+ अनादि-नित्‍य पर्यायार्थिकनय -
अनादिनित्‍यपर्यायार्थिको यथा पुद्गलपर्यायो नित्‍यो मेर्वादि: ॥58॥
अन्वयार्थ : अनादि-नित्‍य पर्यायार्थिक नय जैसे मेरू आदि पुद्गल की पर्याय नित्‍य है ।

  मुख्तार 

मुख्तार :

मेरू, कुलाचल पर्वत, अकृत्रिम जिनबिंब, जिनालाय आदि ये सब पुद्गल की पर्यायें अनादिकाल से हैं, अनन्‍तकाल तक रहेंगी, इनका कभी विनाश नहीं होगा अत: ये अनादि-नित्‍य-पर्यायार्थिक नय के विषय हैं । क्‍योंकि सभी पर्यायें विनाश को प्राप्‍त हों ऐसा एकान्‍त नहीं है। कहा भी है --

होदु वियंनणपज्‍जाओ, ण च वियंजणपज्‍जायस्‍स सव्‍वस्‍स विणासेण होदव्‍वमिदि णियमो अत्थि, एयंतवाद्प्‍पसंगादो । ण च ण विणस्‍सदि त्ति दव्‍वं होदि,
उप्‍पाय-ठ्टिदि-भंगसंगयस्‍स दव्‍वभाव-व्‍भुवगमादो ॥ध.७/१७८॥
अर्थ – 'अभव्‍यत्‍व' जीव की व्यंजन-पर्याय भले ही हो, किन्‍तु सभी व्यंजन-पर्याय का नाश अवश्‍य होना चाहिये, ऐसा कोई नियम नहीं है, क्‍योंकि ऐसा मानने से एकान्‍तवाद का प्रसंग आ जायगा । ऐसा भी नहीं है कि जो वस्‍तु विनष्‍ट नहीं होती वह द्रव्‍य ही होना चाहिये, क्‍योंकि जिसमें उत्‍पाद-ध्रौव्‍य और व्‍यय पाये जाते है उसे द्रव्‍यरूप से स्‍वीकार किया गया है ।

प्राकृत नयचक्र में भी कहा है --

अक्‍कट्टिमा अणिहणा ससिसूराईण पज्‍जया गिह्णइ ।
जो सो अणाइणिच्‍चो जिणभणिओ पज्‍जयत्थिणओ ॥प्रा.न.च.२७॥
अर्थ – जो नय चन्‍द्रमा, सूर्य आदि अकृत्रिम, अविनाशी पुद्गलपर्यायों को ग्रहण करता है वह अनादि-नित्‍य पर्यायार्थिक नय है ऐसा जिनेन्‍द्र भगवान ने कहा है ।

पर्यायार्थी भवेन्नित्‍याऽनादिनित्‍यार्थंगोचर: ।
चन्‍द्रार्कमेरूभूशैल-लोकादे: प्रतिपादक: ॥१॥
भरतादिक्षेत्राणि हिमवदादिपर्वता: पद्मादिसरोवराणि सुदर्शना-दिमेरूनगा: लवणकालोदकादिसमुद्रा: एतानि मध्‍यस्थितानि कृत्वा परिणताऽसंख्‍यातद्वीपसमुद्रा: अभ्रपटलानि भवनवासिवानव्‍यंतर-विमा‍नानि चन्‍द्रार्कमंडला ज्‍योतिर्विमानानि सौधर्मकल्‍पादिस्‍वर्गपटलानि यथायोग्‍यस्‍थाने परिणताऽकृत्रिमचैत्‍यचैत्‍यालया: मोक्षशिलाश्‍च बृहद् बातवलयाश्‍च इत्‍येवमाद्यनेकाश्‍चर्यरूपेण परिणतपुद्गलपर्यायाद्यनेक-द्रव्‍यपर्यायै: सह परिणतलोकमहास्‍कंघपर्याया: त्रिकालस्थिता: संतो-ऽनाद्यनिघना इति अनादि-नित्‍य-पर्यायार्थिक नय: ।
अर्थ – भरत आदि क्षेत्र, हिमवत् आदि पर्वत, पद्मादि सरोवर, सुदर्शन आदि मेरू पर्वत, लवण, कालोदधि आदि समुद्रों को मध्‍य में स्थित करके असंख्‍यात द्वीप-समुद्र स्थित हैं; नरक के पटल, भवनवासियों के विमान, व्‍यंतरों के विमान, चन्‍द्र, सूर्य आदि मंडल ज्‍योतिषियों के विमान और सौधर्म-कल्‍पादि स्वर्गों के पटल: यथायोग्‍य स्‍थानों में परिणत अकृत्रिम चैत्‍य चैत्‍यालय; मोक्ष-शिला और वृहद् वातवलय आदि अनेक आश्‍चर्य से युक्‍त परिणत पुद्गलों की अनेक द्रव्‍य-पर्याय सहित परिणत लोक-महास्‍कंध आदि पर्यायें त्रिकाल-स्थित हैं इसलिये अनादि-अनिधन है । इस प्रकार के विषय को ग्रहण करने वाला अनादि-नित्‍य पर्यायार्थिक नय है ।