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पात्रकेसरी की कथा

  कथा 

कथा :

पात्रकेसरी आचार्य ने सम्‍यग्‍दर्शन का उद्योत किया था । उनका चरित मैं लिखता हूँ, वह सम्‍यग्‍दर्शन की प्राप्ति का कारण है ।

भगवान् के पंचकल्‍याणों से पवित्र और सब जीवों को सुख के देने वाले इस भारत वर्ष में एक मगध नामका देश है । वह संसार के श्रेष्‍ठ वैभव का स्‍थान है । उसके अन्‍तर्गत एक अहिछत्र नामका सुन्‍दर शहर है । उसकी सुन्‍दरता संसार को चकित करने वाली है ।

नगर वासियों के पुण्‍य से उसका अवनिपाल नाम का राजा बड़ागुणी था, सब राजविद्याओं का पंडित था । अपने राज्‍य का पालन वह अच्‍छी नीति के साथ करता था । उसके पास पाँच सौ अच्‍छे विद्वान् ब्राह्मण थे । वे वेद और वेदांग के जानकार थे । राजकार्य में वे अवनिपालको अच्‍छी सहायता देते थे । उनमें एक अवगुण था, वह यह कि उन्‍हें अपने कुल का बड़ाघमण्‍ड था । उससे वे सबको नीची दृष्टि से देखा करते थे । वे प्रातः काल और सायंकाल नियम पूर्वक अपना सन्‍ध्‍यावन्‍दनादि नित्‍यकर्म करते थे । उनमें एक विशेष बात थी, वह यह कि वे जब राजकार्य करने को राज सभा में जाते, तब उसके पहले कौतूहल से पार्श्‍वनाथ जिनालय में श्री पार्श्‍वनाथ की पवित्र प्रतिमा का दर्शन कर जाया करते थे ।

एक दिन की बात है वे जब अपना सन्‍ध्‍यावन्‍दनादि नित्‍यकर्म करके जिन मन्दिर में आये तब उन्‍होंने एक चारित्र भूषण नाम के मुनिराज की भगवान् के सम्‍मुख देवागम नाम का स्‍तोत्र का पाठ करते देखा । उन सब में प्रधान पात्रकेसरी ने मुनि से पूछा, क्‍या आप इस स्‍तोत्र का अर्थ भी जानते हैं ? सुनकर मुनि बोले—मैं इसका अर्थ नहीं जानता । पात्रकेसरी फिर बोले-साधुराज, इस स्तोत्र को फिर तो एक बार पढ़ जाइये । मुनिराज ने पात्रकेसरी कहे अनुसार धीरे-धीरे और पदान्‍त में विश्राम पूर्वक फिर देवागम को पढ़ा , उसे सुनकर लोगों का चित्त बड़ाप्रसन्‍न होता था ।

पात्रकेसरी की धारणा शक्ति बड़ी विलक्षण थी । उन्‍हें एक बार के सुनने से ही सब का सब याद हो जाता था । देवागम को भी सुनते ही उन्‍होंने याद कर लिया । अब वे उसका अर्थ विचारने लगे । उस समय दर्शनमोहनीयकर्म के क्षयोपशम से उन्‍हें यह निश्‍चय हो गया कि जिन भगवान् ने जो जीवा- जीवादिक पदार्थों का स्‍वरूप कहा है, वही सत्‍य है और सत्‍य नहीं है । इसके बाद वे घर पर जाकर वस्‍तु का स्वरूप विचारने लगे । सब दिन उनका उसी तत्‍वविचार में बीता । रात को भी उनका यही हाल रहा । उन्‍होंने विचार किया—जैन धर्म में जीवादिक पदार्थों को प्रमेय-जानने योग्‍य माना है और तत्‍वज्ञान-सम्‍यज्ञान को प्रमाण माना है । पर क्‍या आश्‍चर्य है कि अनुमान प्रमाण का लक्षण कहा ही नहीं गया । यह क्‍यों ? जैन धर्म के पदार्थों में उन्‍हें कुछ सन्‍देह हुआ, उससे उनका चित्त व्‍यग्र हो उठा । इतने ही में पद्मावती देवी का आसन कम्‍पायमान हुआ । वह उसी समय वहाँ आई और पात्रकेसरी से उसने कहा-आपको जैन धर्म के पदार्थों में कुछ सन्‍देह हुआ है, पर इसकी आप चिन्‍ता न करें । आप प्रातःकाल जब जिनभगवान् के दर्शन करने को जायँगे तब आपका सब सन्‍देह मिटकर आपको अनुमान प्रमाण का निश्‍चय हो जायगा । पात्रकेसरी से इस प्रकार कहकर पद्मावती जिन मंदिर गई और वहाँ पार्श्‍वजिन की प्रतिमा के फण पर एक श्‍लोक लिखकर वह अपने स्‍थान पर चली गई । वह श्‍लोक यह था --

अन्‍यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ।
नान्‍यथानुपपन्‍नत्‍वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ।।
अर्थात्-जहाँपर अन्‍यथानुपपत्ति है, वहाँ हेतु के दूसरे तीन रूप मानने से क्‍या प्रयोजन है ? तथा जहाँपर अन्‍यथानुप‍पत्ति नहीं है, वहाँ हेतु के तीन रूप मानने से भी क्‍या फल है । भावार्थ—साध्‍य के अभाव में न मिलने वाले को ही अन्‍यथानुपपन्‍न कहते हैं । इसलिये अन्‍यथानुपपत्ति हेतु का असाधारण रूप है । किन्‍तु बौद्ध इसको न मानकर हेतु के १- पक्षेसत्‍व, २- सपक्षेसत्‍व, ३- विपक्षाद्वयावृत्ति ये तीन रूप मानता है, सो ठीक नहीं हैं । क्योंकि कहीं-कहीं पर त्रैरूप्‍य के न होने पर भी अन्‍यथानुपपत्ति के बल से हेतु सद्धेतु होता है । और कहीं-कहीं पर त्रैरूप्‍य के होने पर भी अन्‍यथानुपपत्ति के न होने से हेतु सद्धेतु नहीं होता । जैसे एक मुहूर्त के अनन्‍तर शकटका उदय होगा, क्‍योंकि अभी कृतिका का उदय है। और यहाँ पर पक्षेसत्‍व न होने पर भी अन्‍यथानुपपत्ति के बल से हेतु सद्धेतु होता है । और ‘गर्भस्‍थ पुत्र श्‍याम होगा, क्‍योंकि यह मित्र का पुत्र है । यहाँ पर त्रैरूप्‍य के रहने पर भी अन्‍यथानुपपत्ति के न होने से हेतु सद्धेतु नहीं होता ।'

पात्रकेसरी ने जब पद्मावती को देखा तब ही उनकी श्रद्धा जैन धर्म में खूब दृढ़ हो गई थी, जो कि सुख देने वाली और संसार के परिवर्तन का नाश करने वाली है । पश्‍चात् जब वे प्रात: काल जैन मंदिर गये और श्री पार्श्‍वनाथ की प्रतिमा पर उन्‍हें अनुमान प्रमाण का लक्षण लिखा हुआ मिला तब तो उनके आनन्‍द का कुछ पार नहीं रहा । उसे देखकर उनका सब सन्‍देह दूर हो गया । जैसे सूर्योदय होने पर अन्‍धकार नष्‍ट हो जाता है ।

इसके बाद ब्राह्मण-प्रधान, पुण्‍यात्‍मा और जिन धर्म के परम श्रद्धालु पात्रकेसरी ने बड़ी प्रसन्‍नता के साथ अपने हृदय में निश्‍चय कर लिया कि जिनभगवान् ही निर्दोष और संसाररूपी समुद्र से पार करने वाले देव हो सकते है और जिन धर्म ही दोनों लोक में सुख देने वाला धर्म हो सकता है । इस प्रकार दर्शनमोहनी कर्म के क्षयोपशम से उन्‍हें सम्‍यक्‍त्‍वरूपी परम रत्‍न की प्राप्ति हो गई-उससे उनका मन बहुत प्रसन्‍न रहने लगा ।

अब उन्‍हें निरन्‍तर जिनधर्म के तत्‍वों की मीमांसाके सिवा कुछ सूझने ही न लगा-वे उनके विचार में मग्‍न रहने लगे । उनकी यह हालत देखकर उनसे उन ब्राह्मणों ने पूछा—आज कल हम देखते हैं कि आपने मीमांसा, गीतमन्‍याय, वेदान्‍त आदिका पठन-पाठन बिलकुल ही छोड दिया है और उनकी जगह जिनधर्म के तत्‍वों का ही आप विचार किया करते हैं, यह क्‍यों ? सुनकर पात्रकेसरी ने उत्‍तर दिया-आप लोगों को अपने वेदों का अभिमान है, उन पर ही आपका विश्‍वास है, इसलिये आपकी दृष्टि सत्‍य बात की ओर नहीं जाती । पर मेरा विश्‍वास आपसे उल्‍टा है, मुझे वेदों पर विश्‍वास न होकर जैन धर्म पर विश्‍वास है, वही मुझे संसार में सर्वोत्‍तम धर्म दिखता है । मैं आप लोगों से भी आग्रह पूर्वक कहता हूँ, कि आप विद्वान हैं, सच झूठ की परीक्षा कर सकते हैं, इसलिये जो मिथ्‍या हो, झूठा हो, उसे छोडकर सत्‍य को ग्रहण कीजिये और ऐसा सत्‍य धर्म एक जिनधर्म ही है, इसलिये वह ग्रहण करने योग्‍य है ।

पात्रकेसरी के इस उत्‍तर से उन ब्राह्मणों को सन्‍तोष नहीं हुआ । वे इसके विपरीत उनसे शास्‍त्रार्थ करने को तैयार हो गये । राजा के पास जाकर उन्‍होंने पात्रकेसरी के साथ शास्‍त्रार्थ करने की प्रार्थना की । राजाज्ञा के अनुसार पात्रकेसरी राजसभा में बुलवाये गये । उनका शास्‍त्रार्थ हुआ । उन्‍होंने वहाँ सब ब्राह्मणों को पराजित कर संसारपूज्‍य और प्रजा को सुख देने वाले जिनधर्म का खूब प्रभाव प्रगट किया और सम्‍यग्‍दर्शन की महिमा प्रकाशित की ।

उन्‍होंने एक जिनस्‍तोत्र बनाया, उसमें जिनधर्म के तत्‍वों का विवेचन और अन्‍यमतों के तत्‍वों का बड़े पाण्डित्‍य के साथ खण्‍डन किया गया है । उसका पठन-पाठन सबके लिये सुखका कारण है । पात्रकेसरी के श्रेष्‍ठ गुणों और अच्‍छे विद्वानों द्वारा उनका आदर सम्‍मान देखकर अवनिपाल राजा ने तथा उन ब्राह्मणों ने मिथ्‍यामत को छोड़कर शुभ भावों के साथ जैनमत को ग्रहण कर लिया ।

इस प्रकार पात्रकेसरी के उपदेश से संसार समुद्र से पार करने वाले सम्‍यग्दर्शन को और स्‍वर्ग तथा मोक्ष के देने वाले पवित्र जिनधर्म को स्‍वीकार कर अवनिपाल आदि ने पात्रकेसरी की बड़ी श्रद्धा के साथ प्रशंसा की कि द्विजोत्तम, तुमने जैन धर्म को बड़े पाण्डित्‍य के साथ खोज निकाला है, तुम्‍हीं ने जिन भगवान् के उपदेशित तत्‍वों के मर्मको अच्‍छी तरह समझा है, तुम ही जिन भगवान् के चरण कमलों की सेवा करने वाले सच्‍चे भ्रमर हो, तुम्‍हारी जितनी स्‍तुति की जाय थोड़ी है । इस प्रकार पात्रकेसरी के गुणों और पाण्डित्‍य की हृदय से प्रशंसा करके उन सबने उनका बड़ा आदर सम्‍मान किया ।

जिस प्रकार पात्रकेसरी ने सुख के कारण, परम पवित्र सम्‍यग्‍दर्शन का उद्योतकर उसका संसार में प्रकाश कर राजाओं के द्वारा सम्‍मान प्राप्‍त किया उसी प्रकार और भी जो जिनधर्म का श्रद्धानी होकर भक्ति पूर्वक सम्‍यग्‍दर्शन का उद्योत करेगा वह भी यशस्‍वी बनकर अंत में स्‍वर्ग या मोक्ष का पात्र होगा ।

कुन्‍दपुष्‍प, चन्‍द्र आदि के समान निर्मल और कीर्तियुक्‍त श्री कुन्‍दकुन्‍दाचार्य की आम्‍नाय में श्री मल्लिभूषण भट्टारक हुए । श्रुतसागर उनके गुरूभाई हैं । उन्‍हीं की आज्ञा से मैंने यह कथा श्री सिंहनन्‍दी मुनि के पास रहकर बनाई है । यह इसलिये कि इसके द्वारा मुझे सम्‍यक्त्‍वरत्‍न की प्राप्ति हो ।