कथा :
अथानन्तर, ऊपर कही हुई श्री, ह्री आदि देवियाँ जिसकी सेवा करने के लिए सदा समीप में विद्यमान रहती हैं ऐसी माता मरुदेवी ने नव महीने व्यतीत होने पर भगवान् वृषभदेव को उत्पन्न किया ॥१॥ जिस प्रकार प्रातःकाल के समय पूर्व दिशा कमलों को विकसित करने वाले प्रकाशमान सूर्य को प्राप्त करती है उसी प्रकार मरुदेवी ने भी चैत्र कृष्ण नवमी के दिन सूर्योदय के समय उत्तराषाढ़ नक्षत्र और ब्रह्म नामक महायोग में मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानों से शोभायमान, बालक होने पर भी गुणों से वृद्ध तथा तीनों लोकों के एक मात्र स्वामी देदीप्यमान पुत्र को प्राप्त किया ॥२-३॥ तीन ज्ञानरूपी किरणों से शोभायमान, अतिशय कांति का धारक और नाभिराजरूपी उदयाचल से उदय को प्राप्त हुआ वह बालकरूपी सूर्य बहुत ही शोभायमान होता था ॥४॥ उस समय समस्त दिशाएँ स्वच्छता को प्राप्त हुई थीं और आकाश निर्मल हो गया था । ऐसा मालूम होता था मानो भगवान् के गुणों की निर्मलता का अनुकरण करने के लिए ही दिशा और आकाश स्वच्छता को प्राप्त हुए हों ॥५॥ उस समय प्रजा का हर्ष बढ़ रहा था, देव आश्चर्य को प्राप्त हो रहे थे और कल्पवृक्ष ऊँचें से प्रफुल्लित फूल बरसा रहे थे ॥६॥ देवों के दुन्दुभि बाजे बिना बजाये ही ऊँचा शब्द करते हुए बज रहे थे और कोमल, शीतल तथा सुगन्धित वायु धीरे-धीरे बह रही थी ॥७॥ उस समय पहाड़ों को हिलाती हुई पृथिवी भी हिलने लगी थी मानो सन्तोष से नृत्य ही कर रही हो और समुद्र भी लहरा रहा था मानो परम आनन्द को प्राप्त हुआ ॥८॥ तदनन्तर सिंहासन कम्पायमान होने से अवधिज्ञान जोड़कर इन्द्र ने जान लिया कि समस्त पापों को जीतने वाले जिनेन्द्रदेव का जन्म हुआ ॥९॥ आगामी काल में उत्पन्न होने वाले भव्य जीवरूपी कमलों को विकसित करने वाले श्री तीर्थंकररूपी सूर्य के उदित होते ही इन्द्र ने उनका जन्माभिषेक करने का विचार किया ॥१०॥ उस समय अकस्मात् सब देवों के आसन कम्पित होने लगे थे और ऐसे मालूम होते थे मानो उन देवों को बड़े संभ्रम के साथ ऊँचे सिंहासनों से नीचे ही उतार रहे हों ॥११॥ जिनके मुकुटों में लगे हुए मणि कुछ-कुछ हिल रहे हैं ऐसे देवों के मस्तक स्वयमेव नम्रीभूत हो गये थे और ऐसे मालूम होते मानो बड़े आश्रय से सुर, असुर आदि सबके गुरु भगवान् जिनेन्द्रदेव के जन्म की भावना ही कर रहे हों ॥१२॥ उस समय कल्पवासी, ज्योतिषी, व्यन्तर और भवनवासी देवों के घरों में क्रम से अपने-आप ही घण्टा, सिंहनाद, भेरी और शंखों के शब्द होने लगे थे ॥१३॥ उठी हुई लहरों से शोभायमान समुद्र के समान उन बाजों का गम्भीर शब्द सुनकर देवों ने जान लिया कि तीन लोक के स्वामी तीर्थंकर भगवान् का जन्म हुआ है ॥१४॥ तदनन्तर महासागर की लहरों के समान शब्द करती हुई देवों की सेनाएँ इन्द्र की आज्ञा पाकर अनुक्रम से स्वर्ग से निकलीं ॥१५॥ हाथी, घोड़े, रथ, गन्धर्व, नृत्य करने वाली, पियादे और बैल इस प्रकार इन्द्र की ये सात बड़ी-बड़ी सेनाएँ निकलीं ॥१६॥ तदनन्तर सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र ने इन्द्राणीसहित बड़े भारी (एक लाख योजन विस्तृत) ऐरावत हाथी पर चढ़कर अनेक देवों से परवृत हो प्रस्थान किया ॥१७॥ तत्पश्चात् सामानिक, त्रायस्त्रिंश, पारिषद, आत्मरक्ष और लोकपाल जाति के देवों ने उस सौधर्म इन्द्र को चारों ओर से घेर लिया अर्थात् उसके चारों ओर चलने लगे ॥१८॥ उस समय दुन्दुभि बाजों के गम्भीर शब्दों से तथा देवों के जय-जय शब्द के उच्चारण से उस देवसेना में बड़ा भारी कोलाहल हो रहा था ॥१९॥ उस सेना में आनन्दित हुए ही देव हँस रहे थे, कितने ही नृत्य कर रहे थे, कितने ही उछल रहे थे, कितने ही विशाल शब्द कर रहे थे, कितने ही आगे दौड़ते थे, और कितने ही गाते थे ॥२०। वे सब देव-देवेन्द्र अपने-अपने विमानों और पृथक-पृथक् वाहनों पर चढ़कर समस्त आकाशरूपी आँगन को व्याप्त कर आ रहे थे ॥२१॥ उन आते हुए देवों के विमान और वाहनों से व्याप्त हुआ आकाश ऐसा मालूम होता था मानो तिरसठ पटल वाले स्वर्ग से भिन्न किसी दूसरे स्वर्ग की ही सृष्टि कर रहा हो ॥२२॥ उस समय इन्द्र के शरीर की कान्तिरूपी स्वच्छ जल से भरे हुए आकाशरूपी सरोवर में अप्सरा के मन्द-मन्द हँसते हुए मुख, कमलों की शोभा विस्तृत कर रहे थे ॥२३॥ अथवा इन्द्र की सेनारूपी चञ्चल लहरों से भरे हुए आकाशरूपी समुद्र में ऊपर को सूंड किये हुए देवों के हाथी मगरमच्छों के समान सुशोभित हो रहे थे ॥२४॥ अनन्तर वे देवों की सेनाएँ क्रम-क्रम से बहुत ही शीघ्र आकाश से जमीन पर उतरकर उत्कृष्ट विभूतियों से शोभायमान अयोध्यापुरी में जा पहुँची ॥२५॥ देवों के सैनिक चारों ओर से अयोध्यापुरी को घेरकर स्थित हो गये और बड़े उत्सव के साथ आये हुए इन्द्रों से राजा नाभिराज का आँगन भर गया ॥२६॥ तत्पश्चात् इन्द्राणी ने बड़े ही उत्सव से प्रसूतिगृह में प्रवेश किया और वहाँ कुमार के साथ-साथ जिनमाता मरुदेवी के दर्शन किये ॥२७॥ जिस प्रकार अनुराग (लाली) सहित सच्चा बालसूर्य से युक्त पूर्व दिशा को बड़े ही हर्ष से देखती है उसी प्रकार अनुराग (प्रेम) सहित इन्द्राणी ने जिनबालक से युक्त जिनमाता को बड़े ही प्रेम से देखा ॥२८॥ इन्द्राणी ने वहाँ जाकर पहले कई बार प्रदक्षिणा दी फिर जगत् के गुरु जिनेन्द्रदेव को नमस्कार किया और फिर जिनमाता के सामने खड़े होकर इस प्रकार स्तुति की ॥२९॥ कि हे माता, तू तीनों लोक की कल्याणकारिणी माता है, तू ही मंगल करने वाली है, तू ही महादेवी है, तू ही पुण्यवती है और तू ही यशस्विनी है ॥३०॥ जिसने अपने शरीर को गुप्त कर रखा है ऐसी इन्द्राणी ने ऊपर लिखे अनुसार जिनमाता की स्तुति कर उसे मायामयी नींद से युक्त कर दिया । तदनन्तर उसके आगे मायामयी दूसरा बालक रखकर शरीर से निकलते हुए तेज के द्वारा लोक को व्याप्त करने वाले चूड़ामणि रत्न के समान जगद्गुरु जिनबालक को दोनों हाथों से उठाकर वह परम आनन्द को प्राप्त हुई ॥३१-३२॥ उस समय अत्यन्त दुर्लभ भगवान् के शरीर का स्पर्श पाकर इन्द्राणी ने ऐसा माना था मानो मैंने तीनों लोकों का समस्त ऐश्वर्य ही अपने अधीन कर लिया हो ॥३३॥ वह इन्द्राणी बार-बार उनका मुख देखती थी, बार-बार उनके शरीर का स्पर्श करती थी और बार-बार उनके शरीर को सूँघती थी जिससे उसके नेत्र हर्ष से प्रफुल्लित हो गये थे और वह उत्कृष्ट प्रीति को प्राप्त हुई थी ॥३४॥ तदनन्तर जिनबालक को लेकर जाती हुई वह इन्द्राणी ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो अपनी देदीप्यमान किरणों से आकाश को व्याप्त करनेवाले सूर्य को लेकर जाता हुआ आकाश ही सुशोभित हो रहा है ॥३५॥ उस समय तीनों लोकों में मंगल करने वाले भगवान् के आगे-आगे अष्ट मंगलद्रव्य धारण करने वाली दिक्कुमारी देवियाँ चल रही थीं और ऐसी जान पड़ती थीं मानो इकट्ठी हुई भगवान् की उत्तम ऋद्धियाँ ही हों ॥३६॥ छत्र, ध्वजा, कलश, चमर, सुप्रतिष्ठक (मोंदरा-ठोना), झारी, दर्पण और ताड़का पंखा ये आठ मंगलद्रव्य कहलाते हैं ॥३७॥ उस समय मंगलों में भी मंगलपने को प्राप्त कराने वाले और तरुण सूर्य के समान शोभायमान भगवान् अपनी दीप्ति से दीपकों के प्रकाश को रोक रहे थे । भावार्थ--भगवान् के शरीर की दीप्ति के सामने दीपकों का प्रकाश नहीं फैल रहा था ॥३८॥ तत्पश्चात् जिस प्रकार पूर्व दिशा प्रकाशमान मणियों से सुशोभित उदयाचल के शिखर पर बाल सूर्य को विराजमान कर देती हैं उसी प्रकार इन्द्राणी ने जिनबालक को इन्द्र की हथेली पर विराजमान कर दिया ॥३९॥ इन्द्र आदरसहित इन्द्राणी के हाथ से भगवान् को लेकर हर्ष से नेत्रों को प्रफुल्लित करता हुआ उनका सुन्दर रूप देखने लगा ॥४०॥ तथा नीचे लिखे अनुसार उनकी स्तुति करने लगा-हे देव, आप तीनों जगत् की ज्योति हैं; हे देव, आप तीनों जगत् के गुरु हैं; हे देव, आप तीनों जगत् के विधाता हैं और हे देव, आप तीनों जगत् के स्वामी हैं ॥४१॥ हे नाथ, विद्वान् लोग, केवलज्ञानरूपी सूर्य का उदय होने के लिए आपको ही बड़े-बड़े मुनियों के द्वारा वन्दनीय और अतिशय उन्नत उदयाचल पर्वत मानते हैं ॥४२॥ हे नाथ, आप भव्य जीवरूपी कमलों के समूह को विकसित करने के लिए सूर्य के समान हैं । मिथ्याज्ञानरूपी गाढ़ अन्धकार से ढका-हुआ यह संसार अब आपके द्वारा ही प्रबोध को प्राप्त होगा ॥४३॥ हे नाथ, आप गुरुओं के भी गुरु हैं इसलिए आपको नमस्कार हो, आप महाबुद्धिमान् हैं इसलिए आपको नमस्कार हो, आप भव्य जीवरूपी कमलों को विकसित करने के लिए सूर्य के समान हैं और गुणों के समुद्र हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ॥४४॥ हे भगवन् आपने तीनों लोकों को जान लिया है इसलिए आप से ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा करते हुए हम लोग आपके चरणकमलों को बड़े आदर से अपने मस्तक पर धारण करते हैं ॥४५॥ हे नाथ, मुक्तिरूपी लक्ष्मी उत्कण्ठित होकर आपमें स्नेह रखती है और जिस प्रकार समुद्र में मणि बढ़ते रहते हैं उसी प्रकार आप में अनेक गुण बढ़ते रहते हैं ॥४६॥ इस प्रकार देवों के अधिपति इन्द्र ने स्तुति कर भगवान् को अपनी गोद में धारण किया और मेरु पर्वत पर चलने की शीघ्रता से इशारा करने के लिए अपना हाथ ऊँचा उठाया ॥४७॥ हे ईश ! आपकी जय हो, आप समृद्धिमान् हो और आप सदा बढ़ते रहें इस प्रकार जोर-जोर से कहते हुए देवों ने उस समय इतना अधिक कोलाहल किया था कि उससे समस्त दिशा बहरी हो गयी थीं ॥४८॥ तदनन्तर जय-जय शब्द का उच्चारण करते हुए और अपने आभूषणों की फैलती हुई किरणों से इन्द्रधनुष को विस्तृत करते हुए देव लोग आकाशरूपी आँगन में ऊपर की ओर चलने लगे ॥४९॥ उस समय जिनके स्तन कुछ-कुछ हिल रहे हैं ऐसी अप्सराएँ अपनी भौंहरूपी पताकाएं ऊपर उठाकर आकाशरूपी रंगभूमि में सबके आगे नृत्य कर रही थीं और गन्धर्व देव उनके साथ अपना संगीत प्रारम्भ कर रहे थे ॥५०॥ रत्न-खचित देवों ने विमानों से जहाँ-तहाँ सभी ओर व्याप्त हुआ निर्मल आकाश ऐसा शोभायमान होता था मानो भगवान के दर्शन करने के लिए उसने अपने नेत्र ही खोल रखे हो ॥५१॥ उस समय सफेद बादल सफेद पताकाओंसहित काले हाथियों से मिलकर ऐसे शोभायमान हो रहे थे मानो बगुला पक्षियों सहित काले-काले बादलों से मिल रहे हों ॥५२॥ कहीं-कहीं पर अनेक मेघ देवों के बड़े-बड़े विमानों की टक्कर से चूर-चूर होकर नष्ट हो गये थे सो ठीक ही है; क्योंकि जो जड़ (जल और मूर्ख) रूप होकर भी बड़ों से बैर रखते हैं वे नष्ट होते ही हैं ॥५३॥ देवों के हाथियों के गण्डस्थल से झरने वाले मद की सुगन्ध से आकृष्ट हुए भौंरों ने वन के प्रदेशों को छोड़ दिया था सो ठीक है क्योंकि यह कहावत सत्य है कि लोग नवप्रिय होते हैं-उन्हें नयी-नयी वस्तु अच्छी लगती है ॥५४॥ उस समय इन्द्रों के शरीर की प्रभा से सूर्य का तेज पराहत हो गया था-फीका पड़ गया था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो लज्जा को प्राप्त होकर चुपचाप कहीं पर जा छिपा हो ॥५५॥ पहले सूर्य अपने किरणरूपी हाथों के द्वारा दिशारूपी अंगनाओं का आलिंगन किया करता था, किन्तु उस समय इन्द्रों के शरीरों का उद्योग सूर्य के उस आलिंगन को छुड़ाकर स्वयं दिशारूपी अंगनाओं के समीप जा पहुँचा था, सो ठीक ही है स्त्रियाँ बलवान् पुरुषों के ही भोग्य होती है । भावार्थ-इन्द्रों के शरीर की कान्ति सूर्य की कान्ति को फीका कर समस्त दिशाओं में फैल गयी थीं ॥५६॥ ऐरावत हाथी के दाँतों पर बने हुए सरोवरों में कमलदल पर जो अप्सराओं का नृत्य हो रहा था वह देवों को भी अतिशय रसिक बना रहा था ॥५७॥ उस समय जिनेन्द्रदेव के गुणों से रचे हुए किन्नर देवों के मधुर संगीत सुनकर देव लोग अपने कानों का फल प्राप्त कर रहे थे-उन्हें सफल बना रहे थे ॥५८॥ उस समय टिमकाररहित नेत्रों से भगवान का दिव्य शरीर देखने वाले देवों ने अपने नेत्रों के टिमकाररहित होने का फल प्राप्त किया था । भावार्थ-देवों की आँखों के कभी पलक नहीं झपते । इसलिए देवों ने बिना पलक झपाये ही भगवान् के सुन्दर शरीर के दर्शन किये थे । देव भगवान् के सुन्दर शरीर को पलक झपाये बिना ही देख सके थे यही मानो उनके वैसे नेत्रों का फल था-भगवान् का सुन्दर शरीर देखने के लिए ही मानो विधाता ने उनके नेत्रों की पलक स्पन्द-टिमकाररहित बनाया था ॥५९॥ जिन बालक को गोद में लेना, उन पर सफेद छत्र धारण करना और चमर ढोलना आदि सभी कार्य स्वयं अपने हाथ से करते हुए इन्द्र लोग भगवान् के अलौकिक ऐश्वर्य को प्रकट कर रहे थे ॥६०॥ उस समय भगवान्, सौधर्म इन्द्र की गोद में बैठे हुए थे, ऐशान इन्द्र सफेद छत्र लगाकर उनकी सेवा कर रहा था और सनत्कुमार तथा माहेन्द्र स्वर्ग के इन्द्र उनकी दोनों ओर क्षीरसागर की लहरों के समान सफेद चमर ढोर रहे थे ॥६१-६२॥ उस समय की विभूति देखकर कितने ही अन्य मिथ्यादृष्टि देव इन्द्र को प्रमाण मानकर समीचीन जैनमार्ग में श्रद्धा करने लगे थे ॥६३॥ मेरु पर्वत पर्यन्त नील मणियों से बनायी हुई सीढ़ियाँ ऐसी शोभायमान हो रही थीं मानो आकाश ही भक्ति से सीढ़ीरूप पर्याय को प्राप्त हुआ हो ॥६४॥ क्रम-क्रम से वे इन्द्र ज्योतिष-पटल को उल्लंघन कर ऊपर की ओर जाने लगे । उस समय वे नीचे ताराओंसहित आकाश को ऐसा मानते थे मानो कुमुदिनियोंसहित सरोवर ही हो ॥६५॥ तत्पश्चात् वे इन्द्र निन्यानवे हजार योजन ऊँचे उस सुमेरु पर्वत पर जा पहुंचे ॥६६॥ जिसके मस्तक पर स्थित चूलिका मुकुट के समान सुशोभित होती है और जिसके ऊपर सौधर्म स्वर्ग का ऋतुविमान चूड़ामणि की शोभा धारण करता है ॥६७॥ जो अपने नितम्ब भाग पर (मध्यभाग पर) घनी छाया वाले बड़े-बड़े वृक्षों से व्याप्त भद्रशाल नामक महावन को ऐसा धारण करता है मानो हरे रंग की धोती ही धारण किये हो ॥६८॥ उससे आगे चलकर अपनी पहली मेखला पर तो अनेक रत्नमयी वृक्षों से सुशोभित नन्दन वन को ऐसा धारण कर रहा है मानो उसकी करधनी ही हो ॥६९॥ जो पुष्प और पल्लवों से शोभायमान हरे रंग के सौमनस वन को ऐसा धारण करता है मानो उसका ओढ़ने का दुपट्टा ही हो ॥७०॥ अपनी सुगन्धि से भौंरों को बुलाने वाले फूलों के द्वारा मुकुट की शोभा धारण करता हुआ पाण्डुक वन जिसके शिखर पर्यन्त के भाग को सदा अलंकृत करता रहता है ॥७१॥ इस प्रकार जिसके चारों वनों की प्रत्येक दिशा में एक-एक जिनमन्दिर चमकते हुए मणियों की कान्ति से ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानो स्वर्ग के विमानों की हँसी ही कर रहे हों ॥७२॥ जो पर्वत सुवर्णमय है और बहुत ही ऊँचा है इसलिए जो लवणसमुद्ररूपी वस्त्र पहने हुए जम्बूद्वीपरूपी महाराज के सुवर्णमय मुकुट का सन्देह पैदा करता रहता है ॥७३। जो तीर्थंकर भगवान के पवित्र अभिषेक की सामग्री धारण करने से सदा पवित्र रहता है और अतिशय ऊँचा अथवा समृद्धिशाली है इसीलिए मानो ज्योतिषी देवों का समूह सदा जिसकी प्रदक्षिणा दिया करता है ॥७४॥ जो पर्वत जिनेन्द्रदेव के समान अत्यन्त उन्नत (श्रेष्ठ और ऊँचा) है इसीलिए अनेक चारण मुनि हर्षित होकर पुण्य प्राप्त करने की इच्छा से सदा जिसकी सेवा किया करते हैं ॥७५॥ जो देवकुरु उत्तरकुरु भोगभूमियों को अपने समीपवर्ती पर्वतों से घेरकर सदा निर्बाधरूप से उनकी रक्षा किया करता है सो ठीक ही है क्योंकि उत्कृष्टता का यही माहात्म्य है ॥७६॥ स्वर्गलोक की शोभा की हंसी करने वाली जिस पर्वत की गुफाओं में देव और धरणेन्द्र स्वर्ग छोड़कर अपनी स्त्रियों के साथ निवास किया करते हैं ॥७७॥ जो पाण्डुकवन के स्थानों में स्फटिक मणि की बनी हुई और तीर्थंकरों के अभिषेक क्रिया के योग्य निर्मल (पाण्डुकादि) शिलाओं को धारण कर रहा है ॥७८॥ और जो मेरु पर्वत सौधर्मेन्द्र के समान शोभायमान होता है क्योंकि जिस प्रकार सौधर्मेन्द्र तुंग अर्थात् श्रेष्ठ अथवा उदार है उसी प्रकार वह सुमेरु पर्वत भी तुंग अर्थात् ऊँचा है, सौधर्मेन्द्र की जिस प्रकार अनेक विबुध (देव) सेवा किया करते हैं उसी प्रकार मेरु पर्वत की भी अनेक देव अथवा विद्वान् सेवा किया करते हैं, सौधर्मेन्द्र जिस प्रकार सततर्तुसमाश्रय अर्थात् ऋतुविमान का आधार अथवा छहों ऋतुओं का आश्रय है और सौधर्मेन्द्र जिस प्रकार अनेक अप्सराओं के समूह से सेवनीय है उसी प्रकार सुमेरु पर्वत भी अप्सराओं अथवा जल से भरे हुए सरोवरों से शोभायमान हुए ॥७९॥ इस प्रकार जो ऊँचाई से शोभायमान है, सुन्दरता की खानि है और स्वर्ग का मानो अधिष्ठाता देव ही है ऐसे उस सुमेरु पर्वत को पाकर देव लोग बहुत ही प्रसन्न हुए ॥८०॥ तदनन्तर इन्द्र ने बड़े प्रेम से देवों के साथ-साथ उस गिरिराज सुमेरु पर्वत की प्रदक्षिणा देकर उसके मस्तक पर हर्षपूर्वक श्रीजिनेन्द्ररूपी सूर्य को विराजमान किया ॥८१॥ उस मेरु पर्वत के पाण्डुक वन में पूर्व और उत्तर दिशा के बीच अर्थात् ऐशान दिशा में एक बड़ी भारी पाण्डुक नाम की शिला है जो तीर्थंकर भगवान के जन्माभिषेक को धारण करती है अर्थात् जिस पर तीर्थंकरों का अभिषेक हुआ करता है ॥८२॥ वह शिला अत्यन्त पवित्र है, मनोज्ञ है, रमणीय है, मनोहर है, गोल है और अष्टमी पृथ्वी सिद्धिशिला के समान शोभायमान है ॥८३॥ वह शिला सौ योजन लम्बी है, पचास योजन चौड़ी है, आठ योजन ऊँची हैं और अर्ध चन्द्रमा के समान आकार वाली है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने माना है-कहा है ॥८४॥ वह पाण्डुकशिला सदा निर्मल रहती है । उस पर इन्होंने क्षीरसमुद्र के जल से उसका कई बार प्रक्षालन किया है इसलिए वह पवित्रता की चरम सीमा को धारण कर रही है ॥८५॥ निर्मलता पूज्यता पवित्रता और जिनेन्द्रदेव को धारण करने की अपेक्षा वह पाण्डुकशिला जिनेन्द्रदेव की माता के समान शोभायमान होती है ॥८६॥ वह शिला देवों के द्वारा ऊपर से छोड़े हुए मुक्ताफलों के समान उज्ज्वल कान्ति वाली है और देव लोग जो उस पर पुष्प चढ़ाते हैं वे सदृशता के कारण उसी में छिप जाते हैं-पृथक् रूप से कभी भी प्रकट नहीं दिखते ॥८७॥ वह पाण्डुकशिला जिनेन्द्रदेव के अभिषेक के लिए सदा बहुमूल्य और श्रेष्ठ सिंहासन धारण किये रहती है जिससे ऐसा जान पड़ता है मानो मेरु पर्वत के ऊपर दूसरा मेरु पर्वत ही रखा हो ॥८८॥ वह शिला उस मुख्य सिंहासन के दोनों ओर रखे हुए दो सुन्दर आसनों को और भी धारण किये हुए है । वे दोनों आसन जिनेन्द्रदेव का अभिषेक करने के लिए सौधर्म और ऐशान इन्द्र के लिए निश्चित रहते हैं ॥८९॥ देव लोग सदा उस पाण्डुकशिला की पूजा करते हैं, वह देवों द्वारा चढ़ाई हुई सामग्री से निरन्तर मनोहर रहती है और नित्य ही मंगलमय संगीत, नृत्य, वादित्र आदि से शोभायमान रहती है ॥९०॥ वह शिला छत्र, चमर, झारी, ठोना (मोंदरा), दर्पण, कलश, ध्वजा और ताड़का (पंखा) इन आठ मंगल द्रव्यों को धारण किये हुई है ॥९१॥ वह निर्मल पाण्डुकशिला शीलव्रत की परम्परा के समान मुनियों को बहुत ही इष्ट है और जिनेन्द्रदेव के शरीर के समान अत्यन्त देदीप्यमान, मनोज्ञ अथवा सुगन्धित और पवित्र है ॥९२॥ यद्यपि वह पाण्डुकशिला स्वयं धौत है अर्थात् श्वेतवर्ण अथवा उज्ज्वल है तथापि इन्द्रों ने क्षीरसागर के पवित्र जल से उसका सैकड़ों बार प्रक्षालन किया है । वास्तव में वह शिला पुण्य उत्पन्न करने के लिए खान की भूमि के समान है ॥९३॥ उस शिला के समीपवर्ती प्रदेशों में चारों ओर परस्पर में मिले हुए रत्नों के प्रकाश से इन्द्रधनुष की शोभा का विस्तार किया जाता है ॥९४॥ जिनेन्द्रदेव के जन्मकल्याणक की विभूति को देखने के अभिलाषी देव लोग उस पाण्डुकशिला को घेरकर सभी दिशाओं में क्रम-क्रम से यथायोग्य रूप में बैठ गये ॥९५॥ दिक्पाल जाति के देव भी अपने-अपने समूह (परिवार) के साथ जिनेन्द्र भगवान् का उत्सव देखने की इच्छा से दिशा-विदिशा में जाकर यथायोग्य रूप से बैठ गये ॥९६॥ देवों की सेना भी उस पाण्डुक वन में आकाशरूपी आँगन को रोककर मेरु पर्वत के ऊपरी भाग में व्याप्त होकर जा ठहरी ॥९७॥ इस प्रकार चारों ओर से देव और इन्द्रों से व्याप्त हुआ वह पाण्डुक वन ऐसा मालूम होता था मानो वृक्षों के फूलों के समूह से स्वर्ग की शोभा की हँसी ही बढ़ा रहा हो ॥९८॥ उस समय ऐसा जान पड़ता था कि स्वर्ग अवश्य ही अपने स्थान से विचलित होकर खाली हो गया है और इन्द्र का समस्त वैभव धारण करने से सुमेरु पर्वत ही स्वर्गपने को प्राप्त हो गया है ॥९९॥ तदनन्तर सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र भगवान् को पूर्व दिशा की ओर मुँह कर के पाण्डुक शिला पर रखे हुए सिंहासन पर विराजमान कर उनका अभिषेक करने के लिए तत्पर हुआ ॥१००॥ उस समय समस्त आकाश को व्याप्त कर देवों के दुन्दुभि बज रहे थे और अप्सराओं ने चारों ओर उत्कृष्ट नृत्य करना प्रारम्भ कर दिया था ॥१०१॥ उसी समय कालागुरु नामक उत्कृष्ट धूप का धुआँ बड़े परिमाण में निकलने लगा था और ऐसा मालूम होता था मानो भगवान् के जन्माभिषेक के उत्सव में शामिल होने से उत्पन्न हुए पुण्य के द्वारा पुण्यात्मा जनों के अन्तःकरण से हटाया गया कलंक ही हो ॥१०२॥ उसी समय शान्ति, पुष्टि और शरीर की कान्ति की इच्छा करने वाले देव चारों ओर से अश्रुत, जल और पुष्पसहित पवित्र अर्घ्य चढ़ा रहे थे जो कि ऐसे मालूम होते थे मानो पुण्य के अंश ही हों ॥१०३॥ उस समय वहीं पर इन्द्रों ने एक ऐसे बड़े भारी मण्डप की रचना की थी कि जिसमें तीनों लोक के समस्त प्राणी परस्पर बाधा न देते हुए बैठ सकते थे ॥१०४॥ उस मण्डप में कल्पवृक्ष के फूलों से बनी हुई अनेक मालाएँ लटक रही थीं, और उन पर बैठे हुए भ्रमर गा रहे थे । उन भ्रमरों के संगीत से वे मालाएँ ऐसी जान पड़ती थी मानो भगवान् का यश ही गाना चाहती हों ॥१०५॥ तदनन्तर प्रथम स्वर्ग के इन्द्र ने उस अवसर की समस्त विधि कर के भगवान् का प्रथम अभिषेक करने के लिए प्रथम कलश उठाया ॥१०६॥ और अतिशय शोभायुक्त तथा कलश उठाने के मन्त्र को जानने वाले दूसरे ऐशानेन्द्र ने भी सघन चन्दन से चर्चित, भरा हुआ दूसरा कलश उठाया ॥१०७॥ आनन्दसहित जय-जय शब्द का उच्चारण करते हुए शेष इन्द्र उन दोनों इन्द्रों के कहे अनुसार परिचर्या करते हुए परिचारक (सेवक) वृत्ति को प्राप्त हुए ॥१०८॥ अपनी-अपनी अप्सराओं तथा परिवार से सहित इन्द्राणी आदि मुख्य-मुख्य देवियाँ भी मंगलद्रव्य धारण कर परिचर्या करने वाली हुई थीं ॥१०९॥ तत्पश्चात् बहुत से देव सुवर्णमय कलशों से क्षीरसागर का पवित्र जल लाने के लिए श्रेणीबद्ध होकर बड़े सन्तोष से निकले ॥११०॥ 'जो स्वयं पवित्र है और जिसमें रुधिर भी क्षीर के समान अत्यन्त स्वच्छ है ऐसे भगवान् के शरीर का स्पर्श करने के लिए क्षीरसागर के जल के सिवाय अन्य कोई जल योग्य नहीं हैं ऐसा मानकर ही मानो देवों ने बड़े हर्ष के साथ पाँचवें क्षीरसागर के जल से ही भगवान का अभिषेक करने का निश्चय किया था ॥१११-११२॥ आठ योजन गहरे, मुख पर एक योजन चौड़े (और उदर में चार योजन चौड़े) सुवर्णमय कलशों से भगवान के जन्माभिषेक का उत्सव प्रारम्भ किया गया था ॥११३॥ कालिमा अथवा पाप के विकास को चुराने वाले, विघ्नों को दूर करने वाले और देवों के द्वारा हाथों-हाथ उठाये हुए वे बड़े भारी कलश बहुत ही सुशोभित हो रहे थे ॥११४॥ जिनके कण्ठ भाग अनेक प्रकार के मोतियों से शोभायमान है, जो घिसे हुए चन्दन से चर्चित हो रहे हैं और जो जल से लबालब भरे हुए है ऐसे वे सुवर्ण-कलश अनुक्रम से आकाश में प्रकट होने लगे ॥११५॥ देवों के परस्पर एक के हाथ से दूसरे के हाथ में जाने वाले और जल से भरे हुए उन सुवर्णमय कलशों से आकाश ऐसा व्याप्त हो गया था मानो वह कुछ-कुछ लालिमायुक्त सन्ध्याकालीन बादलों से ही व्याप्त हो गया हो ॥११६॥ उन सब कलशों को हाथ में लेने की इच्छा से इन्द्र ने अपने विक्रिया-बल से अनेक भुजाएँ बना लीं । उस समय आभूषणसहित उन अनेक भुजाओं से वह इन्द्र ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो भूषणांग जाति का कल्पवृक्ष ही हो ॥११७॥ अथवा वह इन्द्र एक साथ हजार भुजाओं द्वारा उठाये हुए और मोतियों से सुशोभित उन सुवर्णमय कलशों से ऐसा शोभायमान होता था मानो भाजनांग जाति का कल्पवृक्ष ही हो ॥११८॥ सौधर्मेन्द्र ने जय-जय शब्द का उच्चारण कर भगवान् के मस्तक पर पहली जलधारा छोड़ी उसी समय जय जय जय बोलते हुए अन्य करोड़ों देवों ने भी बड़ा भारी कोलाहल किया था ॥११९॥ जिनेन्द्रदेव के मस्तक पर पड़ती हुई वह जल की धारा ऐसी शोभायमान होती थी मानो हिमवान् पर्वत के शिखर पर ऊँचे से पड़ती हुई अखण्ड जल वाली आकाशगंगा ही हो ॥१२०॥ तदनन्तर अन्य सभी स्वर्गों के इन्द्रों ने संध्या समय के बादलों के समान शोभायमान, जल से भरे हुए सुवर्णमय कलशों से भगवान् के मस्तक पर एक साथ जलधारा छोड़ी । यद्यपि वह जलधारा भगवान के मस्तक पर ऐसी पड़ रही थी मानो गंगा सिन्धु आदि महानदियाँ ही मिलकर एक साथ पड़ रही हों तथापि मेरु पर्वत के समान स्थिर रहने वाले जिनेन्द्रदेव उसे अपने माहात्म्य से लीलामात्र में ही सहन कर रहे थे ॥१२१-१२२॥ उस समय कितनी ही जल की बूँदें भगवान् के शरीर का स्पर्श कर आकाशरूपी आँगन में दूर तक उछल रही थीं और ऐसी मालूम होती थीं मानो उनके शरीर के स्पर्श से पापरहित होकर ऊपर को ही जा रही हों ॥१२३॥ आकाश में उछलती हुई कितनी ही पानी की बूंदें ऐसी शोभायमान हो रही थीं मानो देवों के निवासगृह में छींटे ही देना चाहती हों ॥१२४॥ भगवान् के अभिषेक जल के कितने ही छींटे दिशा-विदिशाओं में तिरछे फैल रहे थे और वे ऐसे मालूम होते थे मानो दिशारूपी स्त्रियों के मुखों पर कर्णफूलों की शोभा ही बढ़ा रहे हों ॥१२५॥ भगवान् के निर्मल शरीर पर पड़कर उसी में प्रतिबिम्बित हुई जल की धाराएँ ऐसी शोभायमान हो रही थीं मानो अपने को बड़ा भाग्यशाली मानकर उन्हीं के शरीर के साथ मिल गयी हो ॥१२६॥ भगवान् के मस्तक पर इन्द्रों द्वारा छोड़ी हुई क्षीरसमुद्र के जल की धारा ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो किसी पर्वत के शिखर पर मेघों द्वारा छोड़े हुए सफेद झरने ही पड़ रहे हों ॥१२७॥ भगवान् के अभिषेक का जल सन्तुष्ट होकर पहले तो आकाश में उछलता था और फिर नीचे गिर पड़ता था । उस समय जो उसमें जल के बारीक छींटे रहते थे उनसे वह ऐसा मालूम होता था मानो अपनी मूर्खता पर हँस ही रहा हो ॥१२८॥ वह क्षीरसागर के जल का प्रवाह आकाशगंगा के जलबिन्दुओं के साथ स्पर्धा करने के लिए ही मानो ऊपर जाते हुए अपने जलकणों से स्वर्ग के विमानों को शीघ्र हीं पवित्र कर रहा था ॥१२९॥ भगवान् स्वयं पवित्र थे, उन्होंने अपने पवित्र अंगों से उस जल को पवित्र कर दिया था और उस जल ने समस्त दिशा में फैलकर इस सारे संसार को पवित्र कर दिया था ॥१३०॥ उस अभिषेक के जल में डूबी हुई देवों की सेना क्षण-भर के लिए ऐसी दिखाई देती थी मानो क्षीरसमुद्र में डूबकर व्याकुल ही हो रही हो ॥१३१॥ वह जल कलशों के मुख पर रखे हुए कमलों के साथ सुमेरु पर्वत के मस्तक पर पड़ रहा था इसलिए ऐसी शोभा को प्राप्त हो रहा था मानो बहसों के साथ ही पड़ रहा हो ॥१३२॥ कलशों के मुख से गिरे हुए अशोकवृक्ष के लाल-लाल पल्लवों से व्याप्त हुआ वह स्वच्छ जल ऐसा शोभायमान हो रहा था मानो मूँगा के अंकुरों से ही व्याप्त हो रहा हो ॥१३३॥ स्फटिक मणि के बने हुए निर्मल सिंहासन पर जो स्वच्छ जल पड़ रहा था वह ऐसा मालूम होता था मानो भगवान् के चरणों के प्रसाद से और भी अधिक स्वच्छ हो गया हो ॥१३४॥ कहीं पर चित्र-विचित्र रत्नों की किरणों से व्याप्त हुआ वह जल ऐसा शोभायमान होता था, मानो इन्द्रधनुष ही गलकर जलरूप हो गया हो ॥१३५॥ कहीं पर पद्मरागमणियों की फैलती हुई कान्ति से लाल-लाल हुआ वह पवित्र जल सन्ध्याकाल के पिघले हुए बादलों की शोभा धारण कर रहा था ॥१३६॥ कही पर इन्द्रनील मणियों की कान्ति से व्याप्त हुआ वह जल ऐसा दिखाई दे रहा था मानो किसी एक जगह छिपा हुआ गाढ़ अन्धकार ही हो ॥१३७॥ कहीं पर मरकतमणियों (हरे रंग के मणियों) की किरणों के समूह से मिला हुआ वह अभिषेक का जल ठीक हरे वस्त्र के समान हो रहा था ॥१३८॥ भगवान् के अभिषेक जल के उड़ते हुए छींटों से आकाश ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो भगवान् के शरीर के स्पर्श से सन्तुष्ट होकर हँस ही रहा हो ॥१३९॥ भगवान् के स्नान-जल की कितनी ही बूंदें आकाश की सीमा का उल्लंघन करती हुई ऐसी शोभायमान हो रही थीं मानो स्वर्ग की लक्ष्मी के साथ जलक्रीड़ा (फाग) ही करना चाहती हों ॥१४०॥ सब दिशाओं को रोककर सब ओर उछलती हुई कितनी ही जल की बूँदें ऐसी मालूम होती थी मानो आनन्द से दिशारूपी स्त्रियों के साथ हँसी ही कर रही हों ॥१४१॥ वह अभिषेकजल का प्रवाह अपनी इच्छानुसार बैठे हुए सुरदम्पतियों को दूर हटाता हुआ शीघ्र ही मेरुपर्वत के निकट जा पहुँचा ॥१४२॥ और मेरु पर्वत से नीचे भूमि तक पड़ता हुआ वह क्षीरसागर के जल का प्रवाह ऐसा शोभायमान हो रहा था मानो मेरु पर्वत को खड़े नाप से नाप ही रहा हो ॥१४३॥ उस जल का प्रवाह मेरु पर्वत पर ऐसा बढ़ रहा था मानो शिखरों के द्वारा खकारकर दूर किया जा रहा हो, गुहारूप मुखों के द्वारा पिया जा रहा हो और कन्दराओं के द्वारा बाहर उगला जा रहा हो ॥१४४॥ उस समय मेरु पर्वत पर अभिषेक जल के जो झरने पड़ रहे थे उनसे ऐसा मालूम होता था मानो वह यह कहता हुआ स्वर्ग को धिक्कार ही दे रहा हो कि अब स्वर्ग क्या वस्तु है ? उसे तो देवों ने भी छोड़ दिया है । इस समय समस्त देव हमारे यहाँ आ गये हैं इसलिए हमें ही साक्षात् स्वर्ग मानना योग्य है ॥१४५॥ उस जल के प्रवाह ने समस्त आकाश को ढक लिया था, ज्योतिष्पटल को घेर लिया था, मेरु पर्वत को आच्छादित कर लिया था और पृथिवी तथा आकाश के अन्तराल को रोक लिया था ॥१४६॥ उस जल के प्रवाह ने मेरुपर्वत के अच्छे वनों में क्षण-भर विश्राम किया और फिर सन्तुष्ट हुए के समान वह दूसरे ही क्षण में वहाँ से दूसरी जगह व्याप्त हो गया ॥१४७॥ वह जल का बड़ा भारी प्रवाह वन के भीतर वृक्षों के समूह से रुक जाने के कारण धीरे-धीरे चलता था परन्तु ज्यों ही उसने वन के मार्ग को पार किया त्यों ही वह शीघ्र ही दूर तक फैल गया ॥१४८॥ मेरु पर्वत पर फैलता और आकाश को आच्छादित करता हुआ वह जल का प्रवाह ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो मेरु पर्वत को सफेद वस्त्रों से ढक ही रहा हो ॥१४९॥ सब ओर से मेरुपर्वत को आच्छादित कर बहता हुआ वह क्षीरसागर के जल का प्रवाह आकाशगंगा के जलप्रवाह की शोभा धारण कर रहा था ॥१५०॥ मेरु पर्वत की गुफाओं में शब्द करता हुआ वह जल का प्रवाह ऐसा मालूम होता था मानो शब्दाद्वैत का ही विस्तार कर रहा हो अथवा सारी सृष्टि को जलरूप ही सिद्ध कर रहा हो ॥ भावार्थ-शब्दाद्वैतवादियों का कहना है कि संसार में शब्द ही शब्द है शब्द के सिवाय और कुछ भी नहीं है । उस समय सुमेरु की गुफाओं में पड़ता हुआ जलप्रवाह भी भारी शब्द कर रहा था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो शब्दाद्वैतवाद का समर्थन ही कर रहा हो । ईश्वर सृष्टिवादियों का कहना है कि यह समस्त सृष्टि पहले जलमयी थी, उसके बाद ही स्थल आदि की रचना हुई है उस समय सब ओर जल-ही-जल दिखलाई पड़ रहा था इसलिए ऐसा मालूम होगा था मानो वह सारी सृष्टि को जलमय ही सिद्ध करना चाहता हो ॥१५१॥ वह मेरुपर्वत ऊपर से लेकर नीचे पृथिवीतल तक सभी ओर जलप्रवाह से तर हो रहा था इसलिए प्रत्यक्ष ज्ञानी देवों को भी अज्ञातपूर्व मालूम होता था अर्थात् ऐसा जान पड़ता था जैसे उसे पहले कभी देखा ही न हो ॥१५२॥ उस समय वह पर्वत शोभायमान मृणाल के समान सफेद हो रहा था और फूले हुए नमेरु वृक्षों से सुशोभित था इसलिए यही मालूम होता था कि वह मेरु नहीं है किन्तु कोई दूसरा चाँदी का पर्वत है ॥१५३॥ क्या यह अमृत की राशि है ? अथवा स्फटिकमणि का पर्वत है ? अथवा चूने से सफेद किया गया तीनों जगत् की लक्ष्मी का महल है-इस प्रकार मेरु पर्वत के विषय में वितर्क पैदा करता हुआ बहु जल का प्रवाह सभी दिशा के अन्त तक इस प्रकार फैल गया मानो दिशारूपी स्त्रियों का अभिषेक ही कर रहा हो ॥१५४-१५५॥ चन्द्रमा के समान निर्मल उस अभिषेकजल की कितनी ही बूँदें ऊपर को उछलकर सब दिशाओं में फैल गयी थी जिससे ऐसी जान पड़ती थीं मानो मेरु पर्वत पर सफेद छत्र की शोभा ही बढ़ा रही हों ॥१५६॥ हार, बर्फ, सफेद कमल और कुमुदों के समान सफेद जल के प्रवाह सब ओर प्रवृत्त हो रहे थे और वे ऐसे जान पड़ते थे मानो जिनेन्द्र भगवान् के यश के प्रवाह ही हों ॥१५७॥ हार के समान निर्मल कान्ति वाले वे अभिषेकजल के छींटे ऐसे मालूम होते थे मानो आकाशरूपी आँगन में फूलों के उपहार ही चढ़ाये गये हों अथवा दिशारूपी स्त्रियों के कानों के कर्णफूल ही हों ॥१५८॥ वह जल का प्रवाह लोक के अन्त तक फैलने वाली अपनी बूँदों से ऊपर स्वर्ग तक व्याप्त होकर नीचे की ओर ज्योतिष्पटल तक पहुंचकर सब ओर वृद्धि को प्राप्त हो गया था ॥१५९॥ उस समय आकाश में चारों ओर फैले हुए तारागण अभिषेक के जल में डूबकर कुछ चंचल प्रभा के धारक हो गये थे इसलिए बिखरे हुए मोतियों के समान सुशोभित हो रहे थे ॥१६०॥ वे तारागण अभिषेकजल के प्रवाह में क्षण-भर रहकर उससे बाहर निकल आये थे परन्तु उस समय भी उनसे कुछ-कुछ पानी चू रहा था इसलिए ओलों की पङ्क्ति के समान शोभायमान हो रहे थे ॥१६१॥ सूर्य भी उस जलप्रवाह में क्षण-भर रहकर उससे अलग हो गया था, उस समय वह ठण्डा भी हो गया था जिससे ऐसा मालूम होता था मानो कोई तपा हुआ लोहे का बड़ा भारी गोला पानी में डालकर निकाला गया हो ॥१६२॥ उस बहते हुए जलप्रवाह में चन्द्रमा ऐसा मालूम होता था मानो ठण्ड से जड़ होकर (ठिठुरकर) धीरे-धीरे तैरता हुआ एक बूढ़ा हंस ही हो ॥१६३॥ उस समय ग्रहमण्डल भी चारों ओर फैले हुए जल के प्रवाह से आकृष्ट होकर (खिंचकर) विपरीत गति को प्राप्त हो गया था । मालूम होता है कि उसी कारण से वह अब भी वक्रगति का आश्रय लिये हुए हैं ॥१६४॥ उस समय जल में डूबे हुए तथा सीधी और शान्त किरणों से युक्त सूर्य को भ्रान्ति से चन्द्रमा समझकर तारागण भी उसकी सेवा करने लगे थे ॥१६५॥ सम्पूर्ण ज्योतिश्चक्र जलप्रवाह में डूबकर कान्तिरहित हो गया था और उस जलप्रवाह के पीछे-पीछे चलने लगा था मानो अवसर चूक जाने के भय से एक क्षण भी नहीं ठहर सका हो ॥१६६॥ इस प्रकार स्नानजल के प्रवाह से व्याकुल हुआ ज्योतिष्पटल क्षण-भर के लिए, घुमाये हुए कुम्हार के चक्र के समान तिरछा चलने लगा था ॥१६७॥ स्वर्गलोक को धारण करने वाले मेरु पर्वत के मध्य भाग से सब ओर पड़ते हुए भगवान् के स्नानजल ने जहाँ-तहाँ फैलकर समस्त मनुष्यलोक को पवित्र कर दिया था ॥१६८॥ उस जलप्रवाह ने समस्त पृथ्वी सन्तुष्ट सुखरूप कर दी थी, सब कुलाचल पवित्र कर दिये थे, सब देश अतिवृष्टि आदि ईतियों से रहित कर दिये थे, और समस्त प्रजा कल्याण से युक्त कर दी थी । इस प्रकार समस्त लोकनाड़ी को पवित्र करते हुए उस अभिषेकजल के प्रवाह ने प्राणियों का ऐसा कौन-सा कल्याण बाकी रख छोड़ा था जिसे उसने न किया हो? अर्थात् कुछ भी नहीं ॥१६९-१७०॥ अथानन्तर अपने 'छलछल' शब्दों से समस्त दिशाओं को भरने वाला, तथा समस्त लोक की उष्णता शान्त करनेवाला वह जल का बड़ा भारी प्रवाह जब बिलकुल ही शान्त हो गया ॥१७१॥ जब मेरु पर्वत की गुफाएँ जल से रिक्त (खाली) हों गयीं, जल और वनसहित मेरु पर्वत ने कुछ विश्राम लिया ॥१७२॥ जब सुगन्धित लकड़ियों की अग्नि में अनेक प्रकार के धूप जलाये जाने लगे और मात्र भक्ति प्रकट करने के लिए मणिमय दीपक प्रज्वलित किये गये ॥१७३॥ जब देवों के बन्दीजन अच्छी तरह उच्च स्वर से पुण्य बढ़ाने वाले अनेक स्तोत्र पढ़ रहे थे, मनोहर आवाज वाली किन्नरी देवियाँ मधुर शब्द करती हुई गीत गा रही थीं ॥१७४॥ जब जिनेन्द्र भगवान् के कल्याणक सम्बन्धी मंगल गाने के शब्द समस्त देव लोगों के कानों का उत्सव कर रहे थे ॥१७५॥ जब नृत्य करने वाले देवों का समूह जिनेन्द्रदेव के जन्मकल्याणक सम्बन्धी अर्थों से सम्बन्ध रखने वाले अनेक उदाहरणों के द्वारा नाट्यवेद का प्रयोग कर रहा था-नृत्य कर रहा था ॥१७६॥ जब गन्धर्व देवों के द्वारा प्रारम्भ हुए संगीत और मृदंग की ध्वनि से मिला हुआ दुन्दुभि बाजों का गम्भीर शब्द कानों का आनन्द बढ़ा रहा था ॥१७७॥ जब केसर लगे हुए देवांगनाओं के स्तनरूपी कलशों से शोभायमान तथा हारों की किरणरूपी पुष्पों के उपहार से युक्त सुमेरु पर्वतरूपी रंग-भूमि में अप्सराओं का समूह हाथ उठाकर, शरीर हिलाकर और ताल के साथ-साथ फिरकी लगाकर लीलासहित नृत्य कर रहा था ॥१७८-१७९॥ जब देव लोग सावधान होकर मंगलगान सुन रहे थे और अनेक जनों के बीच भगवान् के प्रभाव की प्रशंसा करने वाली बातचीत हो रही थी ॥१८०॥ जब नान्दी, तुरही आदि बाजों के शब्द सब ओर आकाश और पृथ्वी के बीच के अन्तराल को भर रहे थे, जब जय-घोषणा की प्रतिध्वनियों से मानो मेरु पर्वत ही भगवान की स्तुति कर रहा था ॥१८१॥ जब सब ओर घूमती हुई विद्याधरियों के मुख के स्वेदजल के कणों का चुम्बन करने वाला वायु समीपवर्ती वनों को हिलाता हुआ धीरे-धीरे बह रहा था ॥१८२॥ जब विचित्र वेत्र के दण्ड हाथ में लिये हुए देवों के द्वारपाल सभा के लोगों को इंकार शब्द करते हुए चारों ओर पीछे हटा रहे थे ॥१८३॥ 'हमें द्वारपाल पीछे न हटा दें' इस डर से कितने ही लोग चित्रलिखित के समान जब चुपचाप बैठे हुए थे ॥१८४॥ और जब शुद्ध जल का अभिषेक समाप्त हो गया था तब इन्द्र ने शुभ सुगन्धित जल से भगवान् का अभिषेक करना प्रारम्भ किया ॥१८५॥ विधिविधान को जानने वाले इन्द्र ने अपनी सुगन्धि से भ्रमरों का आह्वान करने वाले सुगन्धित जलरूपी द्रव्य से भगवान का अभिषेक किया ॥१८६॥ भगवान् के शरीर पर पड़ती हुई वह सुगन्धित जल की पवित्र धारा ऐसी मालूम होती थी मानो भगवान् के शरीर की उत्कृष्ट सुगन्धि से लज्जित होकर ही अधोमुखी (नीचे को मुख किये हुई) हो गई हो ॥१८७॥ देदीप्यमान सुवर्ण की झारी के नाल से पड़ती हुई वह सुगन्धित जल की धारा ऐसी शोभायमान होती थी मानो भक्ति के भार से भगवान को नमस्कार करने के लिए ही उद्यत हुई हो ॥१८८॥ बिजली के समान कुछ-कुछ पीले भगवान् के शरीर की प्रभा के समूह से व्याप्त हुई वह धारा ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो जलती हुई अग्नि में घी की आहुति ही डाली जा रही हो ॥१८९॥ स्वभाव से सुगन्धित और अत्यन्त पवित्र भगवान् के शरीर पर पड़कर वह धारा चरितार्थ हो गयी थी और उसने भगवान् के उक्त दोनों ही गुण अपने अधीन कर लिये थे-ग्रहण कर लिये थे ॥१९०॥ यद्यपि वह जल का समूह सुगन्धित फूलों और सुगन्धित द्रव्यों से सुवासित किया गया था तथापि वह भगवान् के शरीर पर कुछ भी विशेषता धारण नहीं कर सका था-उनके शरीर की सुगन्धि के सामने उस जल की सुगन्धि तुच्छ जान पड़ती थी ॥१९१॥ वह दूध के समान श्वेत जल की धारा हम सबके आनन्द के लिए हो जो कि रत्नों की धारा के समान समस्त आशाओं (इच्छाओं) और दिशाओं को पूर्ण करने वाली तथा समस्त जगत् को आनन्द देने वाली थी ॥१९२॥ जो पुण्यास्रव की धारा के समान अनेक सम्पदाओं को उत्पन्न करने वाली है ऐसी वह सुगन्धित जल की धारा हम लोगों को कभी नष्ट नहीं होने वाले रत्नत्रयरूपी धन से सन्तुष्ट करे ॥१९३॥ जो पैनी तलवार की धार के समान विघ्नों का समूह नष्ट कर देती है ऐसी वह पवित्र सुगन्धित जल की धारा सदा हम लोगों के मोक्ष के लिए हो ॥१९४॥ जो बड़े-बड़े मुनियों को मान्य है, जो जगत् को एकमात्र पवित्र करने वाली है और जो आकाशगंगा के समान शोभायमान है ऐसी वह सुगन्धित जल की धारा हम सबकी रक्षा करे ॥१९५॥ और जो भगवान् के शरीर को पाकर अत्यन्त पवित्रता को प्राप्त हुई है ऐसी वह सुगन्धित जल की धारा हम सब के मन को पवित्र करे ॥१९६॥ इस प्रकार इन्द्र सुगन्धित जल से भगवान् का अभिषेक कर जगत् की शान्ति के लिए उच्च स्वर से शान्ति-मन्त्र पढ़ने लगे ॥१९७॥ तदनन्तर देवों ने उस गन्धोदक को पहले अपने मस्तकों पर लगाया, फिर सारे शरीर में लगाया और फिर बाकी बचे हुए को स्वर्ग ले जाने के लिए रख लिया ॥१९८॥ सुगन्धित जल का अभिषेक समाप्त होने पर देवों ने जय-जय शब्द के कोलाहल के साथ-साथ चूर्ण मिले हुए सुगन्धित जल से परस्पर में फाग की अर्थात् वह सुगन्धित जल एक-दूसरे पर डाला ॥१९९॥ इस प्रकार अभिषेक की समाप्ति होनेपर सब देवों ने स्नान किया और फिर त्रिलोकपूज्य उत्कृष्ट ज्योतिस्वरूप भगवान् की प्रदक्षिणा देकर पूजा की ॥२००॥ सब इन्द्रों ने मन्त्रों से पवित्र हुए जल, गन्ध, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल और अर्घ के द्वारा भगवान् की पूजा की ॥२०१॥ इस तरह इन्होंने भगवान् की पूजा की, उसके प्रभाव से अपने अनिष्ट-अमंगलों का नाश किया और फिर पौष्टिक कर्म कर बड़े समारोह के साथ जन्माभिषेक की विधि समाप्त की ॥२०२॥ तत्पश्चात् इन्द्र इन्द्राणी ने समस्त देवों के साथ परम आनन्द देने वाले और क्षण-भर के लिए मेरु पर्वत पर चूड़ामणि के समान शोभायमान होने वाले भगवान् की प्रदक्षिणा देकर उन्हें नमस्कार किया ॥२०३॥ उस समय स्वर्ग से पानी की छोटी-छोटी बूँदों के साथ फूलों की वर्षा हो रही थी और वह ऐसी मालूम होती थी मानो स्वर्ग की लक्ष्मी के हर्ष से पड़ते हुए अश्रुओं की बूँदें ही हों ॥२०४॥ उस समय कल्पवृक्षों के पुष्पों से उत्पन्न हुए पराग-समूह को कँपाता हुआ और भगवान् के अभिषेक-जल की बूँदों को बरसाता हुआ वायु मन्द-मन्द बह रहा था ॥२०५॥ उस समय भगवान् वृषभदेव मेरु के समान जान पड़ते थे, देव कुलाचलों के समान मालूम होते थे, कलश दूध के मेघों के समान प्रतिभासित होते थे और देवियाँ जल से भरे हुए सरोवरों के समान आचरण करती थीं ॥२०६॥ जिनका अभिषेक कराने वाला स्वयं इन्द्र था, मेरु पर्वत स्नान करने का सिंहासन था, देवियाँ नृत्य करने वाली थीं, देव किंकर थे और क्षीरसमुद्र स्नान करने का कटाह (टब) था । इस प्रकार अतिशय प्रशंसनीय मेरु पर्वत पर जिनका स्नपन महोत्सव समाप्त हुआ था वे पवित्र आत्मा वाले भगवान् समस्त जगत् को पवित्र करें ॥२०७-२०८॥ अथानन्तर पवनकुमार जाति के देव अपनी उत्कृष्ट भक्ति को प्रत्येक दिशाओं में वितरण करते हुए के समान धीरे-धीरे चलने लगे और मेघकुमार जाति के देव उस मेरु पर्वत सम्बन्धी भूमि पर अमृत से मिले हुए जल के छींटों की अखण्ड धारा छोड़ने लगे-मन्द-मन्द जलवृष्टि करने लगे ॥२०९॥ जो वायु शीघ्र ही कल्पवृक्षों को हिला रहा था, जो आकाशगंगा की अत्यन्त शीतल तरङ्गों के उड़ाने में समर्थ था और जो किनारे के वनों से पुष्पों का अपहरण कर रहा था ऐसा वायु मेरु पर्वत के चारों ओर घूम रहा था और ऐसा मालूम होता था मानो उसकी प्रदक्षिणा ही कर रहा हो ॥२१०॥ देवों के हाथों से ताड़ित हुए दुन्दुभि बाजों का गम्भीर शब्द सुनाई दे रहा था और वह मानो जोर-जोर से यह कहता हुआ कल्याण की घोषणा ही कर रहा था कि जब त्रिलोकीनाथ भगवान् वृषभदेव का जन्ममहोत्सव तीनों लोकों में अनेक कल्याण उत्पन्न कर रहा है तब यहाँ अकल्याणों का रहना अनुचित है ॥२११॥ उस समय देवों के हाथ से बिखरे हुए कल्पवृक्षों के फूलों की वर्षा बहुत ही ऊँचे से पड़ रही थी, सुगन्धि के कारण वह चारों ओर से भ्रमरों को खींच रही थी और ऐसी मालूम होती थी मानो भगवान् के जन्मकल्याणक की पूजा देखने के लिए स्वर्ग की लक्ष्मी ने चारों ओर अपने नेत्रों की पङ्क्ति ही प्रकट की हो ॥२१२॥ इस प्रकार जिस समय अनेक देवांगनाएँ तालसहित नाना प्रकार की नृत्यकला के साथ नृत्य कर रही थीं उस समय इन्द्रादि देव और धरणेन्द्रों ने हर्षित होकर मेरु पर्वतपर क्षीरसागर के जल से जिनके जन्माभिषेक का उत्सव किया था वे परम पवित्र तथा तीनो लोकों के गुरु श्रीवृषभनाथ जिनेन्द्र सदा जयवन्त हों ॥२१३॥ जन्म होने के अनन्तर ही नाना प्रकार के वाहन, विमान और पयादे आदि के द्वारा आकाश को रोककर इकट्ठे हुए देव और असुरों के समूह ने मेरु पर्वत के मस्तक पर लाये हुए क्षीरसागर के पवित्र जल से जिनका अभिषेक कर जन्मोत्सव किया था वे प्रथम जिनेन्द्र तुम सबकी रक्षा करें ॥२१४॥ जिनके जन्माभिषेक के समय सूर्य ने शीघ्र ही अपनी उष्णता छोड़ दी थी, जल के छींटे बार-बार उछल रहे थे, चन्द्रमा ने शीतलता को धारण किया था, नक्षत्रों ने बंधी हुई छोटी-छोटी नौकाओं के समान जहाँ-तहाँ क्रीड़ा की थी, और तैरते हुए चंचल ताराओं के समुद्र ने फेन के पिण्ड के समान शोभा धारण की थी वे जगत् को पवित्र करने वाले जिनेन्द्र भगवान् सदा जयशील हों ॥२१५॥ मेरु पर्वत के मस्तक पर स्फुरायमान होता हुआ, जिनेन्द्र भगवान् के जन्माभिषेक का वह जल-प्रवाह हम सबकी रक्षा करे जिसे कि इन्द्रों ने बड़े आनन्द से, देवियों ने आश्चर्य से, देवों के हाथियों ने सूंड़ ऊँची उठाकर बड़े भय से, चारण ऋद्धिधारी मुनियों ने एकाग्रचित्त होकर बड़े आदर से और विद्याधरों ने यह क्या है ऐसी शंका करते हुए देखा था ॥२१६॥ इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध श्री भगवज्जिनसेनाचार्यविरचित त्रिषष्टि-लक्षणमहापुराणसंग्रह में भगवान के जन्माभिषेक का वर्णन करने वाला तेरहवां पर्व समाप्त हुआ ॥१३॥ |