+ एकांत में भी एक में षट्कारक की व्यवस्था का होना कैसे घट सकता है ? ऐसी आशंका के होने पर आचार्य कहते हैं -
एकस्यानेकसामग्रीसन्निपातात्प्रतिक्षणं॥
षट्कारकी प्रकल्प्येत तथा कालादिभेदत:॥18॥
अन्वयार्थ : अन्वयार्थ-[एकस्य] एक में [अनेक सामग्री सन्निपातात्] अनेक सामग्री के सन्निधान से [प्रतिक्षणं]प्रतिक्षण [षट्कारकी] षट् कारकों की [प्रकल्प्येत] कल्पना होती है, [तथा कालादिभेदत:] वैसे ही काल आदि के भेद से भी षट्कारक की व्यवस्था होती है॥१८॥

  अभयचन्द्रसूरि 

अभयचन्द्रसूरि :

तात्पर्यवृत्ति-एक जीवादि वस्तु में भी छहों कारकों के समुदायरूप षट्कारक व्यवस्था प्रत्येक समय में घटित हो जाती है। कैसे ? अनेक सामग्री के सन्निपात होने से अर्थात् अनेक अंतरंग और बहिरंग, सामग्री कारण कलापों की सन्निधि होने से षट्कारकी घटित होती है। उसी को कहते हैं-जिस काल में चाक, चीवर आदि की सन्निधि होने से देवदत्त घट को करता है उसी काल में अपने प्रेक्षकजन के सन्निधान से वही देखा जाता है इसलिए वह कर्म है। प्रयोजन की अपेक्षा से देवदत्त के द्वारा कराता है इसलिए करण है। देने योग्य द्रव्य की अपेक्षा से देवदत्त को देता है इसलिए संप्रदान है। अपाय की अपेक्षा से देवदत्त से दूर होता है यह अपादान है। वहाँ पर स्थित द्रव्य की अपेक्षा से देवदत्त में कुण्डल है इस प्रकार अधिकरण है, इस प्रकार अविरोध से वैसी प्रतीति हो रही है क्योंकि प्रतीति में आते हुए विषय में विरोध नाम की कोई चीज नहीं है।

उसी प्रकार से युगपत् के समान ही काल, देश और आकार के भेद से, क्रम से भी षट्कारक रूप व्यवस्था होती है। उसी को स्पष्ट करते हैं-देवदत्त ने किया, करता है अथवा करेगा, इस प्रकार से प्रतीति के बल से सिद्ध है अथवा उस प्रकार एक में षट्कारक को घटित करने के समान काल आदि को भी घटित करना चाहिए।

कैसे ? कथंचित् अर्थ के भेद से कालादि की कल्पना करना चाहिए क्योंकि सर्वथा अभिन्न में संपूर्ण काल, कारक आदि भेद नहीं हो सकते हैं इसलिए स्याद्वाद में ही श्रुतज्ञान के विकल्प से वे सब घटित होते हैं। सभी नैगमादि सुनय हैं क्योंकि वे प्रत्यक्ष और अनुमान से अविरोधी हैं, अन्यत्र वे दुर्नय हैं क्योंकि प्रत्यक्षादि से विरोधी हैं। इस प्रकार भी भट्टाकलंक देव ने ‘‘भेदाभेदात्मके ज्ञेये१......’’ आदि रूप बहुत ही ठीक कहा है।

प्रश्न-नैगमादि सिद्धांत में नय कहे गये हैं यहाँ तो संग्रह आदि कहे गये हैं पुन: आपका कथन सिद्धांत से विरुद्ध क्यों नहीं होगा ?

उत्तर-ऐसी बात नहीं है, अभिप्राय का भेद है। सबसे कम विषय वाला इत्थंभूतनय है वह क्रिया के भेद से ही अर्थ में भेद करता है। उससे अधिक विषय वाला समभिरूढ़नय है क्योंकि वह पर्यायवाची शब्दों के भेद से अर्थ में भेद करता है। उससे अधिकतर विषय वाला शब्दनय है क्योंकि वह काल आदि के भेद से भेद करता है। उससे पुन: ऋजुसूत्रनय अधिकतम विषय वाला है क्योंकि वह शब्द के गोचर-अगोचर विवक्षित पर्याय को विषय करता है। उससे भी अधिक विषय वाला व्यवहारनय है क्योंकि वह पर्याय से विशिष्ट द्रव्य को ग्रहण करता है। उससे प्रचुर विषय वाला संग्रहनय है क्योंकि वह सकलद्रव्य और पर्याय में व्यापी है, सभी को ग्रहण करता है। पुन: उससे भी अधिक विषय वाला नैगमनय है क्योंकि वह सत्त्व और असत्त्व को गौण तथा मुख्यरूप से ग्रहण करता है इसलिए विषय की अपेक्षा से नैगम आदि नयों का पूर्व निपात सिद्धांत ग्रंथों में युक्त है किन्तु यहाँ पुन: न्यायशास्त्र में समस्त नास्तिकजनों के विसंवाद को दूर करने के लिए सकल पदार्थों के अस्तित्व को सूचित करने वाले संग्रहनय को पूर्व में रखने में विरोध का अभाव है।

विशेषार्थ-यहाँ पर आचार्य ने कारण सामग्री के मिलने से एक में ही षट्कारक व्यवस्था घटाई है। जैसे ‘वीर भगवान२’ सभी सुर-असुरों से पूजित हैं, वीर का बुद्धिमान लोग आश्रय लेते हैं, वीर ने अपने कर्मों के समूह को नष्ट कर दिया है,वीर के लिए भक्ति से मेरा नमस्कार होवे, वीर से यह धर्मतीर्थ प्रवृत्त हुआ है, वीर का तपश्चरण घोर-कठोर है, वीर में श्री, द्युति, कीर्ति, कांति और धृति रहती हैं, हे वीर! आपमें भद्र-कल्याण है। यहाँ पर संबोधन समेत आठ कारक हो गये हैं। षट्कारक में संबंध कारक और संशोधन कारक अपेक्षित नहीं रहते हैं।

यह षट्कारक व्यवस्था एक वस्तु में युगपत् भी घट जाती है और काल, देश, आकार आदि के क्रम से भी घटित होती है।

पुन: आचार्य ने कहा है कि नैगम आदि नय स्याद्वाद में, सुनय में और एकांत पक्ष में दुर्नय हैं। आगे प्रश्न यह हुआ है कि सिद्धांत ग्रंथों में इन नयों में नैगमनय सबसे प्रथम है। यहाँ आपने संग्रह को सबसे प्रथम लिया है इसलिए आपका कथन सिद्धांत से विरोधी है, इस पर आचार्यश्री ने उत्तर देते हुए कहा है कि नैगमनय का विषय सबसे अधिक है, उससे कुछ कम विषय संग्रहनय का है। आगे-आगे ये नय अल्प-अल्प विषय वाले होते हैं, इस अपेक्षा से सिद्धांत ग्रंथ में इनका क्रम नैगम से है किन्तु यहाँ न्यायशास्त्र में अन्य एकांतवादी जनों को समझाने की प्रधानता से कथन होता है। यहाँ पर नास्तिकवादी जनों की मान्यता का खंडन करने के लिए संपूर्ण अस्तित्व का ग्राहक संग्रहनय पहले कहा गया है इसलिए कोई दोष नहीं आता है। ऐसे ही अनेकों उदाहरण हैं-सिद्धांत ग्रंथ में मति, श्रुत दोनों ज्ञानों को परोक्ष कहा है और न्याय में मतिज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा है। सिद्धांत में दर्शन२ को स्वरूप को ग्रहण करने वाला माना है और न्याय में उसे सत्तामात्र को अवलोकन करने वाला माना है। सिद्धांत में इंद्रियों का क्रम स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र रूप से कहा है और मूलाचार में चक्षु, श्रोत, घ्राण आदि के अक्रम से कहा है। सिद्धांत में जीव, अजीव, आदााव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये तत्त्वों का क्रम है किन्तु समयसार में जीव, अजीव, आदााव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ऐसा क्रम कर दिया है।

कहने का मतलब यह है कि सिद्धांत ग्रंथों का कथन हीरे के कांटे के समान है और अन्य ग्रंथों का कथन अपेक्षाकृत अक्रम से भी हो जाता है किन्तु इस बात से पूर्वापर विरोध दोष नहीं समझना चाहिए।