कथा :
अथानन्तर पहले जिनका वर्णन किया जा चुका है ऐसे वे सर्वार्थसिद्धि के अहमिन्द्र स्वर्ग से अवतीर्ण होकर क्रम से भगवान् वृषभदेव की यशस्वती देवी में नीचे लिखे हुए पुत्र उत्पन्न हुए ॥१॥ भगवान् वृषभदेव की वज्रनाभि पर्याय में जो पीठ नाम का भाई था वह अब वृषभसेन नाम का भरत का छोटा भाई हुआ । जो राजश्रेष्ठी का जीव महापीठ था वह अनन्तविजय नाम का वृषभसेन का छोटा भाई हुआ ॥२॥ जो विजय नाम का व्याघ्र का जीव था वह अनन्त-विजय से छोटा अनन्तवीर्य नाम का पुत्र हुआ, जो वैजयन्त नाम का शूकर का जीव था वह अनन्तवीर्य का छोटा भाई अच्युत हुआ, जो वानर का जीव जयन्त था वह अच्युत से छोटा वीर नाम का भाई हुआ और जो नेवला का जीव अपराजित था, वह वीर से छोटा वरवीर हुआ ॥३॥ इस प्रकार भगवान् वृषभदेव के यशस्वती महादेवी से भरत के पीछे जन्म लेने वाले निन्यानवे पुत्र हुए, वे सभी पुत्र चरमशरीरी तथा बड़े प्रतापी थे ॥४॥ तदनन्तर जिस प्रकार शुक्लपक्ष पश्चिम दिशा में चन्द्रमा की निर्मल कला को उत्पन्न (प्रकट) करता है उसी प्रकार ब्रह्मा-भगवान् आदिनाथ ने यशस्वती नामक महादेवी में ब्राह्मी नाम की पुत्री उत्पन्न की ॥५॥ आनन्द पुरोहित का जीव जो पहले महाबाहु था और फिर सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुआ था, वह वहाँ से च्युत होकर भगवान् वृषभदेव की द्वितीय पत्नी सुनन्दा के देव के समान बाहुबली नाम का पुत्र हुआ ॥६॥ वज्रजंघ पर्याय में भगवान् वृषभदेव की जो अनुन्धरी नाम की बहन थी वह अब इन्हीं वृषभदेव की सुनन्दा नामक देवी से अत्यन्त सुन्दरी सुन्दरी नाम की पुत्री हुई ॥७॥ सुन्दरी पुत्री और बाहुबली पुत्र को पाकर सुनन्दा महारानी ऐसी सुशोभित हुई थी जिस प्रकार कि पूर्वदिशा प्रभा के साथ-साथ सूर्य को पाकर सुशोभित होती है ॥८॥ समस्त जीवों को मान्य तथा सर्वश्रेष्ठ रूपसम्पदा को धारण करने वाला बलवान् युवा बाहुबली उस काल के चौबीस कामदेवों में से पहला कामदेव हुआ था ॥९॥ उस बाहुबली का जैसा रूप था वैसा अन्य कहीं नहीं दिखाई देता था, सो ठीक ही है उत्तम आभूषण कल्पवृक्ष को छोड़कर क्या कहीं अन्यत्र भी पाये जाते हैं ॥१०॥ उसके भ्रमर के समान काले तथा कुटिल केशों के अग्रभाग कामदेव के शिर के कवच के सूक्ष्म लोहे के गोल तारों के समान शोभायमान होते थे ॥११॥ अष्टमी के चन्द्रमा के समान सुन्दर उसका विस्तृत ललाट ऐसी शोभा धारण कर रहा था मानो ब्रह्मा ने राज्यपट्ट को बाँधने के लिए ही उसे विस्तृत बनाया हो ॥१२॥ दोनों कुण्डलों से शोभायमान उसका मुख ऐसा देदीप्यमान जान पड़ता था मानो जिसके दोनों ओर समीप ही चकवा-चकवी बैठे हों-ऐसा कमल ही हो ॥१३॥ मन्द हास्य की किरणरूपी जल के पूर से भरा हुआ तथा लक्ष्मी के निवास करने से अत्यन्त पवित्र उसका मुखरूपी सरोवर नेत्ररूपी दोनों कमलों से भारी सुशोभित होता था ॥१४॥ वह बाहुबली अपने वक्षःस्थल पर लटकते हुए विजयछन्द नाम के हार से निर्झरनों द्वारा शोभायमान मरकतमणिमय पर्वत की शोभा धारण करता था ॥१५॥ उसके वक्षःस्थल के प्रान्तभाग में विद्यमान दोनों कन्धे ऐसी शोभा बढ़ा रहे थे मानो किसी द्वीप के पर्यन्त भाग में विद्यमान दो छोटे-छोटे पर्वत ही हों ॥१६॥ लम्बी भुजाओं को धारण करने वाले और तेज के भण्डारस्वरूप उस राजकुमार की दोनों ही भुजाएँ उत्कृष्ट बल को धारण करती थीं और इसीलिए उसका बाहुबली नाम सार्थक हुआ था ॥१७॥ जिस प्रकार कुलाचल पर्वत अपने मध्यभाग में लक्ष्मी के निवास करने योग्य बड़ा भारी सरोवर धारण करता है उसी प्रकार वह बाहुबली अपने शरीर के मध्यमाग में गम्भीर नाभिमण्डल धारण करता था ॥१८॥ करधनी से घिरा हुआ उसका कटिप्रदेश ऐसा सुशोभित होता था मानो किसी बड़े सर्प से घिरा हुआ अत्यन्त ऊँचे सुमेरु पर्वत का विस्तृत तट ही हो ॥१९॥ केले के खम्भे के समान शोभायमान उसके दोनों ऊरु ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो लक्ष्मी की हथेली के निरन्तर स्पर्श से ही अत्यन्त उज्ज्वल हो गये हों ॥२०॥ पराक्रम से सुशोभित रहने वाले उस बाहुबली की दोनों ही जंघाएँ शुभ थीं-शुभ लक्षणों से सहित थी और ऐसी जान पड़ती थीं मानो वह बाहुबली भविष्यत् काल में जो प्रतिमायोग तपश्चरण धारण करेगा उसके सिद्ध करने के लिए कारण ही हों ॥२१॥ उसके दोनों ही चरण लालकमल की शोभा धारण कर रहे थे क्योंकि जिस प्रकार कमल कोमल होता है उसी प्रकार उसके चरणों के तलवे भी कोमल थे, कमलों में जिस प्रकार दल (पंखुरियां) सुशोभित होते हैं उसी प्रकार उसके चरणों में अँगुलियांरूपी दल सुशोभित थे, कमल जिस प्रकार लाल होते हैं उसी प्रकार उसके चरण भी लाल थे और कमलों पर जिस प्रकार लक्ष्मी निवास करती है उसी प्रकार उसके चरणों में भी लक्ष्मी (शोभा) निवास करती थी ॥२२॥ इस प्रकार परम उदार और चरमशरीर को धारण करने वाला वह बाहुबली मानिनी स्त्रियों के हृदयरूपी छोटी-सी कुटी में कैसे प्रवेश कर गया था ? भावार्थ-स्त्रियों का हृदय बहुत ही छोटा होता है और बाहुबली का शरीर बहुत ही ऊँचा (सवा पाँच-सौ धनुष) था इसके सिवाय वह चरमशरीरी वृद्ध, (पक्ष में उसी भव से मोक्ष जाने वाला) था, मानिनी स्त्रियाँ चरमशरीरी अर्थात् वृद्ध पुरुष को पसन्द नहीं करती है, इन सब कारणों के रहते हुए भी उसका वह शरीर स्त्रियों का मान दूर कर उनके हृदय में प्रवेश कर गया यह भारी आश्चर्य की बात थी ॥२३॥ जिनका मन दूसरी जगह नहीं जाकर केवल बाहुबली में ही लगा हुआ है ऐसी स्त्रियाँ स्वप्न में भी उस बाहुबली के मनोहर रूप को इस प्रकार देखती थीं मानो वह रूप उनके चित्त में उकेर ही दिया गया हो ॥२४॥ उस समय स्त्रियां उसे मनोभव, मनोज, मनोभू, मन्मथ, अंगज, मदन और अनन्यज आदि नामों से पुकारती थीं ॥२५॥ ईख ही जिसका धनुष है ऐसा कामदेव अपने पुष्पों की मंजरीरूपी बाणों से समस्त जगत् का संहार कर देता है, इस बुद्धिरहित बात पर भला कौन विश्वास करेगा ? भावार्थ-कामदेव के विषय में ऊपर लिखे अनुसार जो किंवदन्ती प्रसिद्ध है वह सर्वथा युक्तिरहित है, हाँ, बाहुबली-जैसे कामदेव ही अपने अलौकिक बल और पौरुष के द्वारा जगत् का संहार कर सकते थे ॥२६॥ इस प्रकार वे सभी राजकुमार विद्या, कला, दीप्ति, कान्ति और सुन्दरता की लीला से राजकुमार भरत के समान थे ॥२७॥ जिस प्रकार हाथी क्रम-क्रम से मदावस्था का प्राप्त होते हैं उसी प्रकार भगवान् वृषभदेव के वे भरत आदि एक सौ एक पुत्र क्रम-क्रम से युवावस्था को प्राप्त हुए ॥२८॥ जिस प्रकार बगीचे के वृक्ष समूहों पर वसन्तऋतु का विस्तार अतिशय मनोहर जान पड़ता हुए उस प्रकार उस समय उन राजकुमारों में वह यौवन अतिशय मनोहर जान पड़ता था ॥२९॥ युवावस्था को प्राप्त हुए वे सभी पार्थिव अर्थात् राजकुमार पार्थिव अर्थात् पृथ्वी से उत्पन्न होने वाले वृक्षों के समान थे क्योंकि वे सभी वृक्षों के समान ही मन्दहास्यरूपी सफेद मंजरी, लाल वर्ण के हाथरूपी पल्लव और फल देने वाली ऊँची-ऊँची भुजारूपी शाखाओं को धारण करते थे ॥३०॥ जिसकी सुगन्धि सब ओर फैल रही है ऐसी धूप से उन राजकुमारों के शिर के बाल सुगन्धित किये जाते थे, उस सुगन्धि से अन्ध होकर भ्रमर आकर उन बालों में विलीन होते थे जिससे वे बाल ऐसे मालूम होते थे जिससे मानो वृद्धि से सहित ही हो रहे हों ॥३१॥ उन राजकुमारों के मुख की सुगन्ध सूँघने के लिए जो भ्रमरों की पंक्ति आती थी वह क्षण-भर के लिए व्याकुल होकर उनके समस्त शरीर में व्याप्त हुई सुगन्धि का अनुभव करने लगती थी । भावार्थ-उनके समस्त शरीर से सुगन्धि आ रही थी इसलिए मैं पहले किस जगह की सुगन्धि ग्रहण करूँ इस विचार से भ्रमर क्षण भर के लिए व्याकुल हो जाते थे ॥३२॥ उन राजकुमारों के दोनों कान मकर के चिह्न से चिह्नित रत्नमयी कुण्डलों से अलंकृत थे इसलिए ऐसे जान पड़ते थे मानो कामदेव ने उन पर अपना चिह्न ही लगा दिया हो ॥३३॥ कामदेव ने उनके नेत्ररूपी कमलों को बाण बनाकर और उनकी भौंहरूपी लताओं को धनुष की लकड़ी बनाकर समस्त स्त्रियों को अपने वश में कर लिया था ॥३४॥ उनका शरीर देदीप्यमान था, मुख सुन्दर था, नेत्रों का विलास मधुर था और कान समीप में विश्राम करने वाले नेत्ररूपी कमलों से सुशोभित थे ॥३५॥ उनकी भौंहें विलास से सहित थीं, ललाट प्रशंसनीय था, नासिका सुशोभित थी और उपमारहित कपोल चन्द्रमा की शोभा को भी तिरस्कृत करने वाले थे ॥३६॥ उनके ओठ कुछ-कुछ लाल वर्ण के थे मानो अनुराग के रस से ही लाल वर्ण के हो गये हो और स्वर मृदंग के शब्द के समान गम्भीर तथा कानों को प्रिय था ॥३७॥ उनके कण्ठ जिन मोतियों से घिरे हुए थे वे ठीक कण्ठ से उच्चारण होने योग्य अक्षरों के समान जान पड़ते थे क्योंकि जिस प्रकार अक्षर सूत्रमार्ग अर्थात्, मूल ग्रन्थ के अनुसार गुम्फित होते हैं उसी प्रकार वे मोती भी सूत्रमार्ग अर्थात् धागा में पिरोये हुए थे, अक्षर जिस प्रकार जगत् के जीवों के चित्त को आनन्द देने वाले होते हैं उसी प्रकार वे मोती भी उनके चित्त को आनन्द देने वाले थे, अक्षर जिस प्रकार कण्ठ स्थान से उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार मोती भी कण्ठ स्थान में पड़े हुए थे, और अक्षर जिस प्रकार शुद्ध अर्थात् निर्दोष होते हैं उसी प्रकार वे मोती भी शुद्ध अर्थात् निर्दोष थे ॥३८॥ उनका वक्षस्थल लक्ष्मी से आलिङ्गित था, कन्धे विजयलक्ष्मी से आलिङ्गित थे और घुटनों तक लम्बी भुजाएँ व्यायाम से कठोर थीं ॥३९॥ उनकी नाभि शोभा के खजाने की भूमि थी, सुन्दर थी और नेत्रों को सन्तोष देने वाली थी । इसी प्रकार उनका मध्यभाग अर्थात कटिप्रदेश भी ठीक जगत् के मध्यभाग के समान था ॥४०॥ जिन पर वस्त्र शोभायमान हो रहा है और करधनी लटक रही है ऐसे उनके स्थूल नितम्ब ऐसे जान पड़ते थे मानो कामदेवरूपी राजा के सुख देने वाले कपड़े के बने हुए तम्बू ही हों ॥४१॥ उनके ऊरु स्थूल थे, सुन्दर कान्ति के धारक थे और स्त्रीजनों का मन हरण करने वाले थे । उनकी जंघाएँ कामदेव के तरकश की सुन्दर आकृति को भी जीतने वाली थीं ॥४२॥ अपनी शोभा से लाल कमलों का भी तिरस्कार करने वाले उनके दोनों पैर ऐसे जान पड़ते थे मानो समस्त शरीर में रहने वाली जो कान्ति नीचे की ओर बहकर गयी थी उसे इकट्ठा करके ही बनाये गये हों ॥४३॥ इस प्रकार उन राजकुमारों के प्रत्येक अंग में जो प्रशंसनीय शोभा थी वह उन्ही के शरीर में थीं-वैसी शोभा किसी दूसरी जगह नहीं थी इसलिए अन्य पदार्थों का वर्णन कर उनके शरीर की शोभा का वर्णन करना व्यर्थ है ॥४४॥ उन राजकुमारों के स्वभाव से ही सुन्दर शरीर मणिमयी आभूषणों से ऐसे सुशोभित हो रहे थे जैसे कि खिले हुए फूलों से वन सुशोभित रहते हैं ॥४५॥ उन राजकुमारों के यष्टि, हार और रत्नावली आदि, मोती तथा रत्नों के बने हुए अनेक प्रकार के आभूषण थे ॥४६॥ उनमें से यष्टि नामक आभूषण शीर्षक, उपशीर्षक, अवघाटक, प्रकाण्डक और तरलप्रबन्ध के भेद से पाँच प्रकार का होता है ॥४७॥ उन राजकुमारों में किन्हीं के शीर्षक, किन्हीं के उपशीर्षक, किन्हीं के अवघाटक, किन्हीं के प्रकाण्डक और किन्हीं के तरलप्रतिबन्ध नाम की यष्टि कण्ठ का आभूषण हुई थी । उनकी वे पाँचों प्रकार की यष्टियाँ मणिमध्या और शुद्धा के भेद से दो-दो प्रकार की थीं । (जिसके बीच में एक मणि लगा हो उसे मणिमध्या और जिसके बीच में मणि नहीं लगा हो उसे शुद्धा यष्टि कहते हैं ।) ॥४८-४९॥ मणिमध्यमा यष्टि को सूत्र तथा एकावली भी कहते हैं और यदि यही मणिमध्यमा यष्टि सुवर्ण तथा मणियों से चित्र-विचित्र हो तो उसे रत्नावली भी कहते हैं ॥५०॥ जो यष्टि किसी निश्चित प्रमाण वाले सुवर्णमणि, माणिक्य और मोतियों के द्वारा बीच में अन्तर दे-देकर गुँथी जाती है उसे अपवर्तिका कहते हैं ॥५१॥ जिसके बीच में एक बड़ा स्थूल मोती हो उसे शीर्षक यष्टि कहते हैं और जिसके बीच में क्रम-क्रम से बढ़ते हुए तीन मोती हों उसे उपशीर्षक कहते हैं ॥५२॥ जिसके बीच में क्रम-क्रम से बढ़ते हुए पाँच मोती लगे हों उसे प्रकाण्डक कहते हैं, जिसके बीच में एक बड़ा मणि हो और उसके दोनों ओर क्रम-क्रम से घटते हुए छोटे-छोटे मोती लगे हों उसे अवघाटक कहते हैं ॥५३॥ और जिसमें सब जगह एक समान मोती लगे हों उसे तरलप्रतिबन्ध कहते हैं । ऊपर जो एकावली, रत्नावली और अपवर्तिका ये मणियुक्त यष्टियों के तीन भेद कहे हैं उनके भी ऊपर लिखे अनुसार प्रत्येक के शीर्षक, उपशीर्षक आदि पाँच-पाँच भेद समझ लेना चाहिए ॥५४॥ यष्टि अर्थात् लड़ियों के समूह को हार कहते हैं वह हार लड़ियों की संख्या के न्यूनाधिक होने से इन्द्रच्छन्द आदि के भेद से ग्यारह प्रकार का होता है ॥५५॥ जिसमें एक हजार आठ लड़ियाँ हों उसे इन्द्रच्छन्द हार कहते हैं । वह हार सबसे उत्कृष्ट होता है और इन्द्र चक्रवर्ती तथा जिनेन्द्रदेव के पहनने के योग्य होता है ॥५६॥ जिसमें इन्द्रच्छन्द हार से आधी अर्थात् पाँच सौ चार लड़ियाँ हों उसे विजयच्छन्द हार कहते हैं । यह हार अर्धचक्रवर्ती तथा बलभद्र आदि अन्य पुरुषों के पहनने योग्य कहा गया है ॥५७॥ जिसमें एक सौ आठ लड़ियाँ हो उसे हार कहते हैं और जिसमें मोतियों की इक्यासी लड़ियाँ हो उसे देवच्छन्द कहते हैं ॥५८॥ जिसमें चौंसठ लड़ियाँ हों उसे अर्धहार, जिसमें चौवन लड़ियाँ हों उसे रश्मिकलाप और जिसमें बत्तीस लड़ियों हों उसे गुच्छ कहते हैं ॥५९॥ जिसमें सत्ताईस लड़ियाँ हों उसे नक्षत्रमाला कहते हैं । यह हार अपने मोतियों से अश्विनी भरणी आदि नक्षत्रों की माला की शोभा की हँसी करता हुआ-सा जान पड़ता है ॥६०॥ मोतियों की चौबीस लड़ियों के हार को अर्धगुच्छ, बीस लड़ियों के हार को माणव और दश लड़ियों के हार को अर्धमाणव कहते हैं ॥६१॥ ऊपर कहे हुए इन्द्रच्छन्द आदि हारों के मध्य में जब माणि लगा दिया जाता है तब उन नामों के साथ माणव शब्द और भी सुशोभित होने लगता है अर्थात् इन्द्रच्छन्दमाणव, विजयछन्दमाणव आदि कहलाने लगते हैं ॥६२॥ जो एक शीर्षक हार है वह शुद्ध हार कहलाता है । यदि शीर्षक के आगे इन्द्रच्छन्द आदि उपपद भी लगा दिये जायें तो वह भी ग्यारह भेदों से युक्त हो जाता है ॥६३॥ इसी प्रकार उपशीर्षक आदि शुद्ध हारों के भी ग्यारह-ग्यारह भेद होते हैं । इस प्रकार सब हार पचपन प्रकार के होते हैं ॥६४॥ अर्धमाणव हार के बीच में यदि मणि लगाया गया हो तो उसे फलकहार कहते हैं । उसी फलकहार में जब सोने के तीन अथवा पाँच फलक लगे हों तो उसके सोपान और मणिसोपान के भेद से दो भेद हो जाते हैं । अर्थात् जिसमें सोने के तीन फलक लगे हों उसे सोपान कहते हैं और जिसमें सोने के पाँच फलक लगे हों उसे मणिसोपान कहते हैं । इन दोनों हारों में इतनी विशेषता है कि सोपान नामक हार में सिर्फ सुवर्ण के ही फलक रहते हैं और मणिसोपान नाम के हार में रत्नों से जड़े हुए सुवर्ण के फलक रहते हैं । (सुवर्ण के गोल दाने-गुरिया-को फलक कहते है) ॥६५-६६॥ इस प्रकार कर्मयुग के प्रारम्भ में भगवान् वृषभदेव ने अपने पुत्रों के लिए कण्ठ और वक्षःस्थल के अनेक आभूषण बनाये, और उन पुत्रों ने भी यथायोग्य रूप से वे आभूषण धारण किये ॥६७॥ इस तरह काठ तथा शरीर के अन्य अवयवों में धारण किये हुए आभूषणों से वे राजकुमार ऐसे सुशोभित होते थे मानो ज्योतिषी देवों का समूह हो ॥६८॥ उन सब राजकुमारों में तेजस्वियों में भी तेजस्वी भरत सूर्य के समान सुशोभित होता था और समस्त संसार से अत्यन्त सुन्दर युवा बाहुबली चन्द्रमा के समान शोभायमान होता था ॥६९॥ शेष राजपुत्र ग्रह, नक्षत्र तथा तारागण के समान शोभायमान होते थे । उन सब राजपुत्रों में ब्राह्मी दीप्ति के समान और सुन्दरी चाँदनी के समान सुशोभित होती थी ॥७०॥ उन सब पुत्र-पुत्रीयों से घिरे हुए सौभाग्यशाली भगवान् वृषभदेव ज्योतिषी देवों के समूह से घिरे हुए ऊँचे मेरु पर्वत की तरह सुशोभित होते थे ॥७१॥ अथानन्तर किसी एक समय भगवान् वृषभदेव सिंहासन पर सुख से बैठे हुए थे, कि उन्होंने अपना चित्त कला और विद्याओं के उपदेश देने में व्याप्त किया ॥७२॥ उसी समय उनकी ब्राह्मी और सुन्दरी नाम की पुत्रीयाँ माङ्गलिक वेषभूषा धारण कर उनके निकट पहुंची ॥७३॥ वे दोनों ही पुत्रीयाँ कुछ-कुछ उठे हुए स्तनरूपी कुड्मलों से शोभायमान और बाल्य अवस्था के अनन्तर प्राप्त होने वाली किशोर अवस्था में वर्तमान थी अतएव अतिशय सुन्दर जान पड़ती थीं ॥७४॥ वे दोनों ही कन्याएँ बुद्धिमती थीं, विनीत थीं, सुशील थीं, सुन्दर लक्षणों से सहित थीं, रूपवती थीं और मानिनी स्त्रियों के द्वारा भी प्रशंसनीय थीं ॥७५॥ हंसी की चाल को भी तिरस्कृत करने वाली अपनी सुन्दर चाल से जब वे पृथ्वी पर पैर रखती हुई चलती थीं, तब वे चारों ओर लाल कमलों के उपहार की शोभा को विस्तृत करती थीं ॥७६॥ उनके चरणों के नखरूपी दर्पणों में जो उन्हीं के शरीर का प्रतिबिम्ब पड़ता था उसके छल से वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो अपनी कान्ति से तिरस्कृत हुई दिक्कन्याओं को अपने चरणों से रौंदने के लिए ही तैयार हुई हों ॥७७॥ लीलासहित पैर रखकर चलते समय रुनझुन शब्द करते हुए उनके नुपूरों से जो सुन्दर शब्द होते थे उनसे वे ऐसी मालूम होती थीं मानो नुपूरों के शब्दों के बहाने हंसियों को बुलाकर उन्हें अपनी गति का सुन्दर विलास ही सिखला रही हो ॥७८॥ जिनके ऊरु अतिशय सुन्दर और जंघाएँ अतिशय कान्तियुक्त हैं ऐसी वे दोनों पुत्रीयाँ ऐसी जान पड़ती थीं मानो उनकी बढ़ती हुई कान्ति को वे लोगों के नेत्रों के मार्ग में चारों ओर स्वयं ही फेंक रही हों ॥७९॥ वे पुत्रीयाँ जिस स्थूल जघन भाग को धारण कर रही थीं वह करधनी तथा अधोवस्त्र से सुशोभित था और ऐसा मालूम होता था मानो करधनीरूपी तुरही बाजों से सुशोभित और कपड़े के चँदोवा से युक्त सौभाग्य देवता के रहने का घर ही हो ॥८०॥ वे कन्याएँ जिस गम्भीर नाभिमण्डल को धारण किए हुई थीं वह ऐसा जान पड़ता था मानो कामदेवरूपी यजमान ने लावण्यरूपी देवता की पूजा के लिए होमकुण्ड ही बनाया हो ॥८१॥ जिसमें कुछ-कुछ कालापन प्रकट हो चुका है ऐसी जिस रोमराजी को वे पुत्रीयाँ धारण कर रही थीं वह ऐसी मालूम होती थी मानो कामदेव के गृहप्रवेश के समय खेई हुई धूप के धूम की शिखा ही हो ॥८२॥ उन दोनों कन्याओं का मध्यभाग कृश था, उदर भी कृश था, हस्तरूपी पल्लव कुछ-कुछ लाल थे, भुजलताएँ कोमल थीं और स्तनरूपी कुड्मल कुछ-कुछ ऊंचे उठे हुए थे ॥८३॥ वे पुत्रीयाँ स्तनमण्डल पर पड़े हुए जिस मनोहर हार को धारण किए हुई थी वह अपनी किरणों से ऐसा शोभायमान हो रहा था मानो स्तनों के आलिंगन से उत्पन्न हुए सुख की आसक्ति से हँस ही रहा हो ॥८४॥ उनके कण्ठ बहुत ही सुन्दर थे, उनका स्वर कोयल की वाणी के समान मनोहर और मधुर था, ओठ ताम्रवर्ण अर्थात् कुछ-कुछ लाल थे, और मुख कुछ-कुछ प्रकट हुए मन्दहास्य की किरणों से मनोहर थे ॥८५॥ उनके दाँत सुन्दर थे, कटाक्षों-द्वारा देखना मनोहर था, नेत्रों की बिरौनी सघन थी और नेत्ररूपी कमल कामदेव के विजयी अस्त्र के समान थे ॥८६॥ शोभायमान कपोलों पर पड़े हुए केशों के प्रतिबिम्ब से वे कन्याएं, जिसमें कलंक प्रकट दिखायी दे रहा है ऐसे चन्द्रमा की शोभा को भी लज्जित कर रही थीं ॥८७॥ वे मालासहित जिस केशपाश को धारण कर रही थी वह ऐसा मालूम होता था मानो जिसके भीतर गंगा नदी का प्रवाह मिला हुआ है ऐसा यमुना नदी का लहराता हुआ प्रवाह ही हो ॥८८॥ इस प्रकार प्रत्येक अंग में रहने वाली कान्ति से उन दोनों की आकृति अत्यन्त सुन्दर थी और उससे वे ऐसी मालूम होती थीं मानो सौन्दर्य के समूह को एक जगह इकट्ठा करके ही बनायी गयी हों ॥८९॥ क्या ये दोनों दिव्य कन्याएँ हैं, अथवा नागकन्याएँ हैं ? अथवा दिक्कन्याएँ हैं अथवा सौभाग्य देवियाँ हैं, अथवा लक्ष्मी और सरस्वती देवी हैं अथवा उनकी अधिष्ठात्री देवी हैं अथवा उनका अवतार है अथवा क्या जगन्नाथ (वृषभदेव) रूपी महासमुद्र से उत्पन्न हुई लक्ष्मी हैं ? क्योंकि इनकी यह आकृति अनेक कल्याणों का अनुभव करने वाली है इस प्रकार लोग बड़े आश्चर्य के साथ जिनकी प्रशंसा करते हैं ऐसी उन दोनों कन्याओं ने विनय के साथ भगवान् के समीप जाकर उन्हें प्रणाम किया ॥९०-९३॥ दूर से ही जिनका मस्तक नम्र हो रहा है ऐसी नमस्कार करती हुई उन दोनों पुत्रीयों को उठाकर भगवान् ने प्रेम से अपनी गोद में बैठाया, उनपर हाथ फेरा, उनका मस्तक सूँघा और हँसते हुए उनसे बोले कि आओ, तुम समझती होगी कि हम आज देवों के साथ अमरवन को जायेंगी परन्तु अब ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि देव लोग पहले ही चले गए हैं ॥९४-९५॥ इस प्रकार भगवान् वृषभदेव क्षणभर उन दोनों पुत्रीयों के साथ क्रीड़ा कर फिर कहने लगे कि तुम अपने शील और विनयगुण के कारण युवावस्था में भी वृद्धा के समान हो ॥९६॥ तुम दोनों का यह शरीर, यह अवस्था और यह अनुपम शील यदि विद्या से विभूषित किया जाये तो तुम दोनों का यह जन्म सफल हो सकता है ॥९७॥ इस लोक में विद्यावान् पुरुष पण्डितों के द्वारा भी सम्मान को प्राप्त होता है और विद्यावती स्त्री भी सर्वश्रेष्ठ पद को प्राप्त होती है ॥९८॥ विद्या ही मनुष्यों का यश करने वाली है, विद्या ही पुरुषों का कल्याण करने वाली है अच्छी तरह से आराधना की गयी विद्या ही सब मनोरथों को पूर्ण करने वाली है ॥९९॥ विद्या मनुष्यों के मनोरथों को पूर्ण करने वाली कामधेनु है, विद्या ही चिन्तामणि है, विद्या ही धर्म, अर्थ तथा काम रूप फल से सहित सम्पदाओं की परम्परा उत्पन्न करती है ॥११०॥ विद्या ही मनुष्यों का बन्धु है, विद्या ही मित्र है, विद्या ही कल्याण करने वाली हे, विद्या ही साथ-साथ जाने वाला धन है और विद्या ही सब प्रयोजनों को सिद्ध करने वाली है ॥१०१॥ इसलिए हे पुत्रीयों, तुम दोनों विद्या ग्रहण करने में प्रयत्न करो क्योंकि तुम दोनों का विद्या ग्रहण करने का यही काल है ॥१०२॥ भगवान् वृषभदेव ने ऐसा कहकर तथा बार-बार उन्हें आशीर्वाद देकर अपने चित्त में स्थित श्रुत देवता को आदरपूर्वक सुवर्ण के विस्तृत पट्टे पर स्थापित किया, फिर दोनों हाथों से अ आ आदि वर्णमाला लिखकर उन्हें लिपि (लिखने का) उपदेश दिया और अनुक्रम से इकाई दहाई आदि अंकों के द्वारा उन्हें संख्या के ज्ञान का भी उपदेश दिया । भावार्थ-ऐसी प्रसिद्धि है कि भगवान् ने दाहिने हाथ से वर्णमाला और बायें हाथ से संख्या लिखी थी ॥१०३-१०४॥ तदनन्तर जो भगवान के मुख से निकली हुई है, जिसमें 'सिद्ध नमः' इस प्रकार का मंगलाचरण अत्यन्त स्पष्ट है, जिसका नाम सिद्धमातृ का है, जो स्वर और व्यंजन के भेद से दो भेदों को प्राप्त है, जो समस्त विद्याओं में पायी जाती है, जिसमें अनेक संयुक्त अक्षरों की उत्पत्ति है, जो अनेक बीजाक्षरों से व्याप्त है ओर जो शुद्ध मोतियों की माला के समान है ऐसी अकार को आदि लेकर हकार पर्यन्त तथा विसर्ग अनुस्वार जिह्वामूलीय और उपध्मानीय इन योगवाह पर्यन्त समस्त शुद्ध अक्षरावली को बुद्धिमती ब्राह्मी पुत्री ने धारण किया और अतिशय सुन्दरी सुन्दरीदेवी ने इकाई दहाई आदि स्थानों के क्रम से गणित शास्त्र को अच्छी तरह धारण किया ॥१०५-१०८॥ वाङ्मय के बिना न तो कोई शास्त्र है और न कोई कला है इसलिए भगवान् वृषभदेव ने सबसे पहले उन पुत्रीयों के लिए वाङ्मय का उपदेश दिया था ॥१०९॥ अत्यन्त बुद्धिमती उन कन्याओं ने सरस्वती देवी के समान अपने पिता के मुख से संशय विपर्यय आदि दोषों से रहित शब्द तथा अर्थ रूप समस्त वाङ्मय का अध्ययन किया था ॥११०॥ वाङ्मय के जानने वाले गणधरादि देव व्याकरण शास्त्र, छन्दशास्त्र और अलंकार शास्त्र इन तीनों के समूह को वाङ्मय कहते हैं ॥१११॥ उस समय स्वयम्भू अर्थात् भगवान वृषभदेव का बनाया हुआ एक बड़ा भारी व्याकरण शास्त्र प्रसिद्ध हुआ था उसमें सौ से भी अधिक अध्याय थे और वह समुद्र के समान अत्यन्त गम्भीर था ॥११२॥ इसी प्रकार उन्होंने अनेक अध्यायों में छन्दशास्त्र का भी उपदेश दिया था और उसके उक्ता अत्युक्ता आदि छब्बीस भेद भी दिखलाये थे ॥११३॥ अनेक विद्याओं के अधिपति भगवान् ने प्रस्तार, नष्ट, उदिष्ट, एकद्वित्रिलघुक्रिया, संख्या और अध्वयोग छन्दशास्त्र के इन छह प्रत्ययों का भी निरूपण किया था ॥११४॥ भगवान् ने अलंकारों का संग्रह करते समय अथवा अलंकार संग्रह ग्रन्थ में उपमा रूपक यमक आदि अलंकारों का कथन किया था, उनके शब्दालंकार और अर्थालंकार रूप दो मार्गों का विस्तार के साथ वर्णन किया था और माधुर्य ओज आदि दश प्राण अर्थात् गुणों का भी निरूपण किया था ॥११५॥ अथानन्तर ब्राह्मी और सुन्दरी दोनों पुत्रीयों की पदज्ञान (व्याकरण-ज्ञान) रूपी दीपिका से प्रकाशित हुई समस्त विद्याएं और कलाएं अपने आप ही परिपक्व अवस्था को प्राप्त हो गयी थीं ॥११६॥ इस प्रकार गुरु अथवा पिता के अनुग्रह से जिनने समस्त विद्याएँ पढ़ ली हैं ऐसी वे दोनों पुत्रीयाँ सरस्वती देवी के अवतार लेने के लिए पात्रता को प्राप्त हुई थी । भावार्थ-वे इतनी अधिक ज्ञानवती हौ गयी थीं कि साक्षात सरस्वती भी उनमें अवतार ले सकती थी ॥११७॥ जगद्गुरु भगवान् वृषभदेव ने इसी प्रकार अपने भरत आदि पुत्रों को भी विनयी बनाकर क्रम से आम्नाय के अनुसार अनेक शास्त्र पढ़ाये ॥११८॥ भगवान् ने भरत पुत्र के लिए अत्यन्त विस्तृत-बड़े-बड़े अध्यायों से स्पष्ट कर अर्थशास्त्र और संग्रह (प्रकरण) सहित नृत्यशास्त्र पढ़ाया था ॥११९॥ स्वामी वृषभदेव ने अपने पुत्र वृषभसेन के लिए जिसमें गाना बजाना आदि अनेक पदार्थों का संग्रह है और जिसमें सौ से भी अधिक अध्याय हैं ऐसे गन्धर्व शास्त्र का व्याख्यान किया था ॥१२०॥ अनन्तविजय पुत्र के लिए नाना प्रकार के सैकड़ों अध्यायों से भरी हुई चित्रकला-सम्बन्धी विद्या का उपदेश दिया और लक्ष्मी या शोभासहित समस्त कलाओं का निरूपण किया ॥१२१॥ इसी अनन्तविजय पुत्र के लिए उन्होंने सूत्रधार की विद्या तथा मकान बनाने की विद्या का उपदेश दिया । उस विद्या के प्रतिपादक शास्त्रों में अनेक अध्यायों का विस्तार था तथा उसके अनेक भेद थे ॥१२२॥ बाहुबली पुत्र के लिए उन्होंने कामनीति, स्त्री-पुरुषों के लक्षण, आयुर्वेद, धनुर्वेद, घोड़ा-हाथी आदि के लक्षण जानने के तन्त्र और रत्नपरीक्षा आदि के शास्त्र अनेक प्रकार के बड़े-बड़े अध्यायों के द्वारा सिखलाये ॥१२३-१२४॥ इस विषय में अधिक कहने से क्या प्रयोजन है ? संक्षेप में इतना ही बस है कि लोक का उपकार करने वाले जो-जो शास्त्र थे भगवान् आदिनाथ ने वे सब अपने पुत्रों को सिखलाये थे ॥१२५॥ जिस प्रकार स्वभाव से देदीप्यमान रहने वाले सूर्य का तेज शरद्ऋतु के आने पर और भी अधिक हो जाता है उसी प्रकार जिन्होंने अपनी समस्त विद्याएं प्रकाशित कर दी है ऐसे भगवान् वृषभदेव का तेज उस समय भारी अद्भुत हो रहा था ॥१२६॥ जिन्होंने समस्त विद्याएँ पढ़ ली है ऐसे पुत्रों से भगवान् वृषभदेव उस समय उस प्रकार सुशोभित हो रहे थे जिस प्रकार कि शरद्ऋतु में अधिक कान्ति को प्राप्त होने वाला सूर्य अपनी किरणों से सुशोभित होता है ॥१२७॥ अपने इष्ट पुत्र और इष्ट स्त्रियों से घिरे हुए भगवान् वृषभदेव का बहुत भारी समय निरन्तर अनेक प्रकार के दिव्य भोग भोगते हुए व्यतीत हो गया ॥१२८॥ इस प्रकार अनेक प्रकार के भोगों का अनुभव करते हुए भगवान् का बीस लाख पूर्व वर्षों का कुमारकाल पूर्ण हुआ था ऐसी उत्तम मुनि गणधरदेव ने गणना की है ॥१२९॥ इसी बीच में काल के प्रभाव से महौषधि, दिव्यौषधि, कल्पवृक्ष तथा सब प्रकार की औषधियाँ शक्तिहीन हो गयी थी ॥१३०॥ मनुष्यों के निर्वाह के लिए जो बिना बोये हुए उत्पन्न होने वाले धान्य थे वे भी काल के प्रभाव से पृथ्वी में प्राय: करके विरलता को प्राप्त हो गये थे-जहाँ कहीं कुछ-कुछ मात्रा में ही रह गये थे ॥१३१॥ जब कल्पवृक्ष रस, वीर्य और विपाक आदि से रहित हो गये तब वहां की प्रजा रोग आदि अनेक बाधाओं से व्याकुलता को प्राप्त होने लगी ॥१३२॥ कल्पवृक्षों के रस, वीर्य आदि के नष्ट होने से व्याकुल मनोवृत्ति को धारण करती हुई प्रजा जीवित रहने की इच्छा से महाराज नाभिराज के समीप गयी ॥१३३॥ तदनन्तर नाभिराज की आज्ञा से प्रजा भगवान् वृषभनाथ के समीप गयी और अपने जीवित रहने के उपाय प्राप्त करने की इच्छा से उन्हें मस्तक झुकाकर नमस्कार करने लगी ॥१३४॥ अथानन्तर अन्नादि के नष्ट होने से जिसे अनेक प्रकार के भय उत्पन्न हो रहे हैं और जो सबको शरण देने वाले भगवान् की शरण को प्राप्त हुई है ऐसी प्रजा सनातन-भगवान के समीप जाकर इस प्रकार निवेदन करने लगी कि ॥१३५॥ हे देव, हम लोग जीविका प्राप्त करने की इच्छा से आपकी शरण में आये हुए हैं इसलिए हे तीन लोक के स्वामी, आप उसके उपाय दिखलाकर हम लोग की रक्षा कीजिए ॥१३६॥ हे विभो, जो कल्पवृक्ष हमारे पिता के समान थे-पिता के समान ही हम लोगों की रक्षा करते थे वे सब मूलसहित नष्ट हो गये हैं और जो धान्य बिना बोये ही उत्पन्न होते थे वे भी अब नहीं फलते हैं ॥१३७॥ हे देव, बढ़ती हुई भूख प्यास आदि की बाधाएं हम लोगों को दु:खी कर रही है । अन्न-पानी से रहित हुए हम लोग अब एक क्षण भी जीवित रहने के लिए समर्थ नहीं हैं ॥१३८॥ हे देव, शीत, आतप, महावायु और वर्षा आदि का उपद्रव आश्रयरहित हम लोगों को दु:खी कर रहा है इसलिए आज इन सबके दूर करने के उपाय कहिए ॥१३९॥ हे विभो, आप इस युग के आदि कर्ता हैं और कल्पवृक्ष के समान उन्नत हैं, आपके आश्रित हुए हम लोग भय के स्थान कैसे हो सकते हैं ? ॥१४०॥ इसलिए हे देव, जिस प्रकार हम लोगों की आजीविका निरुपद्रव हो जाये, आज उसी प्रकार उपदेश देने का प्रयत्न कीजिए और हम लोगों पर प्रसन्न हूजिए ॥१४१॥ इस प्रकार प्रजाजनों के दीन वचन सुनकर जिनका हृदय दया से प्रेरित हो रहा है ऐसे भगवान आदिनाथ अपने मन में ऐसा विचार करने लगे ॥१४२॥ कि पूर्व और पश्चिम विदेह क्षेत्र में जो स्थिति वर्तमान है वही स्थिति आज यहाँ प्रवृत्त करने योग्य है उसी से यह प्रजा जीवित रह सकती है ॥१४३॥ वहाँ जिस प्रकार असी मषी आदि छह कर्म हैं, जैसी क्षत्रिय आदि वर्णों की स्थिति है और जैसी ग्राम-घर आदि की पृथक्-पृथक् रचना है उसी प्रकार यहाँ पर भी होनी चाहिए । इन्हीं उपायों से प्राणियों की आजीविका चल सकती है । इनकी आजीविका के लिए और कोई उपाय नहीं है ॥१४४-१४५॥ कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने पर अब यह कर्मभूमि प्रकट हुई है, इसलिए यहाँ प्रजा को असि, मषी आदि छह कर्मों के द्वारा ही आजीविका करना उचित है ॥१४६॥ इस प्रकार स्वामी वृषभदेव ने क्षणभर प्रजा के कल्याण करने वाली आजीविका का उपाय सोचकर उसे बार-बार आश्वासन दिया कि तुम भयभीत मत होओ ॥१४७॥ अथानन्तर भगवान् के स्मरण करने मात्र से देवों के साथ इन्द्र आया और उसने नीचे लिखे अनुसार विभाग कर प्रजा की जीविका के उपाय किये ॥१४८॥ शुभ दिन, शुभ नक्षत्र, शुभ मुहूर्त और शुभ लग्न के समय तथा सूर्य आदि ग्रहों के अपने-अपने उच्च स्थानों में स्थित रहने और जगद्गुरु भगवान् के हर एक प्रकार की अनुकूलता होने पर इन्द्र ने प्रथम ही मांगलिक कार्य किया और फिर उसी अयोध्या पुरी के बीच में जिनमन्दिर की रचना की । इसके बाद पूर्व दक्षिण पश्चिम तथा उत्तर इस प्रकार चारों दिशाओं में भी यथाक्रम से जिनमन्दिरों की रचना की ॥१४९-१५०॥ तदनन्तर कौशल आदि महादेश, अयोध्या आदि नगर, वन और सीमासहित गाँव तथा खेड़ों आदि की रचना की थी ॥१५१॥ सुकोशल, अवन्ती, पुण्ड्र, उण्ड्र, अश्मक, रम्यक, कुरु, काशी, कलिंग, अंग, बंग, सुहृा, समुद्रक, काश्मीर, उशीनर, आनर्त, वस्तु, पंचाल, मालव, दशार्ण, कच्छ, मगध, विदर्भ, कुरुजांगल, करहाट, महाराष्ट्र, सुराष्ट्र, आभीर, कोंकण, वनवास, आन्ध्र, कर्णाट, कोशल, चोल, केरल, दारु, अभिसार, सौवीर, शूरसेन, अपरान्तक, विदेह, सिन्धु, गान्धार, भवन, चेदि, पल्लव, काम्बोज, आरट्ट, वाह्लीक, तुरुष्क, शक और केकय इन देशों की रचना की तथा इनके सिवाय उस समय और भी अनेक देशों का विभाग किया ॥१५२-१५६॥ इन्द्र ने उन देशों में से कितने ही देश यथासम्भव रूप से अदेवमातृक अर्थात् नदी-नहरों आदि से सींचे जाने वाले, कितने ही देश देवमातृक अर्थात् वर्षा के जल से सींचे जानेवाले और कितने ही देश साधारण अर्थात् दोनों से सींचे जाने वाले निर्माण किये थे ॥१५७॥ जो पहले नहीं थे नवीन ही प्रकट हुए थे ऐसे देशों से वह पृथिवीतल ऐसा सुशोभित होता था मानो कौतुकवश स्वर्ग के टुकड़े ही आये हों ॥१५८॥ विजयार्ध पर्वत के समीप से लेकर समुद्र पर्यन्त कितने ही देश साधारण थे, कितने ही बहुत जल वाले थे और कितने ही जल की दुर्लभता से सहित थे, उन देशों से व्याप्त हुई पृथिवी भारी सुशोभित होती थी ॥१५९॥ जिस प्रकार स्वर्ग के धामों-स्थानों की सीमाओं पर लोकपाल देवों के स्थान होते हैं उसी प्रकार उन देशों की अन्त सीमाओं पर भी सब ओर अन्तपाल अर्थात् सीमारक्षक पुरुषों के किले बने हुए थे ॥१६०॥ उन देशों के मध्य में और भी अनेक देश थे जो लुब्धक, आरण्य, चरट, पुलिन्द तथा शबर आदि म्लेच्छ जाति के लोगों के द्वारा रक्षित रहते थे ॥१६१॥ उन देशों के मध्यभाग में कोट, प्राकार, परिखा, गोपुर और अटारी आदि से शोभायमान राजधानी सुशोभित हो रही थीं ॥१६२॥ जिनका दूसरा नाम स्थानीय है ऐसे राजधानीरूपी किले को घेरकर सब ओर शास्त्रोक्त लक्षण वाले गाँवों आदि की रचना हुई थी ॥१६३॥ जिनमें बाड़ से घिरे हुए घर हों, जिनमें अधिकतर शूद्र और किसान लोग रहते हों तथा जो बगीचा और तालाबों से सहित हों, उन्हें ग्राम कहते हैं ॥१६४॥ जिसमें सौ घर हो उसे निकृष्ट अर्थात् छोटा गाँव कहते हैं तथा जिसमें पाँच सौ घर हों और जिसके किसान धनसम्पन्न हो उसे बड़ा गाँव कहते हैं ॥१६५॥ छोटे गाँवों की सीमा एक कोस की और बड़े गाँवों की सीमा दो कोस की होती है । इन गाँवों के धान के खेत सदा सम्पन्न रहते हैं और इनमें घास तथा जल भी अधिक रहता है ॥१६६॥ नदी, पहाड़, गुफा, श्मशान, क्षीरवृक्ष अर्थात् थूवर आदि के वृक्ष, बबूल आदि कँटीले वृक्ष, वन और पुल ये सब उन गाँवों की सीमा के चिह्न कहलाते हैं अर्थात् नदी आदि से गाँवों की सीमा का विभाग किया जाता है ॥१६७॥ गाँव के बसाने और उपभोग करने वालों के योग्य नियम बनाना, नवीन वस्तु के बनाने और पुरानी वस्तु की रक्षा करने के उपाय, वहाँ के लोगों से बेगार कराना, अपराधियों का दण्ड करना तथा जनता से कर वसूल करना आदि कार्य राजाओं के अधीन रहते थे ॥१६८॥ जो परिखा, गोपुर, अटारी, कोट और प्राकार से सुशोभित हों, जिसमें अनेक भवन बने हुए हों, जो बगीचे और तालाबों से सहित हो, जो उत्तम रीति से अच्छे स्थान पर बसा हुआ हो, जिसमें पानी का प्रवाह पूर्व और उत्तर के बीच वाली ईशान दिशा की ओर हो और जो प्रधान पुरुषों के रहने के योग्य हो वह प्रशंसनीय पुर अथवा नगर कहलाता है ॥१६९-१७०॥ जो नगर नदी और पर्वत से घिरा हुआ हो उसे बुद्धिमान् पुरुष खेट कहते हैं और जो केवल पर्वत से घिरा हुआ हो उसे खर्वट कहते हैं ॥१७१॥ जो पाँच सौ गाँवों से घिरा हो उसे पण्डितजन मडम्ब मानते हैं और जो समुद्र के किनारे हो तथा जहाँ पर लोग नावों के द्वारा उतरते हैं- (आते-जाते हैं) उसे पत्तन कहते हैं ॥१७२॥ जो किसी नदी के किनारे पर हो उसे द्रोणमुख कहते हैं और जहाँ मस्तक पर्यन्त ऊँचे-ऊँचे धान्य के ढेर लगे हो वह संवाह कहलाता है ॥१७३॥ इस प्रकार पृथिवी पर जहाँ-तहाँ अपने-अपने योग्य स्थानों के अनुसार कहीं-कहीं पर ऊपर कहे हुए गाँव नगर आदि की रचना हुई थी ॥१७४॥ एक राजधानी में आठ सौ गांव होते हैं, एक द्रोणमुख में चार सौ गाँव होते हैं और एक खर्वट में दो सौ गाँव होते हैं । दश गाँवों के बीच जो एक बड़ा भारी गाँव होता है उसे संग्रह (जहाँ पर हर एक वस्तुओं का संग्रह रखा जाता हो) कहते हैं । इसी प्रकार घोष तथा आकर आदि के लक्षणों की भी कल्पना कर लेनी चाहिए अर्थात् वहाँ पर बहुत घोष (अहीर) रहते हैं उसे घोष कहते हैं और जहाँ पर सोने चाँदी आदि की खान हुआ करती है उसे आकर कहते हैं ॥१७५-१७६॥ इस प्रकार इन्द्र ने बड़े अच्छे ढंग से नगर, गाँवों आदि का विभाग किया था इसलिए वह उसी समय से पुरन्दर इस सार्थक नाम को प्राप्त हुआ था ॥१७७॥ तदनन्तर इन्द्र भगवान की आज्ञा से इन नगर, गाँव आदि स्थानों में प्रजा को बसाकर कृतकृत्य होता हुआ प्रभु की आज्ञा लेकर स्वर्ग को चला गया ॥१७८॥ असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प ये छह कार्य प्रजा की आजीविका के कारण हैं । भगवान् वृषभदेव ने अपनी बुद्धि की कुशलता से प्रजा के लिए इन्हीं छह कर्मों द्वारा वृत्ति (आजीविका) करने का उपदेश दिया था सो ठीक ही है क्योंकि उस समय जगद्गुरु भगवान् सरागी ही थे वीतराग नहीं थे । भावार्थ-सांसारिक कार्यों का उपदेश सराग अवस्था में दिया जा सकता है ॥१७९-१८०॥ उन छह कर्मों में से तलवार आदि शस्त्र धारणकर सेवा करना असिकर्म कहलाता है, लिखकर आजीविका करना मषिकर्म कहलाता है, जमीन को जोतना-बोना कृषिकर्म कहलाता है, शास्त्र अर्थात् पढ़ाकर या नृत्य-गायन आदि के द्वारा आजीविका करना विद्याकर्म है, व्यापार करना वाणिज्य है और हस्त की कुशलता से जीविका करना शिल्पकर्म है । वह शिल्पकर्म चित्र खींचना, फूल-पत्ते काटना आदि की अपेक्षा अनेक प्रकार का माना गया है ॥१८१-१८२॥ उसी समय आदि ब्रह्मा भगवान् वृषभदेव ने तीन वर्णों की स्थापना की थी जो कि क्षतत्राण अर्थात् विपत्ति से रक्षा करना आदि गुणों के द्वारा क्रम से क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र कहलाते थे ॥१८३॥ उस समय जो शास्त्र धारणकर आजीविका करते थे वे क्षत्रिय हुए, जो खेती, व्यापार तथा पशुपालन आदि के द्वारा जीविका करते थे वे वैश्य कहलाते थे और जो उनकी सेवा-शुश्रूषा करते थे वे शूद्र कहलाते थे । वे शूद्र दो प्रकार के थे-एक कारु और दूसरा अकारु । धोबी आदि शूद्र कारु कहलाते थे और उनसे भिन्न अकारु कहलाते थे । कारु शूद्र भी स्पृश्य तथा अस्पृश्य के भेद से दो प्रकार के माने गये हैं उनमें जो प्रजा से बाहर रहते हैं उन्हें अस्पृश्य अर्थात् स्पर्श करने के अयोग्य कहते हैं और नाई वगैरह को स्पृश्य अर्थात स्पर्श करने के योग्य कहते हैं ॥१८४-१८६॥ उस समय प्रजा अपने-अपने योग्य कर्मों को यथायोग्य रूप से करती थी । अपने वर्ण की निश्चित आजीविका को छोड़कर कोई दूसरी आजीविका नहीं करता था इसलिए उनके कार्यों में कभी शंकर (मिलावट) नहीं होता था । उनके विवाह, जाति सम्बन्ध तथा व्यवहार आदि सभी कार्य भगवान आदिनाथ की आज्ञानुसार ही होते थे ॥१८७॥ उस समय संसार में जितने पापरहित आजीविका के उपाय थे वे सब भगवान वृषभदेव की सम्मति में प्रवृत्त हुए थे सो ठीक है क्योंकि सनातन ब्रह्मा भगवान् वृषभदेव ही है ॥१८८॥ चूंकि युग के आदि ब्रह्मा भगवान् वृषभदेव ने इस प्रकार कर्मयुग का प्रारम्भ किया था इसलिए पुराण के जाननेवाले उन्हें कृतयुग नाम से जानते हैं ॥१८९॥ कृतकृत्य भगवान वृषभदेव आषाढ़मास के कृष्णपक्ष की प्रतिपदा के दिन कृतयुग का प्रारम्भ करके प्राजापत्य (प्रजापतिपने) को प्राप्त हुए थे अर्थात् प्रजापति कहलाने लगे थे ॥१९०॥ इस प्रकार जब कितना ही समय व्यतीत हो गया और छह कर्मों की व्यवस्था से जब प्रजा कुशलतापूर्वक सुख से रहने लगी तब देवों ने आकर शीघ्र ही उनका सम्राट् पद पर अभिषेक किया । उस समय उनका प्रभाव स्वर्गलोक और पृथ्वीलोक में खूब ही प्रकट हो रहा था ॥१९१-१९२॥ यद्यपि भगवान् के राज्याभिषेक का अन्य विशेष वर्णन करने से कोई लाभ नहीं है इतना वर्णन कर देना ही बहुत है कि आदर से भरे हुए देवों ने दिव्य जल से उन आदि ब्रह्मा भगवान् वृषभदेव का अभिषेक किया था तथापि उसका कुछ अन्य वर्णन कर दिया जाता है क्योंकि प्राय: साधारण मनुष्य अत्यन्त प्रसिद्ध बात को भी नहीं जानते हैं ॥१९३-१९४॥ उस समय समस्त संसार आनन्द से भर गया था, देव लोग इन्द्र को आगे कर स्वर्ग से अवतीर्ण हुए थे-उतरकर अयोध्यापुरी आये थे ॥१९५॥ उस समय अयोध्यापुरी खूब ही सजायी गयी थी । उसके मकानों के अग्रभाग पर बाँधी गयी पताकाओं से समस्त आकाश भर गया था ॥१९६॥ उस समय राजमन्दिर में बड़ी आनन्द-भेरियाँ बज रही थी, वार स्त्रियाँ मंगलगान गा रही थीं और देवांगनाएँ नृत्य कर रही थीं ॥१९७॥ देवों के बन्दीजन मंगलों के साथ-साथ भगवान् के पराक्रम पढ़ रहे थे और देव लोग सन्तोष से 'जय जीव' इस प्रकार की घोषणा कर रहे थे ॥१९८॥ राज्याभिषेक के प्रथम ही पृथिवी के मध्यभाग में जहाँ मिट्टी की वेदी बनायी गयी थी और उस वेदी पर जहाँ देव-कारीगरों ने बहुमूल्य-श्रेष्ठ आनन्दमण्डप बनाया था, जो रत्नों के चूर्णसमूह से बनी हुई रंगावली से चित्रित हो रहा था, जो नवीन खिले हुए बिखेरे गये पुष्पों के समूह से सुशोभित था, जहाँ मणियों से जड़ी हुई जमीन में ऊपर लटकते हुए मोतियों का प्रतिबिम्ब पड़ रहा था, जहाँ रेशमी वस्त्र के शोभायमान चंदोवा की छाया से रंगभूमि चित्रित हो रही थी, जहाँ मंगल द्रव्यों को धारण करने वाली देवांगनाओं से आने-जाने का मार्ग रुक गया था, जहाँ समीप में बड़े-बडे मंगलद्रव्य रखे हुए थे, जहाँ देवों की अप्सराएँ अपने हाथों से चंचल चमर ढोल रही थीं, जहाँ स्नान की सामग्री को लोग परस्पर एक दूसरे के हाथ में दे रहे थे, जहाँ लीलापूर्वक पैर रखकर इधर-उधर चलती हुई देवांगनाओं के रुनझुन शब्द करते हुए नुपूरों की झनकार से दशों दिशाएं शब्दायमान हो रही थीं, और जहाँ अनेक मंगलद्रव्यों का संग्रह हो रहा था ऐसे राजमहल के आँगनरुपी रंगभूमि में योग्य सिंहासन पर पूर्व दिशा की ओर मुख करके भगवान वृषभदेव को बैठाया और जब गन्धर्व देवों के द्वारा प्रारम्भ किए हुए संगीत के समय होने वाला मृदंग का गम्भीर शब्द समस्त दिक्तटों के साथ-साथ तीन लोकरूपी कुटी के मध्य में व्याप्त हो रहा था तथा नृत्य करती हुई देवांगनाओं के पढ़ें जाने वाले संगीत के स्वर में स्वर मिलाकर किन्नर जाति की देवियाँ कानों को सुख देने वाला भगवान का यश गा रही थीं उस समय देवों ने तीर्थोदक से भरे हुए सुवर्ण के कलशों से भगवान् वृषभदेव का अभिषेक करना प्रारम्भ किया ॥१९५-२०८॥ भगवान् के राज्याभिषेक के लिए गंगा और सिन्धु इन दोनों महानदियों का वह जल लाया गया था जो हिमवतपर्वत की शिखर से धारा रूप में नीचे गिर रहा था तथा जिसने पृथ्वीतल को छुआ तक भी नहीं था । भावार्थ-नीचे गिरने से पहले ही जो बरतनों में भर लिया गया था ॥२०९। इसके सिवाय गंगाकुण्ड से गंगा नदी का स्वच्छ जल लाया गया था और सिन्धुकुण्ड से सिन्धु नदी का निर्मल जल लाया गया था ॥२१०॥ इसी प्रकार ऊपर से पड़ती हुई अन्य नदियों का स्वच्छ जल भी उनके गिरने के कुण्डों से लाया गया था ॥२११॥ श्री ह्री आदि देवियाँ भी पद्म आदि सरोवरों का जल लायी थीं जो कि सुवर्णमय कमलों की केसर के समूह से पीतवर्ण हो रहा था ॥२१२॥ सायंकाल के समय खिलने वाले सुगन्धित कमलों की सुगन्ध से मधुर, अतिशय मनोहर और नीलकमलों सहित तालाबों का जल लाया गया था । जो बाहर प्रकट हुए मोतियों के समूह से अत्यन्त श्रेष्ठ है ऐसा लवणसमुद्र का जल भी लाया गया था ॥२१३॥ नन्दीश्वर द्वीप में जो अत्यन्त स्वच्छ जल से भरी हुई नन्दोत्तरा आदि वापिकाएँ हैं उनका भी स्वच्छ जल लाया गया था ॥२१४॥ इसके सिवाय क्षीरसमुद्र, नन्दीश्वर समुद्र तथा स्वयम्भूरमण समुद्र का भी जल सुवर्ण के बने हुए दिव्य कलशों में भरकर लाया गया था ॥२१५॥ इस प्रकार ऊपर कहे हुए प्रसिद्ध जल से जगद्गुरु भगवान् वृषभदेव का अभिषेक किया गया था । चूँकि भगवान् का शरीर स्वयं ही पवित्र था अत: अभिषेक से वह क्या पवित्र होता ? केवल भगवान् ने ही अपने स्वयं पवित्र अंगों से उस जल को पवित्र कर दिया था ॥२१६॥ उस समय भगवान के मस्तक पर देवों के द्वारा छोड़ी हुई जल की धारा ऐसी शोभायमान हो रही थी मानो उस मस्तक को राज्यलक्ष्मी का आश्रय समझ कर ही छोड़ी गयी हो ॥२१७॥ चर और अचर पदार्थों के गुरु भगवान् वृषभदेव के मस्तक पर पड़ती हुई जल की छटाएं ऐसी शोभायमान होती थीं मानो संसार का सन्ताप नष्ट करने वाली और निर्मल गुणों की सम्पदाएं ही हों ॥२१८॥ यद्यपि भगवान् का शरीर स्वभाव से ही पवित्र था तथापि इन्द्र ने गंगा नदी के जल से उसका अभिषेक किया था इसलिए उसकी पवित्रता और अधिक हो गयी थी ॥२१९॥ उस समय इन्द्रों ने केवल भगवान् के अंगों का ही प्रक्षालन नहीं किया था किन्तु देखने वाले पुरुषों की मनोवृत्ति, नेत्र और शरीर का भी प्रक्षालन किया था । भावार्थ-भगवान का राज्याभिषेक देखने में मनुष्य के मन, नेत्र तथा समस्त शरीर पवित्र हो गये थे ॥२२०॥ उस समय नृत्य करती हुई देवांगनाओं के कटाक्षरूपी बाण उस जल के प्रवाह में प्रतिबिम्बित हो रहे थे इसलिए ऐसे मालूम होते थे मानो उन पर तेज पानी रखा गया हो और इसलिए वे मनुष्यों के चित्त को भेदन कर रहे थे । भावार्थ-देवांगनाओं के कटाक्षों से देखने वाले मनुष्य के चित्त भिद जाते थे ॥२२१॥ भगवान के शरीर के संसर्ग से पवित्र हुई निर्मल जल से समस्त पृथिवी व्याप्त हो गयी थी इसलिए वह ऐसी जान पड़ती थी मानो स्वामी वृषभदेव की राज्य-सम्पदा से सन्तुष्ट होकर अपने शुभ भाग्य से बढ़ ही रही हो ॥२२२॥ इन्द्र जब सुवर्ण के बने हुए कलशों से भगवान का अभिषेक करते थे तब भगवान ऐसे सुशोभित होते थे जैसे कि सायंकाल में होने वाले बादलों से मेरु पर्वत सुशोभित होता है ॥२२३॥ नाभिराज को आदि लेकर जो बड़े-बड़े राजा थे उन सभी ने सब राजाओं में श्रेष्ठ यह वृषभदेव वास्तव में राजा के योग्य है ऐसा मानकर उनका एक साथ अभिषेक किया था ॥२२४॥ नगरनिवासी लोगों ने भी किसी ने कमलपत्र के बने हुए दोने से और किसी ने मिट्टी के घड़े से सरयू नदी का जल लेकर भगवान के चरणों का अभिषेक किया था ॥२२५॥ मागध आदि व्यन्तर देवों के इन्द्रों ने तीन ज्ञान को धारण करने वाले भगवान वृषभदेव की 'यह हमारे देश के स्वामी हैं' ऐसा मानकर प्रीतिपूर्वक पवित्र अभिषेक के द्वारा पूजा की थी ॥२२६॥ भगवान् वृषभदेव का सबसे पहले तीर्थजल से अभिषेक किया था फिर कषाय जल से अभिषेक किया गया और फिर सुगन्धित द्रव्यों से मिले हुए सुगन्धित जल से अन्तिम अभिषेक किया गया था ॥२२७॥ तदनन्तर जिनका अभिषेक किया जा चुका है ऐसे भगवान् ने कुछ-कुछ गरम जल से भरे हुए स्नान करने योग्य सुवर्ण के कुण्ड में प्रवेश कर सुखकारी स्नान का अनुभव किया था ॥२२८॥ भगवान ने स्नान करने के अन्त में जो माला, वस्त्र और आभूषण उतारकर पृथिवी पर छोड़ दिये थे-डाल दिये थे उनसे वह पृथ्वीरूपी स्त्री ऐसी मालूम होती थी मानो उसे स्वामी के शरीर का स्पर्श करने वाली वस्तुएं ही प्रदान की गयी हो । भावार्थ-लोक में स्त्री पुरुष प्रेमवश एक दूसरे के शरीर से छुए गये वस्त्राभूषण धारण करते हैं यहाँ पर आचार्य ने भी उसी लोकप्रसिद्ध बात को उत्प्रेक्षालंकार में गुम्फित किया है ॥२२९॥ इस प्रकार जब देवों के बन्दीजन उच्च स्वर से शुभस्नानसूचक मंगल-पाठ पढ़ रहे थे तब भगवान् वृषभदेव ने राज्यलक्ष्मी को धारण करने अथवा उसके साथ विवाह करने योग्य स्नान को प्राप्त किया था ॥२३०॥ तदनन्तर जिनका अभिषेक पूर्ण हो चुका है और जिनकी आरती की जा चुकी है ऐसे भगवान् को देवों ने स्वर्ग से लाये हुए माला, आभूषण और वस्त्र आदि से अलंकृत किया ॥२३१॥ 'महामुकुटबद्ध राजाओं के अधिपति भगवान वृषभदेव ही हैं' यह कहते हुए महाराज नाभिराज ने अपने मस्तक का मुकुट अपने हाथ से उतारकर भगवान् के मस्तक पर धारण किया था ॥२३२॥ जगत् मात्र के बन्धु भगवान् वृषभदेव के ललाट पर पट्टबन्ध भी रखा जो कि ऐसा मालूम होता था मानो यहाँ-वहाँ भागने वाली चंचल राज्यलक्ष्मी को स्थिर करने वाला एक बन्धन ही हो ॥२३३॥ उस समय भगवान् मालाएँ पहने हुए थे, उत्तम बल धारण किये हुए थे, उनके दोनों कानों में कुण्डल सुशोभित हो रहे थे । वे मस्तक पर लक्ष्मी के क्रीड़ाचल के समान मुकुट धारण किये हुए थे, कण्ठ में हारलता और कमर में करधनी पहने हुए थे । जिस प्रकार हिमवान् पर्वत गंगा का प्रवाह धारण करता है उसी प्रकार वे भी अपने कन्धे पर यज्ञोपवीत धारण किये थे । उनकी दोनों लम्बी भुजाएं कड़े, बाजूबन्द और अनन्त आदि आभूषणों से विभूषित थीं । उन भुजाओं से भगवान् ऐसे मालूम होते थे मानो शोभायमान बड़ी-बड़ी शाखाओं से सहित चलता-फिरता कल्पवृक्ष ही हो । उनके चरण नीलमणि के बने हुए नुपूरों से सहित थे इसलिए ऐसे जान पड़ते थे मानो जिन पर भ्रमर बैठे हुए हैं ऐसे खिले हुए दो लाल कमल ही हों । इस प्रकार प्रत्येक अंग में पहने हुए आभूषणरूपी सम्पदा से आदि ब्रह्मा भगवान् वृषभदेव ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो भूषणांग जाति के कल्पवृक्ष ही हो ॥२३४-२३८॥ तदनन्तर नाट्यशास्त्र को जानने वाला इन्द्र उस सभारूपी रंगभूमि में आनन्द के साथ आनन्द नाम का नाटक कर स्वर्ग को चला गया ॥२३९॥ जो अपना कार्य समाप्त कर चुके हैं और जिनके चित्त की वृत्ति भगवान के चरणों की सेवा में लगी हुई है ऐसे देव और असुर उस इन्द्र के साथ ही अपने-अपने स्थानों पर चले गये ॥२४०॥ अथानन्तर कर्मभूमि की रचना करने वाले भगवान् वृषभदेव ने राज्य पाकर महाराज नाभिराज के समीप ही प्रजा का पालन करने के लिए नीचे लिखे अनुसार प्रयत्न किया ॥२४१॥ भगवान् ने सबसे पहले प्रजा की सृष्टि (विभाग आदि) की, फिर उसकी आजीविका के नियम बनाये और फिर वह अपनी-अपनी मर्यादा का उल्लंघन न कर सकें इस प्रकार के नियम बनाये । इस तरह वे प्रजा का शासन करने लगे ॥२४२॥ उस समय भगवान् ने अपनी दोनों भुजाओं में शस्त्र धारण कर क्षत्रियों की सृष्टि की थी, अर्थात् उन्हें शस्त्रविद्या का उपदेश दिया था, सो ठीक ही है, क्योंकि जो हाथों में हथियार लेकर सबल शत्रुओं के प्रहार से निर्बलों की रक्षा करते हैं वे ही क्षत्रिय कहलाते हैं ॥२४३॥ तदनन्तर भगवान् ने अपने ऊरुओं से यात्रा दिखलाकर अर्थात् परदेश जाना सिखलाकर वैश्यों की रचना की सो ठीक ही है, क्योंकि जल स्थल आदि प्रदेशों में यात्रा कर व्यापार करना ही उनकी मुख्य आजीविका है ॥२४४॥ हमेशा नीच (दैन्य) वृत्ति में तत्पर रहने वाले शूद्रों की रचना बुद्धिमान् वृषभदेव ने पैरों से ही की थी क्योंकि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन उत्तम वर्णों की सेवा-शुश्रूषा आदि करना ही उनकी अनेक प्रकार की आजीविका है ॥२४५॥ इस प्रकार तीन वर्णों की सृष्टि तो स्वयं भगवान् वृषभदेव ने की थी, उनके बाद भगवान् वृषभदेव के बड़े पुत्र महाराज भरत सुख से शास्त्रों का अध्ययन कराते हुए ब्राह्मणों की रचना करेंगे, स्वयं पढ़ना, दूसरों को पढ़ाना, दान लेना तथा पूजा यज्ञ आदि करना उनके कार्य होंगे ॥२४६॥ (विशेष-वर्ण सृष्टि की ऊपर कही हुई सत्य व्यवस्था को न मानकर अन्य मतावलम्बियों ने जो यह मान रखा है कि ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, ऊरुओं से वैश्य और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए थे सो वह मिथ्या कल्पना ही है ।) वर्णों की व्यवस्था तब तक सुरक्षित नहीं रह सकती जब तक कि विवाह सम्बन्धी व्यवस्था न की जाये, इसलिए भगवान् वृषभदेव ने विवाह व्यवस्था इस प्रकार बनायी थी कि शूद्र शूद्रकन्या के साथ ही विवाह करे, वह ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की कन्या के साथ विवाह नहीं कर सकता । वैश्य वैश्यकन्या तथा शूद्रकन्या के साथ विवाह करे, क्षत्रिय क्षत्रियकन्या, वैश्यकन्या और शूद्रकन्या के साथ विवाह करे, तथा ब्राह्मण ब्राह्मणकन्या के साथ ही विवाह करे, परन्तु कभी किसी देश में वह क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कन्याओं के साथ भी विवाह कर सकता है ॥२४७॥ उस समय भगवान् ने यह भी नियम प्रचलित किया था कि जो कोई अपने वर्ण की निश्चित आजीविका छोड़कर दूसरे वर्ण की आजीविका करेगा वह राजा के द्वारा दण्डित किया जायेगा क्योंकि ऐसा न करने से वर्णसंकीर्णता हो जायेगी अर्थात् सब वर्ण एक हो जायेंगे-उनका विभाग नहीं हो सकेगा ॥२४८॥ भगवान् आदिनाथ ने विवाह आदि की व्यवस्था करने के पहले ही असि, मषि, कृषि, सेवा, शिल्प और वाणिज्य इन छह कर्मों की व्यवस्था कर दी थी । इसलिए उक्त छह कर्मों की व्यवस्था होने से यह कर्मभूमि कहलाने लगी थी ॥२४९॥ इस प्रकार ब्रह्मा-आदिनाथ ने प्रजा का विभाग कर उनके योग (नवीन वस्तु की प्राप्ति) और क्षेम (प्राप्त हुई वस्तु की रक्षा) की व्यवस्था के लिए युक्तिपूर्वक हा, मा और धिक्कार इन तीन दण्डों की व्यवस्था की थी ॥२५०॥ दुष्ट पुरुषों का निग्रह करना अर्थात् उन्हें दण्ड देना और सज्जन पुरुषों का पालन करना यह क्रम कर्मभूमि से पहले अर्थात् भोगभूमि में नहीं था क्योंकि उस समय पुरुष निरपराध होते थे-किसी प्रकार का अपराध नहीं करते थे ॥२५१॥ कर्मभूमि में दण्ड देने वाले राजा का अभाव होने पर प्रजा मात्स्यन्याय का आश्रय करने लगेगी अर्थात् जिस प्रकार बलवान् मच्छ छोटे मच्छों को खा जाते हैं उसी प्रकार अन्तरंग का दुष्ट बलवान पुरुष, निर्बल पुरुष को निगल जायेगा ॥२५२॥ यह लोग दण्ड के भय से कुमार्ग की ओर नहीं दौड़ेंगे इसलिए दण्ड देने वाले राजा का होना उचित ही है और ऐसा राजा ही पृथिवी को जीत सकता है ॥२५३॥ जिस प्रकार दूध देने वाली गाय से उसे बिना किसी प्रकार की पीड़ा पहुँचाये दूध दुहा जाता है और ऐसा करने से वह गाय भी सुखी रहती है तथा दूध दुहने वाले की आजीविका भी चलती रहती है उसी प्रकार राजा को भी प्रजा से धन वसूल करना चाहिए । वह धन अधिक पीड़ा न देने वाले करों (टैक्सों) से वसूल किया जा सकता है । ऐसा करने से प्रजा भी दु:खी नहीं होती और राज्य व्यवस्था के लिए योग्य धन भी सरलता से मिल जाता है ॥२५४॥ इसलिए भगवान वृषभदेव ने नीचे लिखे हुए पुरुषों को दण्डधर (प्रजा को दण्ड देने वाला) राजा बनाया है सो ठीक ही है क्योंकि प्रजा के योग और क्षेम का विचार करना उन राजाओं के ही अधीन होता है ॥२५५॥ भगवान् ने हरि, अकम्पन, काश्यप और सोमप्रभ इन चार महा भाग्यशाली क्षत्रियों को बुलाकर उनका यथोचित सम्मान और सत्कार किया । तदनन्तर राज्याभिषेक कर उन्हें महामाण्डलिक राजा बनाया । ये राजा चार हजार अन्य छोटे-छोटे राजाओं के अधिपति थे ॥२५६-२५७॥ सोमप्रभ, भगवान् से कुरुराज नाम पाकर कुरुदेश का राजा हुआ और कुरुवंश का शिखामणि कहलाया ॥२५८॥ हरि, भगवान् की आज्ञा से हरिकान्त नाम को धारण करता हुआ हरिवंश को अलंकृत करने लगा क्योंकि वह श्रीमान् हरिपराक्रम अर्थात् इन्द्र अथवा सिंह के समान पराक्रमी था ॥२५९॥ अकम्पन भी, भगवान् से श्रीधर नाम पाकर उनकी प्रसन्नता से नाथवंश का नायक हुआ ॥२६०॥ और काश्यप भी जगद्गुरु भगवान् से मधवा नाम प्राप्त कर उग्रवंश का मुख्य राजा हुआ सो ठीक ही है । स्वामी की सम्पदा से क्या नहीं मिलता है ? अर्थात् सब कुछ मिलता है ॥२६१॥ तदनन्तर भगवान् आदिनाथ ने कच्छ महाकच्छ आदि प्रमुख-प्रमुख राजाओं का सत्कार कर उन्हें अधिराज के पद पर स्थापित किया ॥२६२॥ इसी प्रकार भगवान् ने अपने पुत्रों के लिए भी यथायोग्य रूप से महल, सवारी तथा अन्य अनेक प्रकार की सम्पत्ति का विभाग कर दिया था सो ठीक ही है क्योंकि राज्य प्राप्ति का यही तो फल है ॥२६३॥ उस समय भगवान् ने मनुष्यों को इक्षु का रस संग्रह करने का उपदेश दिया था इसलिए जगत् के लोग उन्हें इक्ष्वाकु कहने लगे ॥२६४॥ 'गो' शब्द का अर्थ स्वर्ग है जो उत्तम स्वर्ग हो उसे सज्जन पुरुष 'गोतम' कहते हैं । भगवान् वृषभदेव स्वर्गों में सबसे उत्तम सर्वार्थसिद्धि से आये थे इसलिए वे 'गौतम' इस नाम को भी प्राप्त हुए थे ॥२६५॥ 'काश्य' तेज को कहते हैं भगवान् वृषभदेव उस तेज के रक्षक थे इसलिए 'काश्यप' कहलाते थे । उन्होंने प्रजा की आजीविका के उपायों का भी मनन किया था इसलिए वे मनु और कुलधर भी कहलाते थे ॥२६६॥ इनके सिवाय तीनों जगत् के स्वामी और विनाशरहित भगवान् को प्रजा 'विधाता' विश्वकर्मा और 'स्रष्टा' आदि अनेक नामों से पुकारती थी ॥२६७॥ भगवान् का राज्यकाल तिरसठ लाख पूर्व नियमित था सो उनका वह भारी काल, पुत्र-पौत्र आदि से घिरे रहने के कारण बिना जाने ही व्यतीत हो गया अर्थात् पुत्र-पौत्र आदि के सुख का अनुभव करते हुए उन्हें इस बात का पता भी नहीं चला कि मुझे राज्य करते समय कितना समय हो गया है ॥२६८॥ महा देदीप्यमान भगवान् वृषभदेव ने अयोध्या के राज्यसिंहासन पर आसीन होकर पुण्योदय से प्राप्त हुई साम्राज्यलक्ष्मी का सुख से अनुभव किया था ॥२६९॥ इस प्रकार सुर और असुरों के गुरु तथा अचिन्त्य धैर्य के धारण करने वाले भगवान वृषभदेव को इन्द्र उनके विशाल पुण्य के संयोग से भोगोपभोग की सामग्री भेजता रहता था जिससे वे सुखपूर्वक सन्तोष को प्राप्त होते रहते थे । इसलिए हे पण्डितजन, पुण्योपार्जन करने में प्रयत्न करो ॥२७०॥ इस संसार में पुण्य से ही सुख प्राप्त होता है । जिस प्रकार बीज के बिना अंकुर उत्पन्न नहीं होता उसी प्रकार पुण्य के बिना सुख नहीं होता । दान देना, इन्द्रियों को वश करना, संयम धारण करना, सत्यभाषण करना, लोभ का त्याग करना, और क्षमाभाव धारण करना आदि शुभ चेष्टाओं से अभिलषित पुण्य की प्राप्ति होती है ॥२७१॥ सुर, असुर, मनुष्य और नागेन्द्र आदि के उत्तम-उत्तम भोग, लक्ष्मी, दीर्घ आयु, अनुपम रूप, समृद्धि, उत्तम वाणी, चक्रवर्ती का साम्राज्य, इन्द्रपद, जिसे पाकर फिर संसार में जन्म नहीं लेना पड़ता ऐसा अरहन्त पद और अन्तरहित समस्त सुख देने वाला श्रेष्ठ निर्वाण पद इन सभी की प्राप्ति एक पुण्य से ही होती है इसलिए हे पण्डितजन, यदि स्वर्ग और मोक्ष के अचिंत्य महिमा वाले श्रेष्ठ सुख प्राप्त करना चाहते हो तो धर्म करो क्योंकि वह धर्म ही स्वर्गों के भोग और मोक्ष के अविनाशी अनन्त सुख की प्राप्ति कराता है । वास्तव में सुख प्राप्ति होना धर्म का ही फल है ॥२७२-२७३॥ हे सुधीजन, यदि तुम सुख प्राप्त करना चाहते हो तो हर्षित होकर श्रेष्ठ मुनियों के लिए दान दो, तीर्थंकरों को नमस्कार कर उनकी पूजा करो, शीलव्रतों का पालन करो और पर्व के दिन में उपवास करना नहीं भूलो ॥२७४॥ इस प्रकार जो प्रशस्त लक्ष्मी के स्वामी थे, स्थिर रहनेवाले भोगों का अनुभव करते थे, स्नेह रखने वाले अपने पुत्र पौत्रों के साथ सन्तोष धारण करते थे । इन्द्र सूर्य और चन्द्रमा आदि उत्तम-उत्तम देव जिनकी आज्ञा धारण करते थे, और जिन पर किसी की आज्ञा नहीं चलती थी ऐसे भगवान् वृषभदेव सिंहासन पर आरूढ़ होकर इस समुद्रान्त पृथ्वी का शासन करते थे ॥२७५॥ इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण आदिपुराणसंग्रह में भगवान् के साम्राज्य का वर्णन करने वाला सोलहवां पर्व समाप्त हुआ ॥१६॥ |