
सूरि :
तात्पर्यवृत्ति-जिस अविरोध प्रकार से एक सौगत के द्वारा स्वीकृत क्षणिक स्वलक्षण एक क्षण में भिन्न-विप्रकृष्ट देश वाले कार्यों को ‘स्वसंतानवर्ती को उपादानरूप से और भिन्न संतानवर्ती को निमित्त रूप से उत्पन्न करता है। अथवा जैसे एक ही ज्ञान भिन्न देशार्थ अर्थात् विप्रकृष्ट नीलादि आकारों को व्याप्त करता है इसमें विरोध नहीं है। वैसे ही एक अभिन्न द्रव्य क्रम से काल भेद से पूर्व और अपर काल में होने वाले कार्यों को करता है, पूर्वाकार का परिहार, उत्तर आकार की प्राप्ति और स्थितिरूप से परिणमन करता है अथवा उन्हीं को व्याप्त करता है-उनके साथ तादात्म्य का अनुभव करता है, यह बात विरुद्ध नहीं है। एक के ही नाना देश के कार्यों को करना अविरुद्ध है किन्तु नाना काल के कार्य को करना विरुद्ध है। यह कथन भी अपने दर्शन का अनुराग मात्र ही है क्योंकि न्याय तो सर्वत्र समान होता है इसलिए जीवादि वस्तु एकानेकादि रूप से अनेकांतात्मक सिद्ध हैं अन्यथा अर्थक्रिया का विरोध हो जावेगा। भावार्थ-बौद्ध का कहना है कि एक क्षणिक स्वलक्षण भिन्न देशवर्ती कार्यों को उत्पन्न करता है और एक निरंश ज्ञान भिन्न देशवर्ती नीलादि आकारों में व्याप्त होता है किन्तु आचार्य कहते हैं कि वैसे ही सत् रूप से अभिन्न एक द्रव्य पूर्वोत्तर कालवर्ती कार्यों को करता है और उन्हीं को व्याप्त करके उन्हीं में तादात्म्य का अनुभव भी करता है अत: एक अनेक कार्य को नहीं कर सकता या अनेक धर्मों में व्याप्त नहीं रह सकता है ऐसा दोष कहाँ रहा ? भाई, न्याय तो दोनों जगह समान ही रहेगा। |