+ अब इस समय आगम के स्वरूप का निरूपण करते हुए प्रवचन प्रवेश की आदि में और ग्रंथ के मध्य में मंगलभूत इष्ट देवता के गुणों की स्तुति करते हैं -
प्रणिपत्य महावीरं स्याद्वादेक्षणसप्तकं।
प्रमाणनयनिक्षेपानभिधास्ये यथागमं॥1॥

अन्वयार्थ : अन्वयार्थ-[ स्याद्वादेक्षणसप्तकं] स्यात् अस्ति आदि सप्तभंग रूप स्याद्वाद के अवलोकन करने वाले [महावीरं] अंतिम तीर्थंकर महावीर भगवान को [प्रणिपत्य] नमस्कार करके [प्रमाण नयनिक्षेपात्] मैं प्रमाण नय और निक्षेपों को [यथागमं] आगम के अनुसार [अभिधास्ये] कहूँगा।।१।।

  सूरि 

सूरि :

तात्पर्यवृत्ति-आगम में अर्थात् प्रवचन का उल्लंघन न करके अनादि परम्परा से प्रसिद्ध आर्ष- ऋषि प्रणीत ग्रंथों में जिस प्रकार से उन प्रमाण आदि का प्रतिपादन किया गया है, उसी प्रकार से उस आगम के अनुसार ही मैं प्रमाण, नय और निक्षेपों को प्रतिपादन करूँगा किन्तु स्वरुचि से रचित को नहीं कहूँगा, यह अर्थ हुआ। क्या करके कहूँगा ? अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर को प्रणाम करके कहूँगा। कैसे हैं वे भगवान्? स्याद्वाद-‘स्यात् अस्ति’ इत्यादि सप्तभंगमय वाद-कथन स्याद्वाद कहलाता है, ईक्षण के- अवलोकन के सात प्रकार ‘ईक्षण सप्तक’ कहलाते हैं, इन स्याद्वादरूपी सप्त भंगों का ईक्षण-अवलोकन जिनसे शिष्यों को इन स्याद्वादरूप सप्त भंगों का अवलोकन होता है वे महावीर भगवान ऐसे हैं अर्थात् शिष्यों को स्याद्वादरूप सप्तभंग का ज्ञान कराने वाले हैं क्योंकि निश्चितरूप से जो निरुपकार-उपकाररहित हैं वे प्रेक्षावान्-बुद्धिमानों को प्रमाण के योग्य नहीं हैं, अन्यथा अतिप्रसंग हो जावेगा।

भावार्थ-यहाँ पर स्याद्वाद के नायक श्री भगवान महावीर स्वामी को नमस्कार करके आचार्यश्री ने आगम के अनुसार प्रमाण, नय और निक्षेपों को कहने की प्रतिज्ञा की है क्योंकि इन प्रमाणादि के बिना वस्तु तत्त्व का यथार्थ निर्णय नहीं होता है।