+ कार्य कारण का भिन्न काल होने से क्षणिक में ही अर्थक्रिया संभव है नित्य में नहीं, इस प्रकार के बौद्ध के वाक्यों को शोधन करते हुए कहते हैं -
कार्योत्पत्तिर्विरुद्धा चेत्स्वयंकारणसत्तया॥
युज्येत क्षणिकेऽर्थेऽर्थक्रियासंभवसाधनम्॥6॥
अन्वयार्थ : अन्वयार्थ-[चेत् स्वयं कारणसत्तया] यदि स्वयं कारण की सत्ता से [कार्योत्पत्ति: विरुद्धा:] कार्य की उत्पत्ति विरुद्ध होवे, तब [क्षणिके अर्थे] क्षणिक अर्थ में [अर्थक्रिया संभव साधनं] अर्थक्रिया का होना सिद्ध [युज्येत] किया जा सके॥६॥

  अभयचन्द्रसूरि 

अभयचन्द्रसूरि :

(सर्वथा क्षणिक में अर्थक्रिया संभव नहीं है)

तात्पर्यवृत्ति-कार्यरूप उत्तर परिणाम का स्वरूप लाभ होना कार्य की उत्पत्ति है। स्वयं कारणकार्य उत्पन्न करने वाला द्रव्य का स्वरूप उपादान है। उसे स्वयं कारण कहते हैं और उसका अस्तित्व स्वयं कारण सत्ता है। यदि स्वयं द्रव्य स्वरूप उपादान की सत्ता से कार्य की उत्पत्ति विरुद्ध होवे तब क्षणिक अर्थ में अर्थक्रिया के संभव का अनुमान हो सके।

अर्थ-अभिमत प्रयोजन की क्रिया-निष्पत्ति अर्थक्रिया है, उसका संभवसाधन-‘नित्यक्रम यौगपद्य विरहात्’ नित्य में क्रम और युगपत् का अभाव है’ इत्यादि अनुमान है। निरन्तर विनश्वर को क्षणिक कहते हैं अर्थात् क्षणिक-विनश्वर पदार्थ में वह अर्थक्रिया संभव नहीं है।

तथा वह कार्य की उत्पत्ति विरुद्ध नहीं है क्योंकि कार्य के समय सत् रूप ही कारण होता है अन्यथा कार्य को आकस्मिकपने का प्रसंग आ जाएगा और क्षणिवैâकांत में कार्य-कारणभाव का विरोध है। जिसके अभाव में जो उत्पन्न होता है और जिसके सद्भाव में जो उत्पन्न नहीं होता है, उनमें कार्य-कारण भाव नहीं है अन्यथा अतिप्रसंग दोष आ जायेगा। इस हेतु से कथंचित् सत् को ही कारण अथवा कार्य स्वीकार कर लेना चाहिए। इस प्रकार वस्तु द्रव्य पर्यायात्मक ही है, क्योंकि उसी में अर्थक्रिया संभव है।

भावार्थ-बौद्ध का कहना है कि कारण रूप मृत्पिंड का सर्वथा निमूल चूल नाश होकर घटरूप कार्य बनता है। इस पर आचार्यों का कहना है कि स्वयं उपादान कारणरूप मृत्पिंड ही घट कार्य रूप से परिणत होता है, ऐसा स्पष्ट प्रतीत हो रहा है अतएव सर्वथा क्षणिक सिद्धांत में कार्य-कारण भाव सिद्ध नहीं होता है और न उस क्षणिक वस्तु में इष्ट प्रयोजन के होने रूप अर्थक्रिया ही संभव है अत: वस्तु कथंचित् नित्यानित्यात्मक स्वीकार करना चाहिए।