+ अब शब्द, समभिरूढ़ और इत्यंभूत इन तीनों नयों का भी निरूपण करते हैं -
कालकारकलिंगानां भेदाच्छब्दार्थभेदकृत्॥
अभिरूढस्तु पर्यायैरित्थंभूत: क्रियाश्रय:॥14॥
अन्वयार्थ : अन्वयार्थ-[कालकारकलिंगानां] काल, कारक और लिंगों के [भेदात्] भेद से [शब्दार्थ भेद कृत्] अर्थ में भेद को करने वाला शब्दनय है [पर्यायै: तु अभिरूढ़:] और पर्यायवाची शब्दों से भेद करने वाला समभिरूढ़नय है तथा [क्रियाश्रय: इत्थंभूत:] क्रिया के आश्रय से भेद करने वाला एवंभूतनय है।।१४।।

  सूरि 

सूरि :

तात्पर्यवृत्ति-जो अर्थ-प्रमेय में भेद-नानात्व को करने वाला है वह शब्द नय है। कैसे भेद करता है ? काल, कारक और लिंगों के भेद से भेद करता है। यह कथन उपलक्षणमात्र है अत: संख्या, साधन और उपग्रह से भी यह नय अर्थ में भेद करता है, ऐसा समझना। उसमें काल भेद को दिखाते हैं -

जीव था, है और होगा यह काल भेद है क्योंकि सत्ता भेद के बिना अभूत-था आदि प्रयोग युक्त नहीं है अन्यथा अतिप्रसंग हो जावेगा। कारक भेद से-देवदत्त देखता है, देवदत्त के द्वारा देखा जाता है, देवदत्त रक्षा करता है, देवदत्त के द्वारा दिया जाता है, देवदत्त से प्राप्त होता है, देवदत्त में पुरुषार्थ है। स्वातन्त्र आदि धर्म के भेद से अभेद में कर्ता आदि कारकों का प्रयोग युक्त नहीं है अन्यथा अतिप्रसंग हो जावेगा।

लिंग भेद से-दारा पुल्लिंग है, कलत्र नपुंसकलिंग है और भार्या ध्Eाीलिंग है, इनमें पुल्लिंग आदि धर्म से भेद होने पर भी इनका प्रयोग करने पर सर्वत्र उसके नियम के अभाव का प्रसंग हो जावेगा।

संख्या के भेद से-जलं एक वचन है, आप: बहुवचन है, आम्रवनं एकवचन है, चैत्रमैत्रौ द्विवचन है, कुलं एक वचन है। यहाँ एकत्व आदि धर्म के भेद से ही उन वचनों में भेद पाया जाता है अन्यथा अतिप्रसंग ही होगा।

साधन के भेद से-देवदत्त पकाता है, तुम पकाते हो, मैं पकाता हूँ। इस प्रकार निश्चित ही अन्य अर्थ आदि के अभाव में प्रथम पुरुषादि का प्रयोग नहीं देखा जाता है अन्यथा अतिप्रसंग ही है। उपग्रह के भेद से भी अर्थ में भेद देखा जाता है। जैसे तिष्ठति-ठहरता है, वितिष्ठते-जाता है, अवतिष्ठते-बैठता है। इस प्रकार से ‘वि अव’ आदि उपसर्गों का परस्पर में भेद होने से अर्थ में भेद हो जाता है अन्यथा प्रतिष्ठते-प्रस्थान करता है, इत्यादि में भी वही ठहरता है, ऐसे अर्थ का प्रसंग आ जावेगा।

अब कारिका के उत्तरार्ध का व्याख्यान करते हैं -

पर्यायवाची शब्दों से अर्थ में भेद को करने वाला समभिरूढ़ नाम का नय है। जैसे-चमकने से इंद्र,समर्थ होने से शक्र, पुरों में विभाग करने से पुरंदर इस प्रकार अर्थ होते हैं। यहाँ इंद्रन आदि धर्म में भेद का अभाव होने पर इंद्र आदि का प्रयोग करना शक्य नहीं है अन्यथा अतिप्रसंग हो जाता है। अभि-अपने अर्थ की तरफ अभिमुख होकर जो रूढ़ है-प्रसिद्ध है वह अभिरूढ़ नय है ऐसा निरुक्ति अर्थ है।

पुन: इत्थंभूत नय को कहते हैं-यह नय क्रिया के आश्रित है, विवक्षित क्रिया को प्रधान करता हुआ अर्थ में भेद को करने वाला है। जैसे-जिस समय ही इंद्रन क्रिया से युक्त है उसी काल में इंद्र है। वह न अभिषेक करने वाला है, न पुजारी है। यदि अन्य प्रकार से भी उसका सद्भाव मानेंगे तो क्रिया के शब्द के प्रयोग का नियम नहीं रह सकेगा इसलिए अर्थ में भेद का अभाव होने पर भी कालादि का भेद अविरुद्ध है, इस प्रकार का वैयाकरण का जो एकांत है। वह शब्दनयाभास आदि रूप है।

प्रश्न-इस प्रकार से तो लोक समय-व्याकरणशास्त्र में विरोध आ जाता है ?

उत्तर-लोक समय में विरोध होता है तो होवे, यहाँ तो तत्त्व के विचार में लोक समय की इच्छा के अनुसरण का अभाव है। औषधि रोगी की इच्छा के अनुरूप नहीं होती है।

प्रश्न-पुन: उस विरोध का अभाव कैसे होगा ?

उत्तर-स्यात्कार के बल से उस विरोध की समाप्ति हो जाती है ऐसा हम कहते हैं क्योंकि सर्वत्र प्रतिपक्ष की आकांक्षारूप उस स्यात्कार का अर्थ संभव है।

नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीन नय द्रव्य को विषय करने वाले होने से द्रव्यार्थिक हैं और ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ तथा एवंभूत ये चार नय पर्याय को विषय करने वाले होने से पर्यायार्थिक हैं। ये सभी नय परस्पर में एक-दूसरे की अपेक्षा रखते हुए ही व्यवहार के लिए प्रवृत्त होते हैं परस्पर में निरपेक्ष होकर नहीं, इसलिए व्यवहार की उपलब्धि में किस प्रकार से विरोध हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता है।

नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र ये चार अर्थ नय कहलाते हैं तथा शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत ये तीन नय शब्द नय कहलाते हैं क्योंकि इनकी प्रवृत्ति शब्द के आश्रय से होती है।

विशेषार्थ-इस कारिका में शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत इन तीन नयों का स्वरूप बताया है। यहाँ तक नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत इन सात नयों का स्वरूप हो चुका है। पूर्व के तीन नय द्रव्य को जानने वाले हैं इसीलिए वे द्रव्यार्थिक कहलाते हैं तथा शेष ऋजुसूत्र आदि चार नय पर्याय को जानने वाले हैं इसलिए पर्यायार्थिक कहलाते हैं।

उसी प्रकार नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र ये चारों पदार्थों को करने करने से अर्थ नय हैं और शब्द, समभिरूढ़ तथा एवंभूत ये नय शब्द के निमित्त से पदार्थ को विषय करते हैं अत: ये शब्दनय कहे जाते हैं।