं तथा जो सबका संहार करने वाली है ऐसी अग्नि में सीता प्रवेश नहीं करे ॥87॥ क्षुल्लक की बात सुन आकाश में विद्याधर और पृथ्वी पर भूमिगोचरी लोग 'अच्छा कहा-अच्छा कहा' इस प्रकारकी जोरदार आवाज़ लगाते हुए बोले कि 'हे देव प्रसन्न होओ, प्रसन्न होओ, सौम्यता को प्राप्त होओ, हे नाथ ! हे राम ! हे राम! मनमें अग्नि का विचार मत करो ॥88-89॥ सीता सती है, सीता सती है, इस विषय में अन्यथा संभावना नहीं हो सकती। महापुरुषों की पत्नियों में विकार नहीं होता ॥90॥ इस प्रकार समस्त दिशाओं के अंतराल को व्याप्त करने वाले, तथा अश्रुओं के भार से गद्गद अवस्था को प्राप्त हुए शब्द, संक्षुभित जन सागर से निकलकर सब ओर फैल रहे थे ॥91॥ तीव्र शोक से युक्त समस्त प्राणियों के आंसुओं की बड़ी-बड़ी बूंदें महान कलकल शब्दों के साथ-साथ निकलकर नीचे पड़ रही थीं ॥92॥ तदनंतर राम ने कहा कि हे मानवो ! यदि इस समय आप लोग इस तरह दया प्रकट करने में तत्पर हैं तो पहले आप लोगों ने अपवाद क्यों कहा था ? ॥63॥ इस प्रकार लोगों के कथन की अपेक्षा न कर जिन्होंने मात्र विशुद्धता में मन लगाया था ऐसे राम ने परम दृढ़ता का आलंबन कर किंकरों को आज्ञा दी कि ॥94॥ यहाँ शीघ्र ही दो पुरुष गहरी और तीन सौ हाथ चौड़ी चौकोन पृथ्वी प्रमाण के अनुसार खोदो और ऐसी वापी बनाकर उसे कालागुरु तथा चंदन के सूखे और बड़े मोटे ईंधन से परिपूर्ण करो। तदनंतर उसमें बिना किसी विलंब के ऐसी अग्नि प्रज्वलित करो कि जिसमें अत्यंत तीक्ष्ण ज्वालाएँ निकल रही हों तथा जो शरीरधारी साक्षात् मृत्यु के समान जान पड़ती हो ॥95-97॥ तदनंतर बड़े-बड़े कुदाले जिनके हाथ में थे तथा जो यमराज के सेवकों से भी कहीं अधिक थे ऐसे सेवकों ने 'जो आज्ञा' कहकर राम की आज्ञानुसार सब काम कर दिया ॥98॥ अथानंतर जिस समय राम और सीता का पूर्वोक्त संवाद हुआ था तथा किंकर लोग जिस समय अग्नि प्रज्वालन का भयंकर कार्य कर रहे थे उसी समय से लगी हुई रात्रि में सर्वभूषण मुनिराज महेंद्रोदय उद्यान की भूमि में उत्तम ध्यान कर रहे थे सो पूर्व वैर के कारण विद्युद्वक्त्रा नाम की राक्षसी ने उनपर महान उपसर्ग किया ॥99-101॥ तदनंतर राजा श्रेणिक ने गौतमस्वामी से इनके पूर्व वैर का संबंध पूछा सो गणधर भगवान् बोले कि हे नरेंद्र ! सुनो ॥102॥ विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी में सर्वत्र सुशोभित गुंजा नामक नगर में एक सिंहविक्रम नामक राजा रहता था। उसकी रानी का नाम श्री था और उन दोनों का सकलभूषण नाम का पुत्र था । सकलभूषण की आठ सौ स्त्रियाँ थीं उनमें किरणमंडला प्रधान स्त्री थी ॥103-104॥ शुद्ध हृदय को धारण करने वाली किरणमंडला ने किसी समय सपत्नियों के कहने पर चित्रपट में अपने मामा के पुत्र हेमशिख का रूप लिखा उसे देख राजा सहसा परम कोप को प्राप्त हुआ परंतु अन्य पत्नियों के कहने पर वह पुनः प्रसन्नता को प्राप्त हो गया ॥105-106॥ पतिव्रता किरणमंडला किसी समय हर्ष सहित अपने पति के साथ सोई हुई थी सो सोते समय प्रमाद के कारण उसने बार- बार हेमरथ का नाम उच्चारण किया जिसे सुनकर राजा अत्यंत कुपित हुआ और कुपित होकर उसने वैराग्य धारण कर लिया । उधर किरणमंडला भी साध्वी हो गई और मरकर विद्युद्वक्त्रा नाम की राक्षसी हुई ॥107-108॥ जब सकलभूषण मुनि भिक्षा के लिए भ्रमण करते थे तब वह दुष्ट राक्षसी कुपित हो अंतराय करने में तत्पर हो जाती थी। कभी वह मत्त हाथी का बंधन तोड़ देती थी, कभी घर में आग लगा देती थी, कभी रज की वर्षा करने लगती थी, कभी घोड़ा अथवा बैल बनकर उनके सामने आ जाती थी और कभी मार्ग को कंटकों से आवृत कर देती थी॥109-110॥ कभी प्रतिमायोग से विराजमान मुनिराज को, घर में संधि फोड़कर उसके आगे लाकर रख देती थी और यह कहकर पकड़ लेती थी कि यही चोर है तब हल्ला करते हुए लोगों को भीड़ उन्हें घेर लेती थी, कुछ परमार्थ से विमुख लोग उनका अनादर कर उसके बाद उन्हें छोड़ देते थे ॥111-112॥ कभी आहार कर जब बाहर निकलने लगते तब आहार देने वाली स्त्री का हार इनके गले में बाँध देती और कहने लगती कि यह चोर है ॥113॥ इस प्रकार अत्यंत क्रूर हृदय को धारण करने वाली वह पापिनी राक्षसी निर्वेद से रहित हो सदा एक से बढ़कर उपसर्ग करती रहती थी ॥114॥ तदनंतर यही मुनिराज महेंद्रोदयनामा उद्यान में प्रतिमा योग से विराजमान थे सो उस राक्षसी ने पूर्व वैर के संस्कार से उन पर परम उपसर्ग किया ॥115॥ वह कभी वेताल बनकर कभी हाथी सिंह व्याघ्र तथा भयंकर सर्प होकर और कभी नाना प्रकार के गुणों से दिव्य स्त्रियों का रूप दिखाकर उपसर्ग किया ॥116॥ परंतु जब इन उपसर्गों से इनका मन विचलित नहीं हुआ तब इन मुनिराज को केवलज्ञान उत्पन्न हो गया ॥117॥ तदनंतर केवलज्ञान उत्पन्न होने की महिमा में जिनका मन लग रहा था ऐसे इंद्र आदि समस्त सुर असुर वहाँ आये ॥118॥ हाथी, सिंह, घोड़े, ऊँट, गधे, बड़े-बड़े व्याघ्र, अष्टापद, सामर, पक्षी, विमान, रथ, बैल, तथा अन्य-अन्य सुंदर वाहनों से आकाश को आच्छादित कर सब लोग अयोध्या की ओर आये। जिनके केश, वस्त्र तथा पताकाओं की पंक्तियाँ वायु से हिल रही थीं तथा जिनके मुकुट, कुंडल और हार की किरणों से आकाश प्रकाशमान हो रहा था ॥118-121॥ जो अप्सराओं के समूह से व्याप्त थे तथा जो अत्यंत हर्षित हो पृथिवीतल को अच्छी तरह देख रहे थे ऐसे देव लोग नीचे उतरे ॥122॥ तदनंतर सीता का वृत्तांत देख मेषकेतु नामक देव ने अपने इंद्र से कहा कि हे देवेंद्र ! जरा इस अत्यंत कठिन कार्य को भी देखो ॥123। हे नाथ ! देवों को भी जिसका स्पर्श करना कठिन है तथा जो महाभय का कारण है ऐसा यह सीता का उपसर्ग क्यों हो रहा है? सुशील एवं अत्यंत स्वच्छ हृदय को धारण करने वाली इस श्राविका के ऊपर यह दुरीक्ष्य उपद्रव क्यों हो रहा है ? ॥124-125॥ तदनंतर इंद्र ने कहा कि मैं सकलभूषण केवली की वंदना करने के लिए शीघ्रता से जा रहा हूँ इसलिए यहाँ जो कुछ करना योग्य हो वह तुम करो ॥126॥ इतना कहकर इंद्र महेंद्रोदय उद्यान के सन्मुख चला और यह मेषकेतु देव सीता के स्थान पर पहुँचा ॥127॥ वहाँ यह आकाशतल में सुमेरु के शिखर के समान कांति से युक्त दिशाओं को प्रकाशित करने लगा। विमान के शिखर पर स्थित हुआ ॥128॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि उस विमान की शिखर पर सूर्य के समान सुशोभित होने वाले उस मेषकेतु देव ने वहीं से सर्वजन मनोहारी राम को देखा ॥129॥ इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध श्रीरविषेणाचार्य द्वारा कथित श्रीपद्मपुराण में सकलभूषण के केवलज्ञानोत्सव में देवों के आगमन का वर्णन करने वाला एक सौ चौथा पर्व समाप्त हुआ ॥104॥ |