विशेष :
| एक जीव की अपेक्षा प्रकृतिबंध अंतरानुगम |
| कर्म |
अन्तर |
| जघन्य |
उत्कृष्ट |
| ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, २ वेदनीय, ४ संज्वलन, पुरुष-वेद, ६ नोकषाय, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस, कार्मण, समचतुरस्र-संस्थान, वर्ण-चतुष्क, अगुरुलघु ४, प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४, स्थिर आदि २ युगल, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थंकर, ५ अन्तराय
| १ समय |
अंतर्मुहूर्त |
| निद्रा, प्रचला |
अंतर्मुहूर्त |
अंतर्मुहूर्त |
| स्त्यानगृद्धि त्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी ४ |
अंतर्मुहूर्त |
कुछ कम १३२ सागर |
| प्रत्याख्यानावरण, अप्रत्याख्यानावरण |
अंतर्मुहूर्त |
कुछ कम एक कोटि पूर्व |
| स्त्री-वेद |
१ समय |
कुछ अधिक १३२ सागर |
| नपुंसक-वेद, ५ संस्थान, ५ संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, नीच-गोत्र |
१ समय |
कुछ कम ३ पल्य अधिक १३२ सागर |
| ३ आयु (नरक, देव, मनुष्य) |
अंतर्मुहूर्त |
असंख्यात पुद्गलपरावर्तन |
| तिर्यंच आयु |
अंतर्मुहूर्त |
पृथक्त्व १०० सागर |
| वैक्रियिक-षटक् |
१ समय |
असंख्यात पुद्गलपरावर्तन |
| तिर्यंच-द्विक, उद्योत |
१ समय |
पृथक्त्व १६३ सागर |
| मनुष्य-द्विक, उच्च गोत्र |
१ समय |
असंख्यात लोक प्रमाण |
| ४ जाति, आतप, स्थावर-चतुष्क |
१ समय |
१२५ सागर |
| औदारिक-द्विक, वज्रऋषभनाराच-संहनन |
१ समय |
कुछ कम ३ पल्य |
| आहारक-द्विक |
अंतर्मुहूर्त |
कुछ कम अर्ध पुद्गलपरावर्तन |
| महबंधो - 1 (अंतराणुगमपरूवणा) |
| *कोई एक तिर्यंच या मनुष्य चौदह सागर स्थितिवाले लान्तव, कापिष्ठ देवों में उत्पन्न हुआ। वहाँ एक सागरोपम काल बिताकर द्वितीय सागरोपम के आरम्भ में सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ, तथा तेरह सागर काल सम्यक्त्व सहित व्यतीत कर मरा और मनुष्य हुआ। वहाँ संयम अथवा संयमासंयम का पालन कर इस मनुष्यभव सम्बन्धी आयु से कम बाईस सागरवाले आरण, अच्युत कल्प में उत्पन्न हुआ। वहाँ से मरकर पुनः मनुष्य हुआ। संयम को पालन कर उपरिम ग्रैवेयक में उत्पन्न हुआ और मनुष्य आयु से न्यून इकतीस सागर की आयु प्राप्त की। वहाँ अन्तर्मुहर्त कम छयासठ सागर काल के चरम समय में मिश्र गुणस्थानवाला हुआ । अन्तर्मुहूर्त विश्राम कर पुनः सम्यक्त्वी हुआ। विश्राम ले, चयकर मनुष्य हुआ। संयम या संयमासंयम को पालन कर इसे मनुष्य भव की आयु से न्यून बीस सागर की आयुवाले आनत-प्राणन देवों में उत्पन्न होकर पुनः यथाक्रम से मनुष्यायु से कम बाईस तथा चौबीस सागर के देवों में उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्त कम दो छयासठ सागर काल के अन्तिम समय में मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त कम दो छयासठ सागर अर्थात् एक सौ बत्तीस सागर काल प्रमाण अन्तर हुआ। यह क्रम अव्युत्पन्न लोगों को समझाने को कहा है। परमार्थदृष्टि से किसी भी तरह छयासठ सागर का काल पूर्ण किया जा सकता है। (ध० टी० अन्तरा० पृ०६-७) |
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