पानि-जुगुल-पुट सीस धरि, मानि अपनपौ दास ।
आनि भगति चित जानि प्रभु, बन्दौं पास-सुपास ॥१॥
गङ्ग मांहि आइ धसी द्वै नदी बरुना आसी,
बीच बसी बनारसी नगरी बखानी है ।
कसीवार देस मध्य गांउ तातहिं कासी नांउ,
श्री सुपास-पास की जनम-भूमि मानी है ।
तहां दुहू जिन सिव-मारग प्रगट कीनौ,
तब सेती सिवपुरी जगत महिं जानी है ।
ऐसी बिधि नाम थपे नगरी बनारसी के,
और भान्ति कहै सो तौ मिथ्यामत-बानी है ॥२॥
जिन-पहिरी-जिन-जनमपुर-नाम-मुद्रिका-छाप ।
सो बनारसी निज कथा, कहै आप सौं आप ॥३॥
जैन-धर्म श्रीमाल सुबंस, बानारसी नाम नर-हंस ।
तिन मन मांहि बिचारी बात, कहौं आपनी कथा बिख्यात ॥४॥
जैसी सुनी बिलोकी नैन, तैसी कछू कहौं मुख-बैन ।
कहौं अतीत-दोष-गुण-वाद, बरतमान तांई मरजाद ॥५॥
भावी दसा होइगी जथा, ग्यानी जानै तिस की कथा ।
तातहिं भई बात मन आनि, थूल-रूप कछु कहौं बखानि ॥६॥
मध्यदेस की बोली बोलि, गर्भित बात कहौं हिय खोलि ।
भाखूं पूरब-दसा-चरित्र, सुनहु कान धरि मेरे मित्र ॥७॥
याही भरत सुखेत महिं, मध्यदेस सुभ ठांउ ।
बसै नगर रोहतग-पुर, निकट बिहोली-गांउ ॥८॥
गांउ बिहोली महिं बसै, राज-बंस रजपूत ।
ते गुरु-मुख जैनी भए, त्यागि करम अदभूत ॥९॥
पहिरी माला मन्त्र की, पायौ कुल श्रीमाल ।
थाप्यौ गोत बिहोलिआ, बीहोली-रखपाल ॥१०॥
भई बहुत बंसावली, कहौं कहां लौं सोइ ।
प्रगटे पुर रोहतग महिं, गाङ्गा गोसल दोइ ॥११॥
तिन के कुल बस्ता भयौ, जा कौ जस परगास ।
बस्तपाल के जेठमल, जेठू के जिनदास ॥१२॥
मूलदास जिनदास के, भयौ पुत्र परधान ।
पढ़्यौ हिन्दुगी पारसी, भागवान बलवान ॥१३॥
मूलदास बीहोलिआ, बनिक वृत्ति के भेस ।
मोदी ह्वैकै मुगल कौ, आयौ मालव-देस ॥१४॥
मालव-देस परम सुख-धाम, णरवर नाम नगर अभिराम ।
तहां मुगल पाई जागीर, साहि हिमाऊं कौ बर बीर ॥१५॥
मूलदास सौं बहुत कृपाल, करै उचापति सौं पै माल ।
सम्बत सोलह सै जब जान, आठ बरस अधिके परबान ॥१६॥
सावन सित पञ्चमी रबिबार, मूलदास-घर सुत अवतार ।
भयौ हरख खरचे बहु दाम, खरगसेन दीनौं यहु नाम ॥१७॥
सुख सौं बरस दोइ चलि गए.घनमल नाम और सुत भए ।
बरस तीन जब बीते और, घनमल काल कियौ तिस ठौर ॥१८॥
घनमल घन-दल उड़ि गए, काल-पवन-सञ्जोग ।
मात-तात तरुवर तए, लहि आतप सुत-सोग ॥१९॥
लघु-सुत-सोक कियौ असराल, मूलदास भी कीनौं काल ।
तेरहोत्तरे सम्बत बीच, पिता-पुत्र कौं आई मीच ॥२०॥
खरगसेन सुत माता साथ, सोक-बिआकुल भए अनाथ ।
मुगल गयौ थो काहू गांउ, यह सब बात सुनी तिस ठांउ ॥२१॥
आयौ मुगल उतावलो, सुनि मूला कौ काल ।
मुहर-छाप घर खालसै, कीनौ लीनौ माल ॥२२॥
माता पुत्र भए दुखी, कीनौ बहुत कलेस ।
ज्यौं त्यौं करि दुख देखते, आए पूरब देस ॥२३॥
पूरब-देस जौनपुर गांउ, बसै गोमती-तीर सुठांउ ।
तहां गोमती इहि बिध बहै, ज्यौं देखी त्यौं कवि-जन कहै ॥२४॥
प्रथम हि दक्खन-मुख बही, पूरब मुख परबाह ।
बहुर्ण् उत्तर-मुख बही, गोवै नदी अथाह ॥२५॥
गोवै नदी त्रि-विधि-मुख बही, तट रवनीक सुविस्तर मही ।
कुल पठान जौनासह नांउ, तिन तहां आइ बसायो गांउ ॥२६॥
कुतबा पढ़्यौ छत्र सिर तानि, बैठि तखत फेरी निज आनि ।
तब तिन तखत जौनपुर नांउ, दीनौ भयौ अचल सो गांउ ॥२७॥
चारौं बरन बसहिं तिस बीच, बसहिं छतीस पौंनि कुल नीच ।
बाम्भन छत्री बैस अपार, सूद्र भेद छत्तीस प्रकार ॥२८॥
सीसगर, दरजी, तम्बोली, रङ्गबाल, ग्वाल,
बाढ़ई, सङ्गतरास, तेली, धोबी, धुनियां ।
कन्दोई, कहार, काछी, कलाल, कुलाल, माली,
कुन्दीगर, कागदी, किसान, पटबुनियां ।
चितेरा, बन्धेरा, बारी, लखेरा, ठठेरा, राज,
पटुवा, छप्परबन्ध, नाई, भारभुनियां ।
सुनार, लुहार, सिकलीगर, हवाईगर,
धीवर, चमार, एई छत्तीस पौनियां ॥२९॥
नगर जौनपुर भूमि सुचङ्ग, मठ मण्डप प्रासाद उतङ्ग ।
सोभित सपतखने गृह घने, सघन पताका तम्बू तने ॥३०॥
जहां बावन सराइ पुर-कने, आसपास बावन परगने ।
नगर मांहि बावन बाजार, अरु बावन मण्डई उदार ॥३१॥
अनुक्रम भए तहां नव साहि, तिन के नांउ कहौं निरबाहि ।
प्रथम साहि जौनासह जानि, दुतिय बवक्करसाहि बखानि ॥३२॥
त्रितिय भयौ सुरहर सुलतान, चौथा डोस महम्मद जान ।
पञ्चम भूपति साहि णिजाम, छट्ठम साहि बिराहिम नाम ॥३३॥
सत्तम साहिब साहि हुसैन, अठ्ठम गाजी सज्जित सैन ।
नवम साहि बख्या सुलतान, बरती जासु अखण्डित आन ॥३४॥
ए नव साहि भए तिस ठांउ, यातौं तखत जौनपुर नांउ ।
पूरब दिसि पटना लौं आन, पच्छिम हद्द ईटावा थान ॥३५॥
दक्खन बिन्ध्याचल सरहद्द, उत्तर परमित घाघर नद्द ।
इतनी भूमि राज विख्यात, बरिस तीनि सै की यहु बात ॥३६॥
हुते पुब्ब पुरखा परधान, तिन के बचन सुने हम कान ।
बरनी कथा जथा-स्रुत जेम, मृषा-दोष नहिं लागै एम ॥३७॥
यह सब बरनन पाछिलौ, भयौ सुकाल बितीत ।
सोरह सै तेरै अधिक, समै कथा सुनु मीत ॥३८॥
नगर जौनपुर महिं बसै, मदनसिङ्घ श्रीमाल ।
जैनी गोत चिनालिया, बनजै हीरा-लाल ॥३९॥
मदन जौंहरी कौ सदनु, ढूंढ़त बूझत लोग ।
खरगसेन माता-सहित, आए करम-सञ्जोग ॥४०॥
च्हजमल नाना सेन कौ, ता कौ अग्रज एह ।
दीनौ आदर अधिक तिन, कीनौ अधिक सनेह ॥४१॥
मदन कहै पुत्री सुनु एम, तुमहिं अवस्था व्यापी केम ।
कहै सुता पूरब बिरतन्त, एहि बिधि मुए पुत्र अर कन्त ॥४२॥
सरबस लूटि लियो ज्यौं मीर, सो सब बात कही धरि धीर ।
कहै मदन पुत्री सौं रोइ, एक पुत्र सौं सब किछु होइ ॥४३॥
पुत्री सोच न करु मन मांह, सुख-दुख दोऊ फिरती छांह ।
सुता दोहिता कण्ठ लगाइ, लिए बस्त्र भूखन पहिराइ ॥४४॥
सुख सौं रहहि न ब्यापै काल, जैसा घर तैसी नन-साल ।
बरिस तीनि बीते इह भान्ति, दिन दिन प्रीति रीति सुख सान्ति ॥४५॥
आठ बरस कौ बालक भयौ, तब चटसाल पढ़न कौं गयौ ।
पढ़ि चटसालभयौ बितपन्न, परखै रजत-टका-सोवन्न ॥४६॥
गेह उचापति लिखै बनाइ, अत्तो जमा कहै समुझाइ ।
लेना देना बिधि सौं लिखै, बैठै हाट सराफी सिखै ॥४७॥
बरिस च्यारि जब बीते और, तब सु करै उद्दम की दौर ।
पूरब दिसि बङ्गाला थान, सुलेमान सुलतान पठान ॥४८॥
ता कौ साला ऌओदी खान, सो तिन राख्यौ पुत्र समान ।
सिरीमाल ता कौ दीवान, नांउ राइ ढीना जग जान ॥४९॥
सीङ्घड़ गोत्र बङ्गाले बसै, सेवहिं सिरीमाल पाञ्च सै ।
पोतदार कीए तिन सर्व, भाग्य-सञ्जोग कमावहिं दर्व ॥५०॥
करै बिसास न लेखा लेइ, सब कौं फारकती लिखी देइ ।
पोसह-पड़िकौंना सौं पेम, नौतन गेह करन कौ नेम ॥५१॥
खरगसेन बीहोलिया, सुनी राइ की बात ।
निज माता सौं मन्त्र करि, चले निकसि परभात ॥५२॥
माता किछु खरची दई, नाना जानै नांहि ।
ले घोरा असवार होइ, गए राइ-जी पांहि ॥५३॥
जाइ राइ-जी कौं मिल्यौ, कह्यौ सकल बिरतन्त ।
करी दिलासा बहुत तिन, धरी बात उर अन्त ॥५४॥
एक दिवस काहू समै, मन महिं सोचि बिचारि ।
खरगसेन कौं राय नहिं, दिए परगने च्यारि ॥५५॥
पोतदार कीनौं निज सोइ, दीनै साथि कारकुन दोइ ।
जाइ परगनें कीनौं काम, करहि अमल तहसीलहि दाम ॥५६॥
जोरि खजाना भेजहि तहां, राइ तथा ऌओदी खां जहां ।
इहि बिधि बीते मास छे सात, चले समेत-सिखरि की जात ॥५७॥
सङ्घ चलायौ राय-जी, दियौ हुकम सुलतान ।
उहां जाइ पूजा करी, फिरि आए निज थान ॥५८॥
आइ राइ पट-भौन महिं, बैठे सन्ध्या-काल ।
बिधि सौं सामाइक करी, लीनौं कर जप-माल ॥५९॥
चौबिहार करि मौन धरि, जपै पञ्च नवकार ।
उपजी सूल उदर-विषहिं, हूओ हाहाकार ॥६०॥
कही न मुख सौं बात किछु, लही मृत्यु ततकाल ।
गही और थिति जाइ तिनि, ढही देह-दीवाल ॥६१॥
पौंन सञ्जोग जुरे रथ पाइक, माते मतङ्ग तुरङ्ग तबेले ।
मानि बिभौ अङ्गयौ सिर भार, कियौ बिसतार परिग्रह ले ले ।
बन्ध बढ़ाइ करी थिति पूरन, अन्त चले उठि आपु अकेले ।
हारे हमाल की पोट-सी डारिकै, और दिवाल की ओट हो खेले ॥६२॥
एहि बिधि राइ अचानक मुआ, गांउ गांउ कोलाहल हुआ ।
खरगसेन सुनि यहु बिरतन्त, गयौ भागि घर त्यागि तुरन्त ॥६३॥
कीनौं दुखी दरिद्री भेख, लीनौं ऊबट पन्थ अदेख ।
नदी गांउ बन परबत घूमि, आए नगर जौनपुर-भूमि ॥६४॥
रजनी समै गेह निज आइ, गुरुजन-चरनन महिं सिर नाइ ।
किछु अन्तर-धनु हुतौ जु साथ, सो दीनौं माता के हाथ ॥६५॥
एहि बिधि बरस च्यारि चलि गए, बरस अठारह के जब भए ।
कियौ गवन तब पच्छिम दिसा, संवत सोलह सै छब्बिसा ॥६६॥
आए नगर आगरे मांहि, सुन्दरदास पीतिआ पांहि ।
खरगसेन सौं राखै प्रेम, करै सराफी बेचै हेम ॥६७॥
खरगसेन भी थैली करी, दुहू मिलाइ दाम सौं भरी ।
दोऊ सीर करहिं बेपार, कला निपुन धनवन्त उदार ॥६८॥
उभय परस्पर प्रीति गहन्त, पिता पुत्र सब लोग कहन्त ।
बरस च्यारि ऐसी बिधि भए, तब मेरठि-पुर ब्याहन गए ॥६९॥
सूरदास श्रीमालढोर मेरठी कहावै ।
ता की सुता बियाहि, सेन आर्गलपुर आवै ।
आइ हाट बैठे कमाइ, कीनी निज सम्पति ।
चाची सौं नहिं बनी, लियौ न्यारो घर दम्पति ।
इस बीचि बरस द्वै तीनि महिं, सुन्दरदास कलत्र-जुत ।
मरि गए त्यागि धन धाम सब, सुता एक, नहिं कोउ सुत ॥७०॥
सुता कुमारी जो हुती, सो परनाई सेनि ।
दान मान बहु-बिधि दियौ, दीनी कञ्चन रेंनि ॥७१॥
सम्पति सुन्दरदास की, जु कछु लिखी मिलि पञ्च ।
सो सब दीनी बहिनि कौं, सेन न राखी रञ्च ॥७२॥
तेतीसै सम्बत समै, गए जौनपुर गाम ।
एक तुरङ्गम एक रथ, बहु पाइक बहु दाम ॥७३॥
दिन दस बीते जौनपुर, नगर मांहि करि हाट ।
साझी करि बैठे तुरित, कियौ बनज कौ ठाट ॥७४॥
रामदास बनिआ धनपती, जाति अगरबाला सिव-मती ।
सो साझी कीनौं हित मान, प्रीति रीति परतीति मिलान ॥७५॥
करहिं सराफी दोऊ गुनी, बनजहिं मोती मानिक चुनी ।
सुख सौं काल भली बिधि गमै, सोलह सै पैन्तीस समै ॥७६॥
खरगसेन घर सुत अवतर्यौ, खरच्यौ दरब हरस मन धर्यौ ।
दिन दसम पहुच्यौ परलोक, कीना प्रथम पुत्र कौ सोक ॥७७॥
सैन्तीसै सम्बत की बात, रुहतग गए सती की जात ।
चोरन्ह लूटि लियौ पथ मांहि, सर्वस गयौ रह्मौ कछु नांहि ॥७८॥
रहे बस्त्र अरु दम्पति-देह, ज्यौं त्यौं करि आए निज गेह ।
गए हुते माङ्गन कौं पूत, यहु फल दीनौं सती अऊत ॥७९॥
तऊ न समुझे मिथ्या बात, फिरि मानी उनही की जात ।
प्रगट रूप देखै सब फोक, तऊ न समुझै मूरख लोक ॥८०॥
घर आए फिर बैठे हाट.मदनसिङ्घ चित भए उचाट ।
माया तजी भई सुख सान्ति, तीन बरस बीते इस भान्ति ॥८१॥
सम्बत सोलह सै इकताल, मदनसिङ्घ नहिं कीनौं काल ।
धर्म-कथा फैली सब ठौर, बरस दोइ जब बीते और ॥८२॥
तब सुधि करी सती की बात, खरगसेन फिर दीनी जात ।
सम्बत सोलह सै तेताल, माघ मास सित पक्ष रसाल ॥८३॥
एकादसी बार रबिनन्द, नखत रोहिनी वृष कौ चन्द ।
रोहिनि त्रितिय चरन अनुसार, खरगसेन-घर सुत अवतार ॥८४॥
दीनौं नाम विक्रमाजीत, गावहिं कामिनि मङ्गल-गीत ।
दीजहि दान भयौ अति हर्ष, जनम्यौ पुत्र आठएं वर्ष ॥८५॥
एहि बिधि बीते मास छे सात, चले सु पार्श्वनाथ की जात ।
कुल कुटुम्ब सब लीनौ साथ, बिधि सौं पूजे पारसनाथ ॥८६॥
पूजा करि जोरे जुग पानि, आगें बालक राख्यौ आनि ।
तब कर जोरि पुजारा कहै, बालक चरन तुम्हारे गहै ॥८७॥
चिरञ्जीवि कीजै यह बाल, तुम्ह सरनागत के रखपाल ।
इस बालक पर कीजै दया, अब यहु दास तुम्हारा भया ॥८८॥
तब सु पुजारा साधैपौन, मिथ्या ध्यान कपट की मौन ।
घड़ी एक जब भई बितीत, सीस घुमाइ कहै सुनु मीत ॥८९॥
सुपिनन्तर किछु आयौ मोहि, सो सब बात कहौं महिं तोहि ।
प्रभु पारस-जिनवर कौ जच्छ, सो मो पै आयौपरतच्छ ॥९०॥
तिन यहु बात कही मुझ पांहि, इस बालक कौं चिन्ता नांहि ।
जो प्रभु पास-जनम कौ गांउ, सो दीजै बालक कौ नांउ ॥९१॥
तौ बालक चिरजीवी होइ, यहु कहि लोप भयौ सुर सोइ ।
जब यहु बात पुजारे कही, खरगसेन जिय जानी सही ॥९२॥
हरषित कहै कुटुम्ब सब, स्वामी पास सुपास ।
दुहु कौ जनम बनारसी, यहु बनारसीदास ॥९३॥
एहि बिधि धरि बालक कौ नांउ, आए पलटि जौनपुर गांउ ।
सुख समाधि सौं बरतै बाल, सम्बत सोलह सै अठताल ॥९४॥
पूरब करम उदै सञ्जोग, बालक कौं सङ्ग्रहनी रोग ।
उपज्यौ औषध कीनी घनी, तऊ न बिथा जाइ सिसुतनी ॥९५॥
बरस एक दुख देख्यौ बाल, सहज समाधि भई ततकाल ।
बहुर्ण् बरस एक लौं भला, पञ्चासै निकसी सीतला ॥९६॥
बिथा सीतला उपसमी, बालक भयौ अरोग ।
खरगसेन के घरि सुता, भई करम-सञ्जोग ॥९७॥
आठ बरस कौ हूओ बाल, विद्या पढ़न गयौ चटसाल ।
गुर पाणृए सौं विद्या सिखै, अक्खर बाञ्चै लेखा लिखहिं ॥९८॥
बरस एक लौं विद्या पढ़ी, दिन दिन अधिक अधिक मति बढ़ी ।
विद्या पढ़ि हूओ बितपन्न, सम्बत सोलह सै बावन्न ॥९९॥
खरगसेन बनिज रतन, हीरा मानिक लाल ।
इस अन्तर नौ बरस कौ, भयौ बनारसि बाल ॥१००॥
खैराबाद नगर बसै, टाम्बी परबत नाम ।
तासु पुत्र कल्यानमल, एक सुता तस धाम ॥१०१॥
तासु पुरोहित आइओ, लीनहिं नाऊ साथ ।
पुत्र लिखत कल्यान कौ, दियौ सेन के हाथ ॥१०२॥
करी सगाई पुत्र की, कीनौ तिलक लिलाट ।
बरस दोइ उपरान्त लिखि, लगन ब्याह कौ ठाट ॥१०३॥
भई सगाई बावनें, पर्यौ त्रेपनें काल ।
महघा ईन न पाइयौ, भयौ जगत बेहाल ॥१०४॥
गयौ काल बीते दिन घने, सम्बत सोलह सै चौवने ।
माघ मास सित पख बारसी, चले बिवाहन बानारसी ॥१०५॥
करि बिवाह आए निज धाम, दूजी और सुता अभिराम ।
खरगसेन के घर अवतरी, तिस दिन वृद्धा नानी मरी ॥१०६॥
नानी मरन सुता जनम, पुत्र-बधू आगौन ।
तीनौं कारज एक दिन, भए एक ही भौन ॥१०७॥
यह संसार बिडम्बना, देखि प्रगट दुख खेद ।
चतुर चित्त त्यागी भए, मूढ़ न जानहि भेद ॥१०८॥
इहि बिधि दोइ मास बीतिया, आयौ दुलिहिनि कौ पीतिया ।
टाराचन्द नाम श्रीमाल, सो ले चल्यौ भतीजी नाल ॥१०९॥
खैराबाद नगर सो गयौ, इहां जौनपुर बीतिक भयौ ।
बिपदा उदै भई इस बीच, पुर-हाकिम णौवाब किलीच ॥११०॥
तिन पकरे सब जौंहरी, दिए कोठेरी मांहि ।
बड़ी बस्तु माङ्गै कछू, सो तौ इन पै नांहि ॥१११॥
एक दिवस तिनि कोप करि, कियौ हुकम उठि भोर ।
बान्धि बान्धि सब जौंहरी, खड़े किए ज्यौं चोर ॥११२॥
हने कटीले कोररे, कीने मृतक समान ।
दिए छोड़ तिस बार तिन, आए निज निज थान ॥११३॥
आइ सबनि कीनौ मतौ, भागि जाहु तजि भौन ।
निज निज परिगह साथ ले, परै काल-मुख कौन ॥११४॥
यहु कहि भिन्न भिन्न सब भए, फूटि फाटिकै चहौं-दिसि गए ।
खरगसेन लै निज परिवार, आए पच्छिम गङ्गा-पार ॥११५॥
नगरी साहिजादपुर नांउ, निकट कड़ा मानिकपुर गांउ ।
आए साहिजादपुर बीच, बरसै मेघ भई अति कीच ॥११६॥
निसा अन्धेरी बरसा घनी, आइ सराइ बसे गृह-धनी ।
खरगसेन सब परिजन साथ, करहिं रुदन ज्यौं दीन अनाथ ॥११७॥
पुत्र कलत्र सुता जुगल, अरु सम्पदा अनूप ।
भोग-अन्तराई-उदै, भए सकल दुख-रूप ॥११८॥
इस अवसर तिस पुर थानिया, करमचन्द माहुर बानिया ।
तिन अपनौं घर खाली कियौ, आपु निवास और घर लियौ ॥११९॥
भई बितीत रेंनि इक जाम, टेरै खरगसेन कौ नाम ।
टेरत बूझत आयौ तहां, खरगसेनजी बैठे जहां ॥१२०॥
"राम-राम" करि बैठ्यौ पास, बोल्यौ "तुम साहब महिं दास ।
चलहु कृपा करि मेरे सङ्ग, महिं सेवक तुम चढ़ौ तुरङ्ग ॥१२१॥
जथा-जोग है डेरा एक, चलिए तहां न कीजै टेक" ।
आए हित सौं तासु निकेत, खरगसेन परिवार-समेत ॥१२२॥
बैठे सुख सौं करि विश्राम, देख्यौ अति विचित्र सो धाम ।
कोरे कलस धरे बहु माट, चादरि सोरि तुलाई खाट ॥१२३॥
भरयौ ईन सौं कोठा एक, भख्य पदारथ और अनेक ।
सकल बस्तु पूरन करि गेह, तिन दीनौं करि बहुत सनेह ॥१२४॥
खरगसेन हठ कीनै महा, चरन पकरि तिन कीनी हहा ।
अति आग्रह करि दीनौ सर्व, बिनय बहुत कीनी तजि गर्व ॥१२५॥
घन बरसै पावस समै, जिन दीनौ निज भौन ।
ता की महिमा की कथा, मुख सौं बरनै कौन ॥१२६॥
खरगसेन तहां सुख सौं रहै, दसा बिचारि कबीसुर कहै ।
वह दुख दियौ नवाब किलीच, यह सुख साहिजादपुर-बीच ॥१२७॥
एक दिष्टि बहु अन्तर होइ, एक दिष्टि सुख-दुख सम दोइ ।
जो दुख देखैसो सुख लहै, सुख भुञ्जै सोई दुख सहै ॥१२८॥
सुख महिं मानै महिं सुखी, दुख महिं दुखमय होइ ।
मूढ़ पुरुष की दिष्टि महिं, दीसै सुख दुख दोइ ॥१२९॥
ग्यानी सम्पति विपति महिं, रहै एक-सी भान्ति ।
ज्यौं रबि ऊगत आथवत, तजै न राती कान्ति ॥१३०॥
करमचन्द माहुर बनिक, खरगसेन श्रीमाल ।
भए मित्र दोऊ पुरुष, रहहिं रयनि दिन नाल ॥१३१॥
इहि बिधि कीनौ मास दस, साहिजादपुर बास ।
फिर उठि चले प्रयाग-पुर, बसै त्रिबेणी पास ॥१३२॥
बसै प्रयाग त्रिबेणी पास, जा कौ नांउ ईलाहाबास ।
तहां डानि वसुधा-पुरहूत, आकबर पातिसाह कौ पूत ॥१३३॥
खरगसेन तहां कीनौ गौंन, रोजगार कारन तजि भान ।
बनारसी बालक घरि रह्यौ, कौड़ी-बेच बनिज तिन गह्यौ ॥१३४॥
एक टका द्वै टका कमाइ, काहू की ना धरै तमाइ ।
जोरै नफा एकठा करै, लै दादी के आगें धरै ॥१३५॥
दादी बाण्टै सीरनी, लाडू नुकती नित्त ।
प्रथम कमाई पुत्र की, सती अऊत निमित्त ॥१३६॥
दादी मानै सती अऊत, जानै तिन दीनौ यह पूत ।
देख सुपिन करै जब सैन, जागे कहै पितर के बैन ॥१३७॥
तासु बिचार करै दिन राति, ऐसी मूढ़ जीव की जाति ।
कहत न बनै कहै का कोइ, जैसी मति तैसी गति होइ ॥१३८॥
मास तीनि औरौं गए, बीते तेरह मास ।
चीठी आई सेन की, करहु फतेपुर बास ॥१३९॥
डोली द्वै भाड़ै करी, कीनहिं च्यारि मजूर ।
सहित कुटुम्ब बनारसी, आए फत्तेपूर ॥१४०॥
फत्तेपुर महिं आए तहां, Oसवाल के घर हहिं जहां ।
बासू साह आध्यातम-जान, बसै बहुत तिन्ह की सन्तान ॥१४१॥
बासू-पुत्र भगौतीदास, तिन दीनौ तिन्ह कौ आवास ।
तिस मन्दिर महिं कीनौ बास, सहित कुटम्ब बनारसिदास ॥१४२॥
सुख समाधि सौं दिन गए, करत सु केलि बिलास ।
चीठी आई बाप की, चले ईलाहाबास ॥१४३॥
चले प्रयाग बनारसी, रहे फतेपुर लोग ।
पिता-पुत्र दोऊ मिले, आनन्दित बिधि-जोग ॥१४४॥
खरगसेन जौंहरी उदार, करै जबाहर कौ बेपार ।
डानि साहि-जी की सरकार, लेवा देई रोक-उधार ॥१४५॥
चारि मास बीते इस भान्ति, कबहूं दुख कबहूं सुख सान्ति ।
फिरि आए फत्तेपुर गांउ, सकल कुटम्ब भयौ इक ठांउ ॥१४६॥
मास दोइ बीते इस बीच, सुनी आगरे गयौ किलीच ।
खरगसेन परिवार-समेत, फिरि आए आपनै निकेत ॥१४७॥
जहां तहां सौं सब जौंहरी, प्रगटे जथा गुपत भौंहरी ।
सम्बत सोलह सै छप्पनै, लोगे सब कारज आपनै ॥१४८॥
बरस एक लौं बरती छेम, आए साहिब साहि सलेम ।
बड़ा साहिजादा जगबन्द, आकबर पातिसाहि कौ नन्द ॥१४९॥
आखेटक कोल्हूबन काज, पातिसाहि की भई अवाज ।
हाकिम इहां जौनपुर थान, लघु किलीच णूरम सुलतान ॥१५०॥
ताहि हुकम आकबर कौ भयौ, सहिजादा कोल्हूबन गयौ ।
तातहिं सो किछूकर तू जेम, कोल्हूबन नहिंजाय सलेम ॥१५१॥
एहि बिधि आकबर कौ फुरमान, सीस चढ़ायौ णूरम खान ।
तब तिन नगर जौनपुर बीच, भयौ गढ़पती ठानी मीच ॥१५२॥
जहां तहां रूधी सब बाट, नांउ न चलै गौमती-घाट ।
पुल दरवाजे दिए कपाट, कीनौ तिन विग्रह कौ ठाठ ॥१५३॥
राखे बहु पायक असबार, चहु दिसि बैठे चौकीदार ।
कोट कङ्गूरेन्ह राखी नाल, पुर महिं भयौ ऊचलाचाल ॥१५४॥
करी बहुत गढ़ सञ्जोवनी, ईन बस्त्र जल की ढोवनी ।
जिरह जीन बन्दूक अपार, बहु दारू नाना हथियार ॥१५५॥
खोलि खजाना खरचै दाम, भयौ आपु सनमुख सङ्ग्राम ।
प्रजा-लोग सब ब्याकुल भए, भागे चहू और उठि गए ॥१५६॥
महा नगरि सो भई उजार, अब आई अब आई धार ।
सब जौंहरी मिले इक ठौर, नगर मांहि नर रह्यौ न और ॥१५७॥
क्या कीजै अब कौन बिचार, मुसकिल भई सहित परिबार ।
रहे न कुसल न भागे छेम, पकरी साम्प छछून्दरि जेम ॥१५८॥
तब सब मिलि णूरम के पास, गए जाइ कीनी अरदास ।
णूरम कहै सुनहु रे साहु, भावै इहां रहौ कै जाहु ॥१५९॥
मेरौ मरन बन्यौ है आइ, महिं क्या तुम कौं कहौं उपाइ ।
तब सब फिरि आए निज धाम, भागहु जो किछु करहि सो राम ॥१६०॥
आपु आप कौं सब भगे, एकहि एक न साथ ।
कोऊ काहू की सरन, कोऊ कहूं अनाथ ॥१६१॥
खरगसेन आए तिस ठांउ, डूलह साहु गए जिस गांउ ।
ऌअछिमनपुरा गांउ के पास, तहां चौधरी लछिमनदास ॥१६२॥
तिन लै राखे जङ्गल मांहि, कीनौं कौल बोल दै बांहि ।
इहि बिधि बीते दिवस छ सात, सुनी जौनपुर की कुसलात ॥१६३॥
साहि सलेम गोमती तीर, आयौ तब पठयौ इक मीर ।
ऌआलाबेग मीर कौ नांउ, ह्वै वकील आयौ तिस ठांउ ॥१६४॥
नरम गरम कहि ठाढ़ौ भयौ, णूरम कौं लिबाइ लै गयौ ।
जाइ साहि के डारौ पाइ, निरभै कियौ गुनह बकसाइ ॥१६५॥
जब यह बात सुनी इस भान्ति, तब सब के मन बरती सान्ति ।
फिरि आए निज निज घर लोग, निरभै भए गयौ भय-रोग ॥१६६॥
खरगसेन अरु डूलह साह, इनहू पकरी घर की राह ।
स-परिवार आए निज धाम, लागे आप आपने काम ॥१६७॥
इस अवसर बानारसी बाल, भयौ प्रवांन चतुर्दस साल ।
पण्डित डेवदत्त के पास, किछु विद्या तिन करी अभ्यास ॥१६८॥
पढ़ी सै दोइ, और अवलोइ ।
जोतिस अलङ्कार लघु-कोक, खण्ड-स्फुट सै च्यारि सिलोक ॥१६९॥
विद्या पढ़ि विद्या महिं रमै, सोलह सै सतावने समै ।
तजि कुल-कान लोक की लाज, भयौ बनारसि आसिख-बाज ॥१७०॥
करै आसिखी धरि मन धीर, दरद-बन्द ज्यौं सेख फकीर ।
इकटक देखि ध्यान सो धरै, पिता आपने कौ धन हरै ॥१७१॥
चोरै चूंनी मानिक मनी, आनै पान मिठाई घनी ।
भेजै पेसकसी हित पास, आपु गरीब कहावै दास ॥१७२॥
इस अन्तर चौ-मास बितीत, आई हिम-रितु ब्यापी सीत ।
खरतर आभैधरम उबझाइ, दोइ सिष्य-जुत प्रकटे आइ ॥१७३॥
भानचन्द मुनि चतुर विशेष, रामचन्द बालक गृह-भेष ।
आए जती जौनपुर मांहि, कुल श्रावक सब आवहिं जांहि ॥१७४॥
लखि कुल-धरम बनारसि बाल, पिता साथ आयौ पोसाल ।
भानचन्द सौं भयौ सनेह, दिन पोसाल रहै निसि गेह ॥१७५॥
भानचन्द पै विद्या सिखै, की रचना लिखै ।
पढ़ै सनातर-बिधि अस्तोन, फुट सिलोक बहु कौन ॥१७६॥
सामाइक पडिकौना पन्थ, गरन्थ ।
इत्यादिक विद्या मुख-पाठ, पढ़ै सुद्ध साधै गुन आठ ॥१७७॥
कबहू आइ सबद उर धरै, कबहू जाइ आसिखी करै ।
पोथी एक बनाई नई, मित हजार दोहा चौपई ॥१७८॥
ता महिं णवरस-रचना लिखी, पै बिसेस बरनन आसिखी ।
ऐसे कुकबि बनारसि भए, मिथ्या ग्रन्थ बनाए नए ॥१७९॥
कै पढ़ना कै आसिखी, मगन दुहू रस मांही ।
खान-पान की सुध नहीं, रोजगार किछु नांहि ॥१८०॥
ऐसी दसा बरस द्वै रही, मात पिता की सीख न गही ।
करि आसिखी पाठ सब पठे, सम्बत सोलह सै उनसठे ॥१८१॥
भए पञ्च-दस बरस के, तिस ऊपर दस मास ।
चले पाउजा करन कौं, कवि बनारसीदास ॥१८२॥
चढ़ि डोली सेवक लिए, भूषन बसन बनाइ ।
खैराबाद नगर-विषै, सुख सौं पहुचे आइ ॥१८३॥
मास एक जब भयौ बितीत, पौष मास सित पख रितु सीत ।
पूरब करम उदै सञ्जोग, आकसमात बात कौ रोग ॥१८४॥
भयौ बनारसिदास-तनु, कुष्ठ-रूप सरबङ्ग ।
हाड़ हाड़ उपजी बिथा, केस रोम भुव-भङ्ग ॥१८५॥
बिस्फोटक अगनित भए, हस्त चरन चौर्-अङ्ग ।
कोऊ नर साला ससुर, भोजन करै न सङ्ग ॥१८६॥
ऐसी असुभ दसा भई, निकट न आवै कोइ ।
सासू और बिवाहिता, करहिं सेव तिय दोइ ॥१८७॥
जल-भोजन की लहि सुध, दहिंहि आनि मुख मांहि ।
ओखद लावहिं अङ्ग महिं, नाक मून्दि उठि जांहि ॥१८८॥
इस अवसर नर नापित कोइ, ओखद-पुरी खबावै सोइ ।
चने अलूनै भोजन दोइ, पैसा टका किछू नहि लेइ ॥१८९॥
चारि मास बीते इस भान्ति, तब किछु बिथा भई उपसान्ति ।
मास दोइ औरौ चलि गए, तब बनारसी नीके भए ॥१९०॥
न्हाइ धोइ ठाढ़े भए, दै नाऊ कौं दान ।
हाथ जोड़ि बिनती करी, तू मुझ मित्र समान ॥१९१॥
नापित भयौ प्रसीन अति, गयौ आपने धाम ।
दिन दस खैराबाद महिं, कियौ और बिसराम ॥१९२॥
फिरि आए डोली चढ़े, नगर जौनपुर मांहि ।
सासु ससुर अपनी सुता, गौंने भेजी नांहि ॥१९३॥
आइ पिता के पद गहे, मां रोई उर ठोकि ।
जैसे चिरी कुरीज की, त्यौं सुत-दसा बिलोकि ॥१९४॥
खरगसेन लज्जित भए, कुबचन कहे अनेक ।
रोए बहुत बनारसी, रहे चकित छिन एक ॥१९५॥
दिन दस बीस परे दुखी, बहुरि गए पोसाल ।
कै पढ़ना कै आसिखी, पकरी पहिली चाल ॥१९६॥
मासि चारि ऐसी बिधि भए, खरगसेन पटनै उठि गए ।
फिरि बनारसी खैराबाद, आए मुख लज्जित स-बिषाद ॥१९७॥
मास एक फिरि दूजी बार, घर महिं रहें न गए बजार ।
फिरि उठि चले नारि लै सङ्ग, एक सु-डोली एक तुरङ्ग ॥१९८॥
आए नगर जौनपुर फेरि, कुल कुटम्ब सब बैठे घेरि ।
गुरु-जन लोग दहिंहि उपदेस, आसिख-बाज सुनें दरबेस ॥१९९॥
बहुत पढ़हिं बाम्भन अरु भाट, बनिक-पुत्र तौ बैठे हाट ।
बहुत पढ़ै सो माङ्गै भीख, मानहु पूत बड़े की सीख ॥२००॥
इत्यादिक स्वारथ बचन, कहे सबनि बहु भान्ति ।
मानै नहीं बनारसी, रह्यौ सहज-रस मान्ति ॥२०१॥
फिरि पोसाल भान पै पढ़ै, आसिख-बाजी दिन दिन बढ़ै ।
कोऊ कह्यौ न मानै कोइ, जैसी गति तैसी मति होइ ॥२०२॥
कर्माधिन बनारसि रमै, आयौ सम्बत साठा समै ।
साठै सम्बत एती बात, भई जु कछू कहौं बिख्यात ॥२०३॥
साठै करि पटनें सौं गौन, खरगसेन आए निज भौन ।
साठै ब्याही बेटी बड़ी, बितरी पहिली सम्पति गड़ी ॥२०४॥
बनारसी कहिं बेटी हुई, दिवस छ-सात मांहि सो मुई ।
जहमति परे बनारसिदास, कीनहिं लङ्घन बीस उपास ॥२०५॥
लागी छुधा पुकारै सोइ, गुरुजन पथ्य देइ नहि कोइ ।
तब माङ्गै देखन कौं रोइ, आध सेर की पूरी दोइ ॥२०६॥
खाट हेठ ल धरी दुराइ, सो बनारसी भखी चुराइ ।
वाही पथ सौं नीकौ भयौ, देख्यौ लोगनि कौतुक नयौ ॥२०७॥
साठै सम्बत करि दिढ़ हियौ, खरगसेन इक सौदा लियौ ।
ता महिं भए सौगुने दाम, चहल पहल हूई निज धाम ॥२०८॥
यह साठे सम्बत की कथा, ज्यौं देखी महिं बरनी तथा ।
समै मै उनसठे सावन बीच, कोऊ सीन्यासी नर नीच ॥२०९॥
आइ मिल्यौ सो आकसमात, कही बनारसि सौं तिन बात ।
एक मन्त्र है मेरे पास, सो बिधि-रूप जपै जो दास ॥२१०॥
बरस एक लौं साधै नित्त, दिढ़ प्रतीति आनै निज चित्त ।
जपै बैठि छरछोभी मांहि, भेद न भाखै किस ही पांहि ॥२११॥
पूरन होइ मन्त्र जिस बार, तिस के फलका कहूं बिचार ।
प्रात समय आवै गृह-द्वार, पावै एक पड़्या दीनार ॥२१२॥
बरस एक लौं पावै सोइ, फिरि साधै फिरि ऐसी होइ ।
यह सब बात बनारसि सुनी, जान्या महापुरुष है गुनी ॥२१३॥
पकरे पाइ लोभ के लिए, माङ्गै मन्त्र बीनती किए ।
तब तिन दीनौं मन्त्र सिखाइ, अक्खर कागद मांहि लिखाइ ॥२१४॥
वह प्रदेस उठि गयौ स्वतन्त्र, सठ बनारसी साधै मन्त्र ।
बरस एक लौं कीनौ खेद, दीनौं नांहि और कौं भेद ॥२१५॥
बरस एक जब पूरा भया, तब बनारसी द्वारै गया ।
नीची दिष्टि बिलोकै धरा, कहौं दीनार न पावै परा ॥२१६॥
फिरि दूजै दिन आयौ द्वार, सुपने नहि देखै दीनार ।
ब्याकुल भयौ लोभ के काज, चिन्ता बढ़ी न भावै नाज ॥२१७॥
कही भान सौं मन की दुधा, तिनि जब कही बात यह मुधा ।
तब बनारसी जानी सही, चिन्ता गई छुधा लहलही ॥२१८॥
जोगी एक मिल्यौ तिस आइ, बनारसी दियौ भौन्दाइ ।
दीनी एक सङ्खोली हाथ, पूजा की सामग्री साथ ॥२१९॥
कहै सदासिव मूरति एह, पूजै सो पावै सिव-गेह ।
तब बनारसी सीस चढ़ाइ, लीनी नित पूजै मन लाइ ॥२२०॥
ठानि सनानि भगति चित धरै, अष्ट-प्रकारी पूजा करै ।
सिव सिव नाम जपै सौ बार, आठ अधिक मन हरख अपार ॥२२१॥
पूजै तब भोजन करै, अनपूजै पछिताइ ।
तासु दण्ड अगिले दिवस, रूखा भोजन खाइ ॥२२२॥
ऐसी बिधि बहु दिन गए, करत गुपत शिव-पूज ।
आयौ सम्बत इकसठा, चैत मास सित दूज ॥२२३॥
साहिब साहि सलीम कौ, हीरानन्द मुकीम ।
ओसवाल कुल जौंहरी, बनिक बित्त की सीम ॥२२४॥
तिनि प्रयाग-पुर नगर सौं, कीनौ उद्दम सार ।
सङ्घ चलायौ सिखिर कौं, उतर्यौ गङ्गा-पार ॥२२५॥
ठौर ठौर पत्री दई, भई खबर जित-तित्त ।
चीठी आई सेन कौं, आवहु जात-निमित्त ॥२२६॥
खरगसेन तब उठि चले, ह्वै तुरङ्ग असबार ।
जाइ णन्दजी कौं मिले, तजि कुटुम्ब घरबार ॥२२७॥
खरगसेन जात्रा कौं गए, बानारसी निरङ्कुस भए ।
करहिं कलह माता सौं नित्त.पारस-जिन की जात निमित्त ॥२२८॥
दही दूध घृत चावल चने, तेल तम्बोल पहुप अनगने ।
इतनी बस्तु तजी ततकाल, पन लीनौ कीनौ हठ बाल ॥२२९॥
चैत महीने पन लियौ, बीते मास छ सात ।
आई पून्यौ कातिकी, चलै लोग सब जात ॥२३०॥
चले सिव-मती न्हान कौं, जैनी पूजन पास ।
तिन्ह के साथ बनारसी, चले बनारसिदास ॥२३१॥
कासी नगरी महिं गए, प्रथम नहाए गङ्ग ।
पूजा पास सुपास की, कीनी धरि मन रङ्ग ॥२३२॥
जे जे पन की बस्तु सब, ते ते मोल मङ्गाइ ।
नेवज ज्यौं आगें धरै, पूजै प्रभु के पाइ ॥२३३॥
दिन दस रहे बनारसी, नगर बनारस मांहि ।
पूजा कारन द्योहरे, नित प्रभात उठि जांहि ॥२३४॥
एहि बिधि पूजा पास की, कीनी भगति-समेत ।
फिरि आए घर आपनै, लिएं सङ्खोली सेत ॥२३५॥
पूजा सङ्ख महेस की, करकै तौ किछु खांहि ।
देस विदेस इहां उहां, कबहूं भूली नांहि ॥२३६॥
सङ्ख-रूप सिव-देव, महासङ्ख बानारसी ।
दोऊ मिले अबेव, साहिब सेवक एक-से ॥२३७॥
इस ही बीचि उरे परे, खरगसेन के भौन ।
भयौ एक अलपायु सुत, ताहि बखानै कौन ॥२३८॥
सम्बत सोलह सै इकसठे, आए लोग सङ्घ सौं नठे ।
केई उबरे केई मुए, केई महा जहमती हुए ॥२३९॥
खरगसेन पटनें महिं आइ, जहमति परे महा दुख पाइ ।
उपजी बिथा उदरम रोग, फिरि उपसमी आउबल-जोग ॥२४०॥
सङ्घ साथ आए निज धाम, णन्द जौनपुर कियौ मुकाम ।
खरगसेन दुख पायौ बाट, घरम आइ परे फिरि खाट ॥२४१॥
हीरानन्द लोग-मनुहारि, रहे जौनपुर महिं दिन चारि ।
पञ्चम दिवस पार के बाग, छट्ठे दिन उठि चले प्रयाग ॥२४२॥
सङ्घ फूटि चहौं दिसि गयौ, आप आप कौ होइ ।
नदी नांव सञ्जोग ज्यौं, बिछुरि मिलै नहिं कोइ ॥२४३॥
इहि बिधि दिवस कैकु चलि गए, खरगसेन-जी नीके भए ।
सुख समाधि बीते दिन घनें, बीचि बीचि दुख जांहि न गनें ॥२४४॥
इस अवसर सुत अवतर्यौ, बानारसि के गेह ।
भव पूरन करि मरि गयौ, तजि दुल्लभ नर-देह ॥२४५॥
सम्बत सोलह स बासठा, आयौ कातिक पावस नठा ।
छत्रपति आकबर साहि जलाल, नगर आगरे कीनौं काल ॥२४६॥
आई खबर जौनपुर मांह, प्रजा अनाथ भई बिनु नाह ।
पुरजन लोग भए भय-भीत, हिरद ब्याकुलता मुख पीत ॥२४७॥
अकसमात बानारसी, सुनि आकबर कौ काल ।
सीढ़ी परि बठ्यौ हुतो, भयौ भरम चित चाल ॥२४८॥
आइ तवाला गिरि पर्यौ, सक्यौ न आपा राखि ।
फूटि भाल लोहू चल्यौ, कह्यौ "देव" मुख-भाखि ॥२४९॥
लगी चोट पाखान की, भयौ गृहाङ्गन लाल ।
"हाइ हाइ" सब करि उठे, मात तात बेहाल ॥२५०॥
गोद उठाय माइ नहिं लियौ, अम्बर जारि घाउ महिं दियौ ।
खाट बिछाइ सुबायौ बाल, माता रुदन करै असराल ॥२५१॥
इस ही बीच नगर महिं सोर, भयौ उदङ्गल चारिहु ओर ।
घर घर दर दर दिए कपाट, हटवानी नहिं बैठे हाट ॥२५२॥
भले बस्त्र अरु भूसन भले, ते सब गाड़े धरती तले ।
हण्डवाई गाड़ी कहौं और, नगदी माल निभरमी ठौर ॥२५३॥
घर घर सबनि बिसाहे सस्त्र, लोगन्ह पहिरे मोटे बस्त्र ।
ओढ़े कम्बल अथवा खेस, नारिन्ह पहिरे मोटे बेस ॥२५४॥
ऊञ्च नीच कोउ न पहिचान, धनी दरिद्री भए समान ।
चोरि धारि दीसै कहौं नांहि, यौं ही अपभय लोग डरांहि ॥२५५॥
धूम-धाम दिन दस रही, बहुरौ बरती सान्ति ।
चीठी आई स-बनिक, समाचार इस भान्ति ॥२५६॥
प्रथम पातिसाही करी, बावन बरस जलाल ।
अब सोलह सै बासठे, कातिक हूओ काल ॥२५७॥
आकबर कौ नन्दन बड़ौ, साहिब साहि सलेम ।
नगर आगरे महिं तखत, बैठौ आकबर जेम ॥२५८॥
नांउ धरायौ णूरदीं, जहाङ्गीर सुलतान ।
फिरि दुहाई मुलक महिं, बरती जही तही आन ॥२५९॥
इहि बिधि चीठी महिं लिखी, आई घर घर बार ।
फिरि दुहाई जौनपुर, भयौ सु जय-जय-कार ॥२६०॥
खरगसेन के घर आनन्द, मङ्गल भयौ गयौ दुख-दन्द ।
बानारसी कियौ असनान, कीजै उत्सव दीजै दान ॥२६१॥
एक दिवस बानारसिदास, एकाकी ऊपर आवास ।
बैठ्यौ मन महिं चिन्तै एम, महिं सिव-पूजा कीनी केम ॥२६२॥
जब महिं गिर्यौ पर्यौ मुरछाइ, तब सिव किछू न करी सहाइ ।
यहु बिचारि सिव-पूजा तजी, लखी प्रगट सेवा महिं कजी ॥२६३॥
तिस दिन सौं पूजा न सुहाइ, सिव-सङ्खोली धरी उठाइ ।
एक दिवस मित्रन्ह के साथ, नौकृत पोथी लीनी हाथ ॥२६४॥
नदी गोमती के बिच आइ, पुल के ऊपरि बैठे जाइ ।
बाञ्चे सब पोथी के बोल, तब मन महिं यहु उठी कलोल ॥२६५॥
एक झूठ जो बोलै कोइ, नरक जाइ दुख देखै सोइ ।
महिं तो कलपित बचन अनेक, कहे झूठ सब साचु न एक ॥२६६॥
कैसहिं बनै हमारी बात, भई बुद्धि यह आकसमात ।
यहु कहि देखन लाग्यौ नदी, पोथी डार दई ज्यौं रदी ॥२६७॥
"हाइ हाइ" करि बोले मीत, नदी अथाह महा-भय-भीत ।
ता महिं फैलि गए सब पत्र, फिरि कहु कौन करै एकत्र ॥२६८॥
घरी द्वक पछितानहिं मित्र, कहहिं कर्म की चाल विचित्र ।
यहु कहिकहिं सब न्यारे भए, बनारसी आपुन घर गए ॥२६९॥
खरगसेन सुनि यहु बिरतन्त, हूए मन महिं हरषितवन्त ।
सुत के मन ऐसी मति जगै, घर की नांउ रही-सी लगै ॥२७०॥
तिस दिन सौं बानारसी, करै धरम की चाह ।
तजी आसिखी फासिखी, पकरी कुल की राह ॥२७१॥
कहहिं दोष कोउ न तजै, तजै अवस्था पाइ ।
जैसहिं बालक की दसा, तरुन भए मिटि जाइ ॥२७२॥
उदै होत सुभ करम के, भई असुभ की हानि ।
तातहिं तुरित बनारसी, गही धरम की बानि ॥२७३॥
नित उठि प्रात जाइ जिन-भौन, दरसनु बिनु न करै दन्तौन ।
चौदह नेम बिरति उच्चरै, सामाइक पड़िकौना करै ॥२७४॥
हरी जाति राखी परवांन, जावजीव बैङ्गन-पचखान ।
पूजा-बिधि साधै दिन आठ, पढ़ै बीनती पद मुख-पाठ ॥२७५॥
इहि बिधि जैन-धरम कथा, कहै सुनै दिन रात ।
होनहार कोउ न लखै, अलख जीव की जात ॥२७६॥
तब अपजसी बनारसी, अब जस भयौ विख्यात ।
आयौ सम्बत चौसठा, कहौं तहां की बात ॥२७७॥
खरगसेन श्रीमाल कहिं, हुती सुता द्वै ठौर ।
एक बियाही जौनपुर, दुतिय कुमारी और ॥२७८॥
सोऊ ब्याही चौसठे, सम्बत फागुन मास ।
गई पाडलीपुर-विषहिं, करि चिन्ता-दुख-नास ॥२७९॥
बानारसि के दूसरौ, भयौ और सुत कीर ।
दिवस कैकु महिं उड़ि गयौ, तजि पिञ्जरा सरीर ॥२८०॥
कबहूं दुख कबहूं सुख सान्ति, तीनि बरस बीते इस भान्ति ।
लच्छन भले पुत्र के लखे, खरगसेन मन मांहि हरखे ॥२८१॥
सम्बत सोलह सै सतसठा, घर कौ माल कियौ एकठा ।
खुला जवाहर और जड़ाउ, कागद मांहि लिख्यौ सब भाउ ॥२८२॥
द्वै पहुची द्वै मुद्रा बनी, चौबिस मानिक चौतिस मनी ।
नौ नीले पन्ने दस-दून, चारि घाण्ठि चूंनी परचून ॥२८३॥
एती बस्तु जवाहर-रूप, घृत मन बीस तेल द्वै कूप ।
लिए जौनपुर होइ दुकूल, मुद्रा द्वै सत लागी मूल ॥२८४॥
कछु घर के कछु पर के दाम, रोक उधार चलायौ काम ।
जब सब सौञ्ज भई तैयार, खरगसेन तब कियौ बिचार ॥२८५॥
सुत बनारसी लियौ बुलाय, ता सौं बात कही समुझाय ।
लेहु साथ यहु सौञ्ज समस्त, जाइ आगरे बेचहु बस्त ॥२८६॥
अब गृह-भार कन्ध तुम लेहु, सब कुटम्ब कौं रोटी देहु ।
यहु कहि तिलक कियौ निज हाथ, सब सामग्री दीनी साथ ॥२८७॥
गाड़ी भार लदाइकै, रतन जतन सौं पास ।
राखे निज कच्छा-विषहिं, चले बनारसिदास ॥२८८॥
मिली साथ गाड़ी बहुत, पाञ्च कोस नित जांहि ।
क्रम क्रम पन्थ उलङ्घकरि, गए ईटाए मांहि ॥२८९॥
नगर ईटाए के निकट, करि गाड़िन्ह कौ घेर ।
उतरे लोग उजार महिं, हूई सन्ध्या-बेर ॥२९०॥
घन घमण्डि आयौ बहुत, बरसन लाग्यौ मेह ।
भाजन लागे लोग सब, कहां पाइए गेह ॥२९१॥
सौरि उठाइ बनारसी, भए पयादे पाउ ।
आए बीचि सराइ महिं, उतरे द्वै उम्बराउ ॥२९२॥
भई भीर बाजार महिं, खाली कोउ न हाट ।
कहूं ठौर नहिं पाइए, घर घर दिए कपाट ॥२९३॥
फिरत फिरत फावा भए, बैठन कहै न कोइ ।
तलै कीच सौं पग भरे, ऊपर बरसै तोइ ॥२९४॥
अन्धकार रजनी समै, हिम रितु अगहन मास ।
नारि एक बैठन कह्यौ, पुरुष उठ्यौ लै बांस ॥२९५॥
तिनि उठाइ दीनहिं बहुरि, आए गोपुर पार ।
तहां झौम्परी तनक-सी, बैठे चौकीदार ॥२९६॥
आए तहां बनारसी, अरु श्रावक द्वै साथ ।
ते बूझहिं तुम कौन हौ, दुःखित दीन अनाथ ॥२९७॥
तिन सौं कहै बनारसी, हम ब्यौपारी लोग ।
बिना ठौर व्याकुल भए, फिरहिं करम सञ्जोग ॥२९८॥
तब तिनक चित उपजी दया, कहहिं इहां बैठौ करि मया ।
हम सकार अपने घर जांहि, तुम निसि बसौ झौम्परी मांहि ॥२९९॥
औंरौं सुनौ हमारी बात, सरियति खबरि भएं परभात ।
बिनु तहकीक जान नहि देहि, तब बकसीस देहु सो लेहि ॥३००॥
मानी बात बनारसि ताम, बैठे तही पायौ विश्राम ।
जल मङ्गाइकै धोए पाउ, भीजे बस्त्रन्ह दीनी बाउ ॥३०१॥
त्रिन बिछाए सोए तिस ठौर, पुरुष एक जोरावर और ।
आयौ कहै इहां तुम कौन, यह झौम्परी हमारौ भौन ॥३०२॥
सैन करौं महिं खाट बिछाइ, तुम किस ठाहर उतरे आइ ।
कै तौ तुम अब ही उठि जाहु, कै तौ मेरी चाबुक खाहु ॥३०३॥
तब बनारसी ह्वै हलबले, बरसत मेहु बहुरि उठि चले ।
उनि दयाल होइ पकरी बांह, फिरि बैठाए छाया मांह ॥३०४॥
दीनौ एक पुरानो टाट, ऊपर आनि बिछाई खाट ।
कहै टाट पर कीजै सैन, मुझे खाट बिनु परै न चैन ॥३०५॥
"एवम् अस्तु" बानारसि कहै, जैसी जाहि परै सो सहै ।
जैसा कातै तैसा बुनै, जैसा बोवै तैसा लुनै ॥३०६॥
पुरुष खाट पर सोया भले, तीनौ जनें खाट के तले ।
सोए रजनी भई बितीत, ओढ़ी सौरि न ब्यापी सीत ॥३०७॥
भयौ प्रात आए फिरि तहां, गाड़ी सब उतरी ही जहां ।
बरसा गई भई सुख सान्ति, फिरि उठि चले नित्य की भान्ति ॥३०८॥
आए नगर आगरे बीच, तिस दिन फिरि बरसा अरु कीच ।
कपरा तेल घीउ धरि पार, आपु छरे आए उर पार ॥३०९॥
मन चिन्तवै बनारसिदास, किस दिसि जांहि कहां किस पास ।
सोचि सोचि यह कीनौ ठीक, मोती-कटका कियौ रफीक ॥३१०॥
तहां च्आम्पसी के घर पास, लघु बहनेऊ बन्दीदास ।
तिस के डेरै जाइ तुरन्त, सुनिए "भला सगा अरु सन्त" ॥३११॥
यह बिचारि आए तिस पांहि, बहनेऊ के डेरे मांहि ।
हित सौं बूझै बन्दीदास, कपरा घीउ तेल किस पास ॥३१२॥
तब बनारसी बोलै खरा, उधरन की कोठी मौं धरा ।
दिवस कैकु जब बीते और, डेरा जुदा लिया इक ठौर ॥३१३॥
पट-गठरी राखी तिस मांहि, नित्य नखासे आवहि जांहि ।
बस्त्र बेचि जब लेखा किया, ब्याज-मूर दै टोटा दिया ॥३१४॥
एक दिवस बानारसिदास, गए पार उधरन के पास ।
बेचा घीऊ तेल सब झारि, बढ़ती नफा रुपैया च्यारि ॥३१५॥
हुण्डी आई दीनहिं दाम, बात उहां की जानै राम ।
बेञ्चि खोञ्चि आए उर पार, भए जबाहर बेञ्चन-हार ॥३१६॥
देहिं ताहि जो माङ्गै कोइ, साधु कुसाधु न देखै टोइ ।
कोऊ बस्तु कहूं लै जोइ, कोऊ लेइ गिरौं धरि खाइ ॥३१७॥
नगर आगरे कौ ब्यौपार, मूल न जानै मूढ़ गीवार ।
आयौ उदै असुभ कौ जोर, घटती होत चली चहु ओर ॥३१८॥
नारे मांहि इजार के, बन्ध्यौ हुतौ दुल म्यान ।
नारा टूट्यौ गिरि पर्यौ, भयौ प्रथम यह ग्यान ॥३१९॥
खुलौ जबहार जो हुतौ, सो सब थौ उस मांहि ।
लगी चोट गुपती सही, कही न किस ही पांहि ॥३२०॥
मानिक नारे के पले, बान्ध्यौ साटि उचाटि ।
धरी इजार अलङ्गनी, मूसा लै गयौ काटि ॥३२१॥
पहुञ्ची दोइ जड़ाउ की, बैञ्ची गाहक पांहि ।
दाम करोरी लेइ रह्यौ, परि देवाले मांहि ॥३२२॥
मुद्रा एक जड़ाउ की, ऐसहिं डारी खोइ ।
गाण्ठि देत खाली परी, गिरी न पाई सोइ ॥३२३॥
रेज-परेजी बस्तु कछु, बुगचा बागे दोइ ।
हण्डवाई घर महिं रही, और बिसाति न कोइ ॥३२४॥
इहि बिधि उदै भयौ जब पाप, हलहलाइकै आई ताप ।
तब बनारसी जहमति परे, लङ्घन दस निकोररे करे ॥३२५॥
फिर पथ लीनौं नीके भए, मास एक बाजार न गए ।
खरगसेन की चीठी घनी, आवहिं पै न देइ आपनी ॥३२६॥
ऊत्तमचन्द जबाहरी, डूलह कौ लघु पूत ।
सो बनारसी का बड़ा, बहनेऊ अरिभूत ॥३२७॥
तिनि अपने घर कौं दिए, समाचार लिखि लेख ।
पूञ्जी खोइ बनारसी, भए भिखारी भेख ॥३२८॥
उहां जौंनपुर महिं सुनी, खरगसेन यह बात ।
हाइ हाइ करि आइ घर, कियौ बहुत उतपात ॥३२९॥
कलह करी निज नारि सौं, कही बात दुख रोइ ।
हम तौ प्रथम कही हुती, सुत आवै घर खोइ ॥३३०॥
कहा हमारा सब थया, भया भिखारी पूत ।
पूञ्जी खोई बेहया, गया बनज का सूत ॥३३१॥
भए निरास उसास भरि, करि घर महिं बक-बाद ।
सुत बनारसी की बहू, पठई खैराबाद ॥३३२॥
ऐसी बीती जौंनपुर, इहां आगरे मांहि ।
घर की बस्तु बनारसी, बेञ्चि बेञ्चि सब खांहि ॥३३३॥
लटा-कुटा जो किछु हुतौ, सो सब खायौ झारि ।
हण्डवाई खाई सकल, रहे टका द्वै चारि ॥३३४॥
तब घर महिं बैठे रहहिं, जांहि न हाट बाजार ।
, पौथी दोइ उदार ॥३३५॥
ते बाञ्चहिं रजनी-समै, आवहिं नर दस बीस ।
गावहिं अरु बातहिं करहिं, नित उठि देंहि असीस ॥३३६॥
सो सामा घर महिं नहीं, जो प्रभात उठि खाइ ।
एक कचौरी-बाल नर, कथा सुनै नित आइ ॥३३७॥
वाकी हाट उधार करि, लेंहि कचौरी सेर ।
यह प्रासुक भोजन करहिं, नित उठि साञ्झ सबेर ॥३३८॥
कबहू आवहिं हाट मीहि, कबहू डेरा मांहि ।
दसा न काहू सौं कहहिं, करज कचौरी खांहि ॥३३९॥
एक दिवस बानारसी, समै पाइ एकन्त ।
कहै कचौरी-बाल सौं, गुपत गेह-बिरतन्त ॥३४०॥
तुम उधार दीनौ बहुत, आगै अब जिनि देहु ।
मेरे पास किछू नहिं, दाम कहां सौं लेहु ॥३४१॥
कहै कचौरी-बाल नर, बीस रुपया खाहु ।
तुम सौं कोउ न कछु कहै, जही भावै तही जाहु ॥३४२॥
तब चुप भयौ बनारसी, कोउ न जानै बात ।
कथा कहै बैठौ रहै, बीते मास छ-सात ॥३४३॥
कहौं एक दिन की कथा, टाम्बी टाराचन्द ।
ससुर बनारसिदास कौ, परबत कौ फरजन्द ॥३४४॥
आयौ रजनी के समै, बानारसि के भौन ।
जब लौं सब बैठे रहे, तब लौं पकरी मौन ॥३४५॥
जब सब लोग बिदा भए, गए आपने गेह ।
तब बनारसी सौं कियौ, टाराचन्द सनेह ॥३४६॥
करि सनेह बिनती करी, तुम नेउते परभात ।
कालि उहां भोजन करौ, आवस्सिक यह बात ॥३४७॥
यह कहि निसि अपने घर गयौ, फिरि आयौ प्रभात जब भयौ ।
कहै बनारसि सौं तब सोइ, उहां प्रभात रसोई होइ ॥३४८॥
तातहिं अब चलिए इस बार, भोजन करि आवहु बाजार ।
टाराचन्द कियौ छल एह, बानारसी गयौ तिस गेह ॥३४९॥
भेज्यौ एक आदमी कोइ, लटा-कुटा ल आयौ सोइ ।
घर का भाड़ा दिया चुकाइ, पकरे बानारसि के पाइ ॥३५०॥
कहै बिनै सौं टारा साहु, इस घर रहौ उहां जिन जाहु ।
हठ करि राखे डेरा मांहि, तहां बनारसि रोटी खांहि ॥३५१॥
इहि बिधि मास दोइ जब गए, ढरमदास के साझी भए ।
जसू आमरसी भाई दोइ, Oसवाल डिल-वाली सोइ ॥३५२॥
करहिं जबाहर-बनज बहूत, ढरमदास लघु बन्धु कपूत ।
कुबिसन करै कुसङ्गति जाइ, खोवै दाम अमल बहु खाइ ॥३५३॥
यह लखि कियौ सिर कौ सञ्च, दी पूञ्जी मुद्रा सै पञ्च ।
ढरमदास बानारसि यार, दोऊ सीर करहिं ब्यौपार ॥३५४॥
दोऊ फिरहिं आगरे माञ्झ, करहिं गस्त घर आवहिं साञ्झ ।
ल्यावहिं चूंनी मानिक मनी, बेञ्चहिं बहुरि खरीदहिं घनी ॥३५५॥
लिखहिं रोजनामा खतिआइ, नामी भए लोग पतिआइ ।
बेञ्चहिं लेंहिं चलावहिं काम, दिए कचौरी-वाले दाम ॥३५६॥
भए रुपया चौदह ठीक, सब चुकाइ दीनै तहकीक ।
तीनि बार करि दीनौं माल, हरषित कियौ कचौरी-बाल ॥३५७॥
बरस दोइ साझी रहे, फिर मन भयौ विषाद ।
तब बनारसी की चली, मनसा खैराबाद ॥३५८॥
एक दिवस बानारसी, गयौ साहु के धाम ।
कहै चलाऊ हम भए, लेहु आपने दाम ॥३५९॥
जसू साह तब दियौ जुआब, बेचहु थैली कौ असबाब ।
जब एकठे हौंहि सब थोक, हम कौं दाम देहु तब रोक ॥३६०॥
तब बनारसी बेची बस्त, दाम एकठे किए समस्त ।
गनि दीनहिं मुद्रा सै पञ्च, बाकी कछू न राखी रञ्च ॥३६१॥
बरस दोइ महिं दोइ सै, अधिके किए कमाइ ।
बेची बस्तु बजार महिं, बढ़ता गयौ समाइ ॥३६२॥
सोलह सै सत्तरि समै, लेखा कियौ अचूक ।
न्यारे भए बनारसी, करि साझा द्वै टूक ॥३६३॥
जो पाया सो खाया सर्व, बाकी कछू न बाञ्च्या दर्व ।
करी मसक्कति गई अकाथ, कौड़ी एक न लागी हाथ ॥३६४॥
निकसी घौङ्घी सागर मथा, भई हीङ्ग-वाले की कथा ।
लेखा किया रूख-तल बैठि, पूञ्जी गई गाणृइ महिं पैठि ॥३६५॥
सो बनारसी की गति भई, फिरि आई दरिद्रता नई ।
बरस डेढ़ लौं नाचे भले, ह्वै खाली घर कौं उठि चले ॥३६६॥
एक दिवस फिरि आए हाट, घर सौं चले गली की बाट ।
सहज दिष्टि कीनी जब नीच, गठरी एक परी पथ बीच ॥३६७॥
सो बनारसी लई उठाइ, अपने डेरे खाली आइ ।
मोति आठ और किछु नांहि, देखत खुसी भए मन मांहि ॥३६८॥
ताइत एक गढ़ायौ नयौ, मोती मेले सम्पुट दयौ ।
बन्ध्यौ कटि कीनौ बहु यत्न, जनु पायौ चिन्तामनि रत्न ॥३६९॥
अन्तर-धनु राख्यौ निज पास, पूरब चले बनारसिदास ।
चले चले आए तिस ठांउ, खराबाद नाम जहां गांउ ॥३७०॥
कल्ला साहु ससुर के धाम, सन्ध्या आइ कियौ विश्राम ।
रजनी बनिता पूछै बात, कहौ आगरे की कुसलात ॥३७१॥
कहै बनारसि माया-बैन, बनिता कहै झूठ सब फैन ।
तब बनारसी साञ्ची कही, मेरे पास कछू नहिं सही ॥३७२॥
जो कभु दाम कमाए नए, खरच खाइ फिरि खाली भए ।
नारी कहै सुनौ हो कन्त, दुख सुख कौ दाता भगबन्त ॥३७३॥
समै पाइकै दुख भयौ, समै पाइ सुख होइ ।
होनहार सो ह्वै रहै, पाप पुन्न फल दोइ ॥३७४॥
कहत सुनत आर्गलपुर-बात, रजनी गई भयौ परभात ।
लहि एकन्त कन्त के पानि, बीस रुपैया दीए आनि ॥३७५॥
ए महिं जोरि धरे थे दाम, आए आज तुम्हारे काम ।
साहिब चिन्त न कीज कोइ, पुरुष जिए तो सब कछु होइ ॥३७६॥
यह कहि नारि गई मां पास, गुपत बात कीनी परगास ।
माता काहू सौं जिनि कहौ, निज पुत्री की लज्जा बहौ ॥३७७॥
थोरे दिन महिं लेहु सुधि, तो तुम मा महिं धीय ।
नाहीं तौ दिन कैकु महिं, निकसि जाइगौ पीय ॥३७८॥
ऐसा पुरुष लजालू बड़ा, बात न कहै जात है गड़ा ।
कहै माइ जिनि होइ उदास, द्वै सै मुद्रा मेरे पास ॥३७९॥
गुपत देौं तेरे कर मांहि, जो वै बहुरि आगरे जांहि ।
पुत्री कहै धन्य तू माइ, महिं उन कौं निसि बूझा जाइ ॥३८०॥
रजनी समै मधुर मुख भास, बनिता कहै बनारसि पास ।
कन्त तुम्हारौ कहा बिचार, इहां रहौ कै करौ बिहार ॥३८१॥
बानारसी कहै तिय पांहि, हम तू साथ जौनपुर जांहि ।
बनिता कहै सुनहु पिय बात, उहां महा बिपदा उतपात ॥३८२॥
तुम फिर जाहु आगरे मांहि, तुम कौं और ठौर कहौं नांहि ।
बानारसी कहै सुन तिया, बिनु धन मानुष का धिग जिया ॥३८३॥
दे धीरज फिरि बोलै बाम, करहु खरीद दैौं महिं दाम ।
यह कहि दाम आनि गनि दिए, बात गुपत राखी निज हिए ॥३८४॥
तब बनारसी बहुरौ जगे, एती बात करन कौं लगे ।
करहिं खरीद धोवाबहिं चीर, दूणृहहिं मोती मानिक हीर ॥३८५॥
जोरहिं , लिखहिं भरि बन्द ।
च्यारहिं काज करहिं मन लाइ, अपनी अपनी बिरिया पाइ ॥३८६॥
इहि बिधि च्यारि महीनें गए, च्यारि काज सम्पूरन भए ।
करी सै दोइ, राखे उर पोइ ॥३८७॥
कपरा धोइ भयौ तैयार, लियौ मोल मोती कौ हार ।
अगहन मास सुकल बारसी, चले आगरै बानारसी ॥३८८॥
बहुरौं आए आगरै, फिरिकै दूजी बार ।
तब कटले परबेज के, आनि उतार्यौ भार ॥३८९॥
कटले मांहि ससुर की हाट, तहां करहि भोजन कौ ठाठ ।
रजनी सोबहिं कोठी मांहि, नित उठि प्रात नखासे जांहि ॥३९०॥
फरि बैठहिं बहु करै उपाइ, मन्दा कपरा कछु न बिकाइ ।
आवहि जाहि करहि अति खेद, नहि समुझै भावी कौ भेद ॥३९१॥
मोती-हार लियौ हुतौ, दै मुद्रा चालीस ।
सौ बेच्यौ सत्तरि उठे, मिले रुपैआ तीस ॥३९२॥
तब बनारसी करै बिचार, भला जबाहर का ब्यापार ।
हुए पौन दूनें इस मांहि, अब सौ बस्त्र खरीदहि नांहिं ॥३९३॥
च्यारि मास लौं कीनौ धन्ध, नहिं बिकाइ कपरा पग बन्ध ।
बैनीदास खोबरा गोत, ता कौ "डास णरोत्तम" पोत ॥३९४॥
सो बनारसी कौ हितू, और बदलिआ "ठान" ।
रात दिवस क्रीड़ा करहिं, तीनौं मित्र समान ॥३९५॥
चढ़ि गाड़ी पर तीनौं डौल, पूजा हेतु गए भर कौल ।
कर पूजा फिरि जोरे हाथ, तीनौं जनें एक ही साथ ॥३९६॥
प्रतिमा आगै भाखहिं एहु, हम कौं नाथ लच्छिमी देहु ।
जब लच्छिमी देहु तुम तात, तब फिरि करहिं तुम्हारी जात ॥३९७॥
यह कहिक आए निज गेह, तीनौं मित्र भए इक देह ।
दिन अरु रात एकठे रहहिं, आप आपनी बातहिं कहहिं ॥३९८॥
आयौ फागुन मास बिख्यात, बालचन्द की चली बरात ।
टाराचन्द मौठिया गोत, णेमा कौ सुत भयौ उदोत ॥३९९॥
कही बनारसि सौं तिन बात, तू चलु मेरे साथ बरात ।
तब अन्तर-धन मोती काढ़ि, मुद्रा तीस और द्वै बाढ़ि ॥४००॥
बेञ्चि खोञ्चिकै आनै दाम, कीनौ तब बराति कौ साम ।
चले बराति बनारसिदास, दूजा मित्र णरोत्तम पास ॥४०१॥
मुद्रा खरच भए सब तिहां, ह्वै बरात फिरि आए इहां ।
खैराबादी कपरा झारि, बेच्यौ घटे रुपैया च्यारि ॥४०२॥
मूल-ब्याज दै फारिक भए, तब सु णरोत्तम के घर गए ।
भोजन करकै दोऊ यार, बैठे कियौ परस्पर प्यार ॥४०३॥
कहै णरोत्तमदास तब, रहौ हमारे गेह ।
भाई सौं क्या भिन्नता, कपटी सौं क्या नेह ॥४०४॥
तब बनारसी ऊतर भनै, तेरे घर सौं मोहि न बनै ।
कहै णरोत्तम मेरे भौन, तुम सौं बोलै ऐसा कौन ॥४०५॥
तब हठ करि राखे घर मांहि, भाई कहै जुदाई नांहि ।
काहू दिवस णरोत्तमदास, टाराचन्द मौठिए पास ॥४०६॥
बैठे तब उठि बोले साहु, तुम बनारसी पटनें जाहु ।
यह कहि रासि देइ तिस बार, टीका काढ़ि उतारे पार ॥४०७॥
आइ पार बूझे दिन भले, तीनि पुरुष गाड़ी चढ़ी चले ।
सेवक कोउ न लीनौं गैल, तीनौं सिरीमाल नर छैल ॥४०८॥
प्रथम णरोत्तम कौ ससुर, दुतिय णरोत्तमदास ।
तीजा पुरुष बनारसी, चौथा कोउ न पास ॥४०९॥
भाड़ा किया पिरोजाबाद, साहिजादपुर लौं मरजाद ।
चले साहिजादेपुर गए, रथ सौं उतरि पयादे भए ॥४१०॥
रथ का भाड़ा दिया चुकाइ, साञ्झि आइकै बसे सराइ ।
आगै और न भाड़ा किया, साथ एक लीया बोझिया ॥४११॥
पहर डेढ़ रजनी जब गई, तब तही मकर चान्दनी भई ।
इन के मन आई यह बात, कहहिं चलहु हूवा परभात ॥४१२॥
तीनौं जनें चले ततकाल, दै सिर बोझ बोझिया नाल ।
चारौं भूलि परे पथ मांहि, दच्छिन दिसि जङ्गल महिं जांहि ॥४१३॥
महा बीझ बन आयौ जहां, रोवन लग्यौ बोझिया तहां ।
बोझ डारि भाग्यौ तिस ठौर, जहां न कोऊ मानुष और ॥४१४॥
तब तीनिहु मिलि कियौ बिचार, तीनि भाग कीन्हा सब भार ।
तीनि गाण्ठि बन्धी सम भाइ, लीनी तीनिहु जनें उठाइ ॥४१५॥
कबहूं कान्धै कबहूं सीस, यह विपत्ति दीनी जगदीस ।
अरध रात्रि जब भई बितीत, खिन रोवहिं खिन गावहिं गीत ॥४१६॥
चले चले आए तिस ठांउ, जहां बसै चोरन्ह कौ गांउ ।
बोला पुरुष एक तुम कौन, गए सूखि मुख पकरी मौन ॥४१७॥
इन्ह परमेसुर की लौ धरी, वह था चोरन्ह का चौधरी ।
तब बनारसी पढ़ा सिलोक, दी असीस उन दीनी धोक ॥४१८॥
कहै चौधरी आवहु पास, तुम णारायण महिं तुम्ह दास ।
आइ बसहु मेरी चौपारि, मोरे तुम्हरे बीच मुरारि ॥४१९॥
तब तीनौं नर आए तहां, दिया चौधरी थानक जहां ।
तीनौं पुरुष भए भय-भीत, हिरदै मांहि कम्प मुख पीत ॥४२०॥
सूत काढ़ि डोरा बट्यौ, किए जनेऊ चारि ।
पहिरे तीनि तिहूं जनें, राख्यौ एक उबारि ॥४२१॥
माटी लीनी भूमि सौं, पानी लीनौं ताल ।
बिप्र भेष तीनौं बनहिं, टीका कीनौं भाल ॥४२२॥
पहर दोइ लौं बैठे रहे, भयौ प्रात बादर पहपहे ।
हय-आरूढ़ चौधरी-ईस, आयौ साथ और नर बीस ॥४२३॥
उनि कर जोरि नबायौ सीस, इन उठिकै दीनी आसीस ।
कह चौधरी पण्डित-राइ, आवहु मारग देहौं दिखाइ ॥४२४॥
पराधीन तीनौं उठि चले, मस्तक तिलक जनेऊ गले ।
सिर पर तीनिहु लीनी पोट, तीन कोस जङ्गल की ओट ॥४२५॥
गयौ चौधरी कियौ निबाह, आई फत्तेपुर की राह ।
कहै चौधरी इस मग मांहि, जाहु हमहिं आग्या हम जांहि ॥४२६॥
फत्तेपुर इन्ह रूखन तले, "चिरं जीव" कहि तीनौं चले ।
कोस दोइ दीसै ऌअखरांउ, फिर द्वै कोस फतेपुर-गांउ ॥४२७॥
आइ फतेपुर लीनी ठौर, दोइ मजूर किए तहां और ।
बहुरौं त्यागि फतेपुर-बास, गए छ कोस ईलाहाबास ॥४२८॥
जाइ सराइ उतारा लिया, गङ्गा के तट भोजन किया ।
बानारसी नगर मै गयौ, खरगसेन कौ दरसन भयौ ॥४२९॥
दौरि पुत्र नहिं पकरे पाइ, पिता ताहि लीनौ उर लाइ ।
पूछै पिता बात एकन्त, कह्यौ बनारसि निज बिरतन्त ॥४३०॥
सुत के बचन हिए महिं धरे, खाइ पछार भूमि गिरि परे ।
मूर्छा-गति आई ततकाल, सुख महिं भयौ ऊचलाचाल ॥४३१॥
घरी चारि लौं बेसुध रहे, स्वासा जगी फेरि लहलहे ।
बानारसी णरोत्तमदास, डोली करी ईलाहाबास ॥४३२॥
खरगसेन कीनौं असबार, बेगि उतारे गङ्गा-पार ।
तीनौं पुरुष पियादे पाइ, चले जौनपुर पहुञ्चे आइ ॥४३३॥
बानारसी णरोत्तम मित्त, चले बनारसि बनज-निमित्त ।
जाइ पास-जिन पूजा करी, ठाढ़े होइ बिरति उच्चरी ॥४३४॥
साञ्झ-समै दुबिहार, प्रात नौकारसहि ।
एक अधेला पुन्न, निरन्तर नेम गहि ।
नौकरवाली एक, जाप नित कीजिए ।
दोष लगै परभात, तौ घीउ न लीजिए ॥४३५॥
मारग बरत जथा-सकति, सब चौदसि उपवास ।
साखी कीनौं पास जिन, राखी हरी पचास ॥४३६॥
दोइ बिवाह सुरित द्वै, आगहिं करनी और ।
परदारा-सङ्गति तजी, दुहू मित्र इक ठौर ॥४३७॥
सोलह सै इकहत्तरे, सुकल पच्छ बैसाख ।
बिरति धरी पूजा करी, मानहु पाए लाख ॥४३८॥
पूजा करि आए निज थान, भोजन कीना खाए पान ।
करै कछू ब्यौपार बिसेख, खरगसेन कौ आयौ लेख ॥४३९॥
चीठी मांहि बात बिपरीत, बाञ्चन लागे दोऊ मीत ।
बानारसीदास की बाल, खैराबाद हुती पिउ-साल ॥४४०॥
ता के पुत्र भयौ तीसरौ, पायौ सुख तिनि दुख बीसरौ ।
सुत जन महिं दिन पन्द्रह हुए, माता बालक दोऊ मुए ॥४४१॥
प्रथम बहू की भगिनी एक, सो तिन भेजी कियौ विवेक ।
नाऊ आनि नारिअर दियौ, सो हम भले मूहूरत लियौ ॥४४२॥
एक बार ए दोऊ कथा, सण्डासी लुहार की जथा ।
छिन मीहि अगिनि छिनक जल-पात, त्यौं यह हरख-शोक की बात ॥४४३॥
यह चीठी बाञ्ची तब दौंहू, जुगुल मित्र रोए करि उहूं ।
बहुतै रुदन बनारसि कियौ, चुप ह्वै रहे कठिन करि हियौ ॥४४४॥
बहुरौं लागे अपने काज, रोजगार कौ करन इलाज ।
लेंहि देंहि थोरा अरु घना, चूंनी मानिक मोती पना ॥४४५॥
कबहूं एक जौनपुर जाहि, कबहूं रहै बनारस माहि ।
दोऊ सकृत रहहिं इक ठौर, ठानहिं भिन्न भिन्न पग दौर ॥४४६॥
करहिं मसक्कति आलस नांहि, पहर तीसरे रोटी खांहि ।
मास छ सात गए इस भान्ति, बहुरौं कछु पकरी उपसान्ति ॥४४७॥
घोरा दौरहि खाइ सबार, ऐसी दसा करी करतार ।
च्ईनी किलिच खान उमराउ, तिन बुलाइ दीयौ सिरपाउ ॥४४८॥
बेटा बड़ो किलीच कौ, च्यार हजार मार ।
नगर जौनपुर कौ धनी, दाता पण्डित बीर ॥४४९॥
च्ईनी किलिच बनारसी, दोऊ मिले बिचित्र ।
वह या सौं किरिपा करै, यह जानै महिं मित्र ॥४५०॥
एहि बिधि बीते बहुत दिन, बीती दसा अनेक ।
बैरी पूरब जनम कौ, प्रगट भयौ नर एक ॥४५१॥
तिनि अनेक बिधि दुख दियौ, कहौं कहां लौं सोइ ।
जैसी उनि इन सौं करी, ऐसी करै न कोइ ॥४५२॥
बानारसी णरोत्तमदास, दुहु कौं लेन न देइ उसास ।
दोऊ खेद खिन्न तिनि किए, दुख भी दिए दाम भी लिए ॥४५३॥
मास दोइ बीते इस बीच, कहूं गयौ थौ च्ईनि किलीच ।
आयौ गढ़ मौवासा जीति, फिरि बनारसी सेती प्रीति ॥४५४॥
कबहौं पढ़ै, ।
करै कृपा नित एक-सी, कबहौं न होइ विरोध ॥४५५॥
बानारसी कही किछु नांहि, पै उनि भय मानी मन मांहि ।
तब उन पञ्च बदे नर च्यारि, तिन्ह चुकाइ दीनी यह रारि ॥४५६॥
चूक्यौ झगरा भयौ अनन्द, ज्यौं सुछन्द खग छूटत फन्द ।
सोलह सै बहत्तरै बीच, भयौ काल-बस च्ईनि किलीच ॥४५७॥
बानारसी णरोत्तमदास, पटनें गए बनज की आस ।
मास छ सात रहे उस देस, थोरा सौदा बहुत किलेस ॥४५८॥
फिरि दोऊ आए निज ठांउ, बानारसी जौनपुर गांउ ।
इहां बनज कीनौ अधिकाइ, गुपत बात सो कही न जाइ ॥४५९॥
आउ बित्त निज गृह-चरित, दान मान अपमान ।
औषध मैथुन मन्त्र निज, ए नव अकह-कहान ॥४६०॥
तातहिं यह न कही विख्यात, नौ बातन्ह महिं यह भी बात ।
कीनी बात भली अरु बुरी, पटनें कासी जौनापुरी ॥४६१॥
रहे बरस द्वै तीनिहु ठौर, तब किछु भई और की और ।
आगानूर नाम उमराउ, तिस कौं साहि दियौ सिरपाउ ॥४६२॥
सो आवतौ सुन्यौ जब सोर, भागे लोग गए चहु ओर ।
तब ए दोऊ मित्र सुजान, आए नगर जौनपुर थान ॥४६३॥
घर के लोग कहूं छिपि रहे, दोऊ यार उतर दिसि बहे ।
दोऊ मित्र चले इक साथ, पांउ पियादे लाठी हाथ ॥४६४॥
आए नगर आजोध्या मांहि, कीनी जात रहे तहां नांहि ।
चले चले रौनांही गए, ढर्मनाथ के सेवक भए ॥४६५॥
पूजा कीनी भगति सौं, रहे गुपत दिन सात ।
फिरि आए घर की तरफ, सुनी पन्थ मीह बात ॥४६६॥
आगानूर बनारसी, और जौनपुर बीच ।
कियौ उदङ्गल बहुत नर, मारे करि अध-मीच ॥४६७॥
हक नाहक पकरे सबै, जड़िया कोठीबाल ।
हुण्डीबाल सराफ नर, अरु जौंहरी दलाल ॥४६८॥
काहू मारे कोररा, काहू बेड़ी पाइ ।
काहू राखे भाखसी, सब कौं देइ सजाइ ॥४६९॥
सुनी बात यह पन्थिक पास, बानारसी णरोत्तमदास ।
घर आवत हे दोऊ मीत, सुनि यह खबरि भए भय-भीत ॥४७०॥
सुरहुरपुर कौं बहुरौं फिरे, चढ़ि घड़नाई सरिता तिरे ।
जङ्गल मांहि हुतौ मौवास, जहां जाइ करि कीनौ बास ॥४७१॥
दिन चालीस रहे तिस ठौर, तब लौं भई और की और ।
आगानूर गयौ आगरे, छोड़ि दिए प्रानी नागरे ॥४७२॥
नर द्वै चारि हुते बहु-धनी, तिन्ह कौं मारि दई अति घनी ।
बान्धि ल गयौ अपने साथ, इक नाहक जानै जिननाथ ॥४७३॥
इस अन्तर ए दोऊ जनें, आए निरभय घर आपनें ।
सब परिवार भयौ एकत्र, आयौ सबलसिङ्घ कौ पुत्र ॥४७४॥
सबलसिङ्घ मौठिआ मसन्द, णेमीदास साहु कौ नन्द ।
लिख्यौ लेख तिन अपने हाथ, दोऊ साझी आवहु साथ ॥४७५॥
अब पूरब महिं जिनि रहौ, आवहु मेरे पास ।
यह चीठी साहू लिखी, पढ़ी बनारसिदास ॥४७६॥
और णरोत्तम के पिता, लिख दीनौ बिरतन्त ।
सो कागद आयौ गुपत, उनि बाञ्च्यौ एकन्त ॥४७७॥
बाञ्चि पुत्र बानारसी, के कर दीनौ आनि ।
बाञ्चहु ए चाचा लिखे, समाचार निज पानि ॥४७८॥
पढ़ने लगे बानारसी, लिखी आठ दस पान्ति ।
हेम-खेम ता के तले, समाचार इस भान्ति ॥४७९॥
खरगसेन बानारसी, दोऊ दुष्ट विशेष ।
कपट-रूप तुझ कौं मिले, करि धूरत का भेष ॥४८०॥
इन के मत जो चलहिगा, तौ माङ्गहिगा भीख ।
तातहिं तू हुसियार रहु, यहै हमारी सीख ॥४८१॥
समाचार बानारसी, बाञ्चे सहज सुभाउ ।
तब सु णरोत्तम जोरि कर, पकरे दोऊ पाउ ॥४८२॥
कहै बनारसिदास सौं, तू बन्धव तू तात ।
तू जानहि उस की दसा, क्या मूरख की बात ॥४८३॥
तब दोऊ खुसहाल ह्वै, मिले होइ इक चित्त ।
तिस दिन सौं बानारसी, नित्त सराहै मित्त ॥४८४॥
रीझि णरोत्तमदास कौ, कीनौ एक कबित्त ।
पढ़हिं रैन दिन भाट-सौ, घर बजार जित-कित्त ॥४८५॥
नव-पद ध्यान गुन-गान भगवन्त-जी कौ,
करत सुजान दिढ़-ग्यान जग मानियै ।
रोम-रोम अभिराम धर्म-लीन आठौ जाम,
रूप-धन-धाम काम-मूरति बखानियै ।
तन कौ न अभिमान सात खेत देत दान,
महिमान जा के जस कौ बितान तानियै ।
महिमा-निधान प्रान प्रीतम बनारसी कौ,
चहु-पद आदि अच्छरन्ह नाम जानियै ॥४८६॥
बानारसि चिन्तहिं मन मांहि, ऐसो मित्त जगत महिं नांहि ।
इस ही बीच चलन कौ साज, दोऊ साझी करहिं इलाज ॥४८७॥
खरगसेन-जी जहमति परे, आइ असाधि बैद नहिं करे ।
बानारसी णरोत्तमदास, लाहनि कछू कराई तास ॥४८८॥
सम्बत तिहत्तरे बैसाख, सातहिं सोमवार सित पाख ।
तब साझे का लेखा किया, सब असबाब बाण्टिकै लिया ॥४८९॥
दोइ रोजनामहिं किए, रहे दुहू के पास ।
चले णरोत्तम आगरै, रहे बनारसिदास ॥४९०॥
रहे बनारसि जौनपुर, निरखि तात बेहाल ।
जेठ अन्धेरी पञ्चमी, दिन बितीत निसि-काल ॥४९१॥
खरगसेन पहुचे सुरग, कहवति लोग विख्यात ।
कहां गए किस जोनि महिं, कहै केवली बात ॥४९२॥
कियौ सोक बानारसी, दियौ नैन भरि रोइ ।
हियौ कठिन कीनौ सदा, जियौ न जग महिं कोइ ॥४९३॥
मास एक बीत्यौ जब और, तब फिरि करी बनज की दौर ।
हुण्डी लिखी रजत सै पञ्च, लिए करन लागे पट सञ्च ॥४९४॥
पट खरीदि कीनौं एकत्र, आयौ बहुरि साहु कौ पत्र ।
लिखा सिङ्घ-जी चीठी मांहि, तुझ बिनु लेखा चूकै नाहिं ॥४९५॥
तातहिं तू भी आउ सिताब, महिं बूझहिं सो देहि जुवाब ।
बानारसी सुनत बिरतन्त, तजि कपरा उठि चले तुरन्त ॥४९६॥
बाम्भन एक नाम सिवराम, सौम्प्यौ ताहि बस्त्र का काम ।
मास असाढ़ मांहि दिन भले, बानारसी आगरै चले ॥४९७॥
एक तुरङ्गम नौं नफर, लीनें साथि बनाइ ।
नांउ घैसुआ गांउ महिं, बसे प्रथम दिन आइ ॥४९८॥
ताही दिन आयौ तहां, और एक असबार ।
कोठीबाल महेसुरी, बसै आगरै बार ॥४९९॥
षट सेबक इक साहिब सोइ, मथुरा-बासी बाम्भन दोइ ।
नर उनीस की जुरी जमाति, पूरा साथ मिला इस भान्ति ॥५००॥
कियौ कौल उतरहिं इक-ठौर, कोऊ कहूं न उतरै और ।
चले प्रभात साथ करि गोल, खेलहिं हंसहिं करहिं कल्लोल ॥५०१॥
गांउ नगर उल्लङ्घि बहु, चलि आए तिस ठांउ ।
जहां घटमपुर के निकट, बसै कोररा गांउ ॥५०२॥
उतरे आइ सराइ महिं, करि अहार विश्राम ।
मथुरा-बासी बिप्र द्वै, गए अहीरी-धाम ॥५०३॥
दुहु महिं बाम्भन एक उठि, गयौ हाट महिं जाइ ।
एक रुपैया काढ़ि तिनि, पैसा लिए भनाइ ॥५०४॥
आयौ भोजन साज ले, गयौ अहीरी-गेह ।
फिरि सराफ आयौ तहां, कहै रुपैया एह ॥५०५॥
गैरसाल है बदलि दै, कहै बिप्र मम नांहि ।
तेरा तेरा यौं कहत, भई कलह दुहु मांहि ॥५०६॥
मथुरा-बासी बिप्र नहिं, मार्यौ बहुत सराफ ।
बहुत लोग बिनती करी, तऊ करै नहिं माफ ॥५०७॥
भाई एक सराफ कौ, आइ गयौ इस बीच ।
मुख मीठी बातें करै, चित कपटी नर नीच ॥५०८॥
तिन बाम्भन के बस्त्र सब, टकटोहे करि रीस ।
लखे रुपैया गाण्ठि महिं, गिनि देखे पच्चीस ॥५०९॥
सब के आगै फिरि कहै, गैरसाल सब दर्व ।
कोतवाल पै जाइके, नजरि गुजारौ सर्व ॥५१०॥
बिप्र जुगल मिसु करि परे, मृतक-रूप धरि मौन ।
बनिया सबनि दिखाइ लै, गयौ गाण्ठि निज भौन ॥५११॥
खरे दाम घर महिं धरे, खोटे ल्यायौ जोरि ।
मिही कोथली मांहि भरि, दीनी गाण्ठि मरोरि ॥५१२॥
लेइ कोथली हाथ महिं, कोतबाल पै जाइ ।
खोटे दाम दिखाइकै, कही बात समुझाइ ॥५१३॥
साहिब-जी ठग आये घनें, फैले फिरहिं जांहि नहिं गनें ।
सन्ध्या-समै हौंहि इक ठौर, ह्वै असबार करहु तब दौर ॥५१४॥
यह कहि बनिक निरालो भयौ, कोतबाल हाकिम पै गयौ ।
कही बात हाकिम के कान, हाकिम साथ दियौ दीबान ॥५१५॥
कोतबाल दीबान समेत, साञ्झ समै आए ज्यौं प्रेत ।
पुरजन लोक साथि सै चारि, जनु सराइ महिं आई धारि ॥५१६॥
बैठे दोऊ खाट बिछाइ, बाम्भन दोऊ लिए बुलाइ ।
पूछै मुगल कहहु तुम कौन, कहै बिप्र मथुरा मम भौन ॥५१७॥
फिरि महेसरी लियौ बुलाय, कही तू जाहि कहां सौं आइ ।
तब सो कहे जौनपुर गांउ, कोठीबाल आगरे जांउ ॥५१८॥
फिरि बनारसी बोलै बोल, महिं जौंहरी करौं मनि-मोल ।
कोठी हुती बनारस मांहि, अब हम बहुरि आगरै जांहि ॥५१९॥
साझी णेमा साहु के, तखत जौनपुर भौन ।
ब्यौपारी जग महिं प्रकट, ठग के लच्छन कौन ॥५२०॥
कही बात जब बानारसी, तब वे कहन लगे पारसी ।
एक कहै ए ठग तहकीक, एक कहै ब्यौपारी ठीक ॥५२१॥
कोतवाल तब कहै पुकारि, बान्धहु बेग करहु क्या रारि ।
बोलै हाकिम कौ दीबान, अहमक कोतबाल नादान ॥५२२॥
राति समै सूझ नहिं कोइ, चोर साहु की निरख न होइ ।
कछु जिन कहौ राति की राति, प्रात निकसि आवैगी जाति ॥५२३॥
कोतबाल तब कहै बखानि, तुम ढूणृहहु अपनी पहिचानि ।
कोररा घाटमपुर अरु बरी, तीनि गांउ की सरियति करी ॥५२४॥
और गांउ हम मानहिं नांहि, तुम यह फिकिर करहु हम जांहि ।
चले मुगल बादा बदि भोर, चौकी बैठाई चहु-ओर ॥५२५॥
सिरीमाल बानारसी, अरु महेसुरी-जाति ।
करहिं मन्त्र दोऊ जनें, भई छ-मासी राति ॥५२६॥
पहर राति जब पिछली रही, तब महेसुरी ऐसी कही ।
मेरो लहुरा भाई हरी, नांउ सु तौ ब्याहा है बरी ॥५२७॥
हम आए थे इहां बरात, भली यादि आई यह बात ।
बानारसी कहै रे मूढ़, ऐसी बात करी क्यौं गूढ़ ॥५२८॥
तब महेसुरी यौं कहै, भय सौं भूली मोहि ।
अब मो कौं सुमिरन भई, तू निचिन्त मन होहि ॥५२९॥
तब बनारसी हरषित भयौ, कछु इक सोच रह्यौ कछु गयौ ।
कबहू चित की चिन्ता भगै, कबहू बात झूठ-सी लगै ॥५३०॥
यौं चिन्तवत भयौ परभात, आइ पियादे लागे घात ।
सूली दै मजूर के सीस, कोतवाल भेजी उनईस ॥५३१॥
ते सराइ महिं डारी आनि, प्रगट पियादे कहहिं बखानि ।
तुम उनीस प्रानी ठग लोग, ए उनीस सूली तुम जोग ॥५३२॥
घरी एक बीते बहुरि, कोतबाल दीबान ।
आए पुरजन साथ सब, लोग करन निदान ॥५३३॥
तब बनारसी बोलै बानि, बरी मांहि निकसी पहचानि ।
तब दीबान कहै स्याबास, यह तो बात कही तुम रास ॥५३४॥
मेरे साथ चलो तुम बरी, जो किछु उहां होइ सो खरी ।
महेसुरी हूओ असबार, अरु दीबान चला तिस लार ॥५३५॥
दोऊ जनें बरी महिं गए, समधी मिले साहु तब भए ।
साहु साहु-घर कियौ निवास, आयौ मुगल बनारसी पास ॥५३६॥
आइ कह्यौ तुम साञ्चे साहु, करहु माफ यह भया गुनाहु ।
तब बनारसी कहै सुभाउ, तुम साहिब हाकिम उमराउ ॥५३७॥
जो हम कर्म पुरातन कियौ, सो सब आइ उदै रस दियौ ।
भावी अमिट हमारा मता, इस महिं क्या गुनाह क्या खता ॥५३८॥
दोऊ मुगल गए निज धाम, तही बनारसी कियौ मुकाम ।
दोऊ बाम्भन ठाढ़े भए, बोलहिं दाम हमारे गए ॥५३९॥
पहर एक दिन जब चढ़्यौ, तब बनारसीदास ।
सेर छ सात फुलेल ले, गए मुगल के पास ॥५४०॥
हाकिम कौं दीबान कौं, कोतबाल के गेह ।
जथा-जोग सब कौं दियौ, कीनौं सबसन नेह ॥५४१॥
तब बनारसी यौं कहै, आजु सराफ ठगाइ ।
गुनहगार कीजै उस हि, दीजै दाम मङ्गाइ ॥५४२॥
कहै मुगल तुझ बिनु कहहिं, महिं कीन्हौं उस खोज ।
वह निज सब ही साथ लै, भागा उस ही रोज ॥५४३॥
मिला न किस ठौर, तुम निज डेरे जाइ करि ।
सिरिनी बाण्टहु और, इन दामनि की क्या चली ॥५४४॥
तब बनारसी चिन्तै आम, बिना जोर नहिं आवहि दाम ।
इहां हमारा किछु न बसाय, तातहिं बैठि रहै घर जाय ॥५४५॥
यह विचार करि कीनी दुवा, कही जु होना था सो हुवा ।
आए अपने डेरे मांहि, कही बिप्र सौं दमिका नाहिं ॥५४६॥
भोजन कीनौ सबनि मिलि, हूऔ सन्ध्या-काल ।
आयौ साहु महेसुरी, रहे राति खुसहाल ॥५४७॥
फिरि प्रभात उठि मारग लगे, मनहु काल के मुख सौं भगे ।
दूजै दिन मारग के बीच, सुनी णरोत्तम हित की मीच ॥५४८॥
चीठी बैनीदास की, दीनी काहू आनि ।
बाञ्चत ही मुरछा भई, कहूं पांउ कहौं पानि ॥५४९॥
बहुत भान्ति बानारसी, कियौ पन्थ महिं सोग ।
समुझावै मानै नहीं, घिरे आइ बहु लोग ॥५५०॥
लोभ मूल सब पाप कौ, दुख कौ मूल सनेह ।
मूल अजीरन ब्याधि कौ, मरन मूल यह देह ॥५५१॥
ज्यौं त्यौं कर समुझे बहुरि, चले होहि असबार ।
क्रम क्रम आए आगरै, निकट नदी के पार ॥५५२॥
तहां बिप्र दोऊ भए, आड़े मारग बीच ।
कहहिं हमारे दाम बिनु, भई हमारी मीच ॥५५३॥
कही सुनी बहुतेरी बात, दोऊ बिप्र करहिं अपघात ।
तब बनारसी सोचि बिचारि, दीनहिं दामनि मेटी रारि ॥५५४॥
बारह दिए महेसुरी, तेरह दीनहिं आप ।
बाम्भन गए असीस दै, भए बनिक निष्पाप ॥५५५॥
अपने अपने गेह सब, आए भए निचीत ।
रोए बहुत बनारसी, हाइ मीत हा मीत ॥५५६॥
घरी चारि रोए बहुरि, लगे आपने काम ।
भोजन करि सन्ध्या समय, गए साहु के धाम ॥५५७॥
आवीहि जांहि साहु के भौन, लेखा कागद देखै कौन ।
बैठे साहु बिभौ-मदमान्ति, गावहिं गीत कलावत-पान्ति ॥५५८॥
धुरै पखावज बाजै तान्ति, सभा साहिजादे की भान्ति ।
दीजहि दान अखण्डित नित्त, कवि बन्दीजन पढ़हि कबित्त ॥५५९॥
कही न जाइ साहिबी सोइ, देखत चकित होइ सब कोइ ।
बानारसी कहै मन मांहि, लेखा आइ बना किस पांहि ॥५६०॥
सेवा करी मास द्वै चारि, कैसा बनज कहां की रारि ।
जब कहिए लेखे की बात, साहु जुवाब देहि परभात ॥५६१॥
मासी घरी छ-मासी जाम, दिन कैसा यह जानै राम ।
सूरज उदै अस्त है कहां, विषयी विषय-मगन है जहां ॥५६२॥
एहि बिधि बीते बहुत दिन, एक दिवस इस राह ।
चाचा बेनीदास के, आए आङ्गा साह ॥५६३॥
आङ्गा चङ्गा आदमी, सज्जन और बिचित्र ।
सो बहनेऊ सिङ्घ के, बानारसि का मित्र ॥५६४॥
ता सौं कही बनारसी, निज लेखे की बात ।
भैया हम बहुतै दुखी, दुखी णरोत्तम तात ॥५६५॥
तातहिं तुम समुझाइकै, लेखा डारहु पारि ।
अगिली फारकती लिखौ, पिछिलो कागद फारि ॥५६६॥
तब तिस ही दिन आङ्गनदास, आए सबलसिङ्घ के पास ।
लेखा कागद लिए मङ्गाइ, साझा पाता दिया चुकाइ ॥५६७॥
फारकती लिखि दीनी दोइ, बहुरौ सुखुन करै नहिं कोइ ।
मता लिखाइ दुहू पै लिया, कागद हाथ दुहू का दिया ॥५६८॥
न्यारे न्यारे दोऊ भए, आप अपने घर उठि गए ।
सोलह सै तिहत्तरे साल, अगहन कृष्ण-पक्ष हिम-काल ॥५६९॥
लिया बनारसि डेरा जुदा, आया पुन्य करम का उदा ।
जो कपरा था बाम्भन हाथ, सो उनि भेज्या आछे साथ ॥५७०॥
आई जौनपुरी की गाण्ठि, धरि लीनी लेखे म्ण् साण्ठि ।
नित उठि प्रात नखासे जांहि, बेचि मिलावहिं पूञ्जी मांहि ॥५७१॥
इस ही समय ईति बिस्तरी, परी आगरै पहिली मरी ।
जहां तहां सब भागे लोग, परगट भया गाण्ठि का रोग ॥५७२॥
निकसै गाण्ठि मरै छिन मांहि, काहू की बसाइ किछु नांहि ।
चूहे मरहिं बैद मरि जांहि, भय सौं लोग ईन नहिं खांहि ॥५७३॥
नगर निकट बाम्भन का गांउ, सुखकारी आजीजपुर नांउ ।
तहां गए बानारसिदास, डेरा लिया साहु के पास ॥५७४॥
रहहिं अकेले डेरे मांहि, गर्भित बात कहन की नांहि ।
कुमति एक उपजी तिस थान, पूरब-कर्म-उदै परवांन ॥५७५॥
मरी निबर्त्त भई बिधि जोग, तब घर घर आए सब लोग ।
आए दिन केतिक इक भए, बानारसी आमरसर गए ॥५७६॥
उहां णिहालचन्द कौ ब्याह, भयौ बहुरि फिरि पकरी राह ।
आए नगर आगरे मांहि, सबलसिङ्घ के आवहिं जांहि ॥५७७॥
हुती जु माता जौनपुर, सो आई सुत पास ।
खैराबाद बिवाहकौं,चले बनारसिदास ॥५७८॥
करि बिवाह आए घर मांहि, मनसा भई जात कौं जांहि ।
बरधमान कौंअरजी दलाल, चल्यौ सङ्घ इक तिन्ह के नाल ॥५७९॥
आहिछत्ता-हथनापुर-जात, चले बनारसि उठि परभात ।
माता और भारजा सङ्ग, रथ बैठे धरि भाउ अभङ्ग ॥५८०॥
पचहत्तरे पोह सुभ घरी, आहिछत्ते की पूजा करी ।
फिरि आए हथनापुर जहां, सान्ति कुन्थु आर पूजे तहां ॥५८१॥
सान्ति-कुन्थ-आर-नाथ कौ, कीनौ एक कबित्त ।
ता कौं पढ़ै बनारसी, भाव भगति सौं नित्त ॥५८२॥
श्री बिससेन नरेस, सूर नृप राइ सुदंसन ।
आचिरा सिरिआ डेवि, करहिं जिस देव प्रसंसन ।
तसु नन्दन सारङ्ग, छाग नन्दावत लञ्छन ।
चालिस पैन्तिस तीस, चाप काया छबि कञ्चन ।
सुख-रासि बनारसिदास भनि, निरखत मन आनन्दई ।
हथिनापुर गजपुर णागपुर, सान्ति कुन्थ आर बन्दई ॥५८३॥
करी जात मन भयौ उछाह, फिर्यौ सङ्घ डिल्ली की राह ।
आई मेरठि पन्थ बिचाल, तहां बनारसी की न्हन-साल ॥५८४॥
उतरा सङ्घ कोट के तले, तब कुटुम्ब जात्रा करि चले ।
चले चले आए भर कोल, पूजा करी कियौ थौ कौल ॥५८५॥
नगर आगरै पहुचे आइ, सब निज निज घर बैठै जाइ ।
बानारसी गयौ पौसाल, सुनी जती श्रावक की चाल ॥५८६॥
बारह ब्रत के किए कबित्त, अङ्गीकार किए धरि चित्त ।
चौदह नेम सम्भालै नित्त, लागै दोष करै प्राछित्त ॥५८७॥
नित सन्ध्या पड़िकौना करै, दिन दिन ब्रत बिशेषता धरै ।
गहै जैन मिथ्या-मत बमै, पुत्र एक हूवा इस समै ॥५८८॥
छिहत्तरे सम्बत आसाढ़, जनम्यौ पुत्र धरम-रुचि बाढ़ ।
बरस एक बीत्यौ जब और, माता मरन भयौ तिस ठौर ॥५८९॥
सतहत्तरे समै मा मरी, जथा-सकति कछु लाहनि करी ।
उनासिए सुत अरु तिय मुई, तीजी और सगाई हुई ॥५९०॥
बेगा साहु कूकड़ी गोत, खैराबाद तीसरी पोत ।
समय अस्सिए ब्याहन गए, आए घर गृहस्थ फिरि भए ॥५९१॥
तब तहां मिले आरथमल ढोर, करहिं आध्यातम बातहिं जोर ।
तिनि बनारसी सौं हित कियौ, लिखि दियौ ॥५९२॥
राजमल्ल नहिं टीका करी, सो पोथी तिनि आगै धरी ।
कहै बनारसि सौं तू बाञ्चु, तेरे मन आवेगा साञ्चु ॥५९३॥
तब बनारसि बाञ्चै नित्त, भाषा अरथ बिचारै चित्त ।
पावै नेहीं अध्यातम पेच, मानै बाहिज किरिआ हेच ॥५९४॥
करनी कौ रस मिटि गयौ, भयौ न आतम-स्वाद ।
भई बनारसि की दसा, जथा ऊण्ठ कौ पाद ॥५९५॥
बहुरौं चमत्कार चित भयौ, कछु वैराग भाव परिनयौ ।
कीनी सार, ध्यान विचार ॥५९६॥
कीनहिं , बहुत कथन बिबहार-अतीत ।
इत्यादिक और, कबित अनेक किए तिस ठौर ॥५९७॥
जप तप सामायिक पड़िकौन, सब करनी करि डारी बौन ।
हरी-बिरति लीनी थी जोइ, सोऊ मिटी न परमिति कोइ ॥५९८॥
एसी दसा भई एकन्त, कहौं कहां लौं सो बिरतन्त ।
बिनु आचार भई मति नीच, साङ्गानेर चले इस बीच ॥५९९॥
बानारसी बराती भए, टिपुरदास कौं ब्याहन गए ।
ब्याहि ताहि आए घर मांहि, देव-चढ़ाया नेबज खांहि ॥६००॥
कुमती चारि मिले मन मेल, खेला पैजारहु का खेल ।
सिर की पाग लहिंहि सब छीनि, एक एक कौं मारहिं तीनि ॥६०१॥
च्अन्द्रभान बानारसी, ऊदैकरन अरु ठान ।
चारौं खेलहिं खेल फिरि, करहिं अध्यातम ग्यान ॥६०२॥
नगन ह्ण्हिं चारौं जनें, फिरहिं कोठरी मांहि ।
कहहिं भए मुनि-राज हम, कछू परिग्रह नांहि ॥६०३॥
गनि गनि मारहिं हाथ सौं, मुख सौं करहिं पुकार ।
जो गुमान हम करत हे, ता के सिर पैजार ॥६०४॥
गीत सुनहिं बातहिं सुनहिं, ता की बिङ्ग बनाइ ।
कहहिं अध्यातम महिं अरथ, रहहिं मृषा लौ लाइ ॥६०५॥
पूरब कर्म उदै सञ्जोग, आयौ उदय असाता भोग ।
तातहिं कुमत भई उतपात, कोऊ कहै न मानै बात ॥६०६॥
जब लौं रही कर्म-बासना, तब लौं कौन बिथा नासना ।
असुभ उदय जब पूरा भया, सहजहि खेल छूटि तब गया ॥६०७॥
कहहिं लोग श्रावक अरु जति, बानारसी खोसरामती ।
तीनि पुरुष की चलै न बात, यह पण्डित तातहिं विख्यात ॥६०८॥
निन्दा थुति जैसी जिस होइ, तैसी तासु कहै सब कोइ ।
पुरजन बिना कहे नहि रहै, जैसी देखै तैसी कहै ॥६०९॥
सुनी कहै देखी कहै, कलपित कहै बनाइ ।
दुराराधि ए जगत जन, इन्ह सौं कछु न बसाइ ॥६१०॥
जब यह धूम-धाम मिटि गई, तब कछु और अवस्था भई ।
जिन-प्रतिमा निन्दै मन मांहि, भुख सौं कहै जो कहनी नांहि ॥६११॥
करै बरत गुरु सनमुख जाइ, फिरि भानहि अपने घर आइ ।
खाहि रात दिन पसु की भान्ति, रहै एकन्त मृषा-मदमान्ति ॥६१२॥
यह बनारसी की दसा, भई दिनहु दिन गाढ़ ।
तब सम्बत चौरासिया, आयौ मास असाढ़ ॥६१३॥
भयौ तीसरी नारि कै, प्रथम पुत्र अवतार ।
दिवस कैकु रहि उठि गयौ, अलप-आयु संसार ॥६१४॥
छत्रपति जहाङ्गीर डिल्लीस, कीनौ राज बरस बाईस ।
कासमीर के मारग बीच, आवत हुई अचानक मीच ॥६१५॥
मासि चारि अन्तर परवांन, आयौ साहि जिहां सुलतान ।
बैठ्यौ तखत छत्र सिर तानि, चहू चक्क महिं फेरी आनि ॥६१६॥
सोलह सै चौरासिए, तखत आगरे थान ।
बैठ्यौ नाम धराय प्रभु, साहिब साहि किरान ॥६१७॥
फिरि सम्बत पच्चासिए, बहुरि दूसरी बार ।
भयौ बनारसि के सदन, दुतिय पुत्र अवतार ॥६१८॥
बरस एक द्वै अन्तर काल, कथा-शेष हूऔ सो बाल ।
अलप आउ ह्वै आवहिं जांहि, फिर सतासिए सम्बत मांहि ॥६१९॥
बानारसीदास आबास, त्रितिय पुत्र हूऔ परगास ।
उनासिए पुत्री अवतरी, तिन आऊषा पूरी करी ॥६२०॥
सब सुत सुता मरन-पद गहा, एक पुत्र कोऊ दिन रहा ।
सो भी अलप आउ जानिए, तातहिं मृतक-रूप मानिए ॥६२१॥
क्रम क्रम बीत्यौ इक्यानवा, आयौ सोलह सै बानवा ।
तब तांई धरि पहिली दसा, बानारसी रह्यौ इकरसा, ॥६२२॥
आदि अस्सिआ बानवा, अन्त बीच की बात ।
कछु औरौं बाकी रही, सो अब कहौं बिख्यात ॥६२३॥
चले बरात बनारसी, गए च्आतसू गांउ ।
बच्छा-सुत कौं ब्याहकै, फिरि आए निज ठांउ ॥६२४॥
अरु इस बीचि कबीसुरी, कीनी बहुरि अनेक ।
नाम , किए कबित सौ एक ॥६२५॥
, , ।
कीनी , फूटक कबित रसाल ॥६२६॥
भावना, ।
, , अन्तर रावन राम ॥६२७॥
बरनी , करि बचनिका दोइ ।
अष्टक, गीत बहुत किए, कहौं कहा लौं सोइ ॥६२८॥
सोलह सै बानवै लौं, कियौ नियत-रस-पान ।
पै कबीसुरी सब भई, स्यादवाद-परवांन ॥६२९॥
अनायास इस ही समय, नगर आगरे थान ।
रूपचन्द पण्डित गुनी, आयौ आगम-जान ॥६३०॥
टिहुना साहु देहुरा किया, तहां आइ तिनि डेरा लिया ।
सब आध्यातमी कियौ बिचार, ग्रन्थ बञ्चायौ ॥६३१॥
ता महिं गुनथानक परवांन, कह्यौ ग्यान अरु क्रिया-बिधान ।
जो जिय जिस गुनथानक होइ, तैसी क्रिया करै सब कोइ ॥६३२॥
भिन्न भिन्न बिबरन बिस्तार, अन्तर नियत बहिर बिबहार ।
सब की कथा सबै बिधि कही, सुनिकै संसै कछुव न रही ॥६३३॥
तब बनारसी औरै भयौ, स्यादवाद परिनति परिनयौ ।
पाण्डे रूपचन्द गुर पास, सुन्यौ ग्रन्थ मन भयौ हुलास ॥६३४॥
फिरि तिस समै बरस द्वै बीच, रूपचन्द कौं आई मीच ।
सुनि सुनि रूपचन्द के बैन, बानारसी भयौ दिढ़ जैन ॥६३५॥
तब फिरि और कबीसुरी, करी अध्यातम मांहि ।
यह वह कथनी एक-सी, कहौं विरोध किछु नांहि ॥६३६॥
हृदै मांहि कछु कालिमा, हुती सर-दहन बीच ।
सोऊ मिटि समता भई, रही न ऊञ्च न नीच ॥६३७॥
अब सम्यक्-दरसन उनमान, प्रगट रूप जानै भगवान ।
सोलह सै तिरानवै वर्ष, धरि हर्ष ॥६३८॥
भाषा कियौ भान के सीस, कबित सात सै सत्ताईस ।
अनेकान्त परनति परिनयौ, सम्बत आइ छानवा भयौ ॥६३९॥
तब बनारसी के घर बीच, त्रितिय पुत्र कौं आई मीच ।
बानारसी बहुत दुख कियौ, भयौ सोक सौं ब्याकुल हियौ ॥६४०॥
जग महिं मोह महा बलबान, करै एक सम जान अजान ।
बरस दोइ बीते इस भान्ति, तऊ न मोह होइ उपसान्ति ॥६४१॥
कही पचावन बरस लौं, बानारसि की बात ।
तीनि बिवाहीं भारजा, सुता दोइ सुत सात ॥६४२॥
नौ बालक हूए मुए, रहे नारि नारि नर दोइ ।
ज्यौं तरवर पतझार ह्वै, रहहिं ठूण्ठ-से होइ ॥६४३॥
तत्त्व-दृष्टि जो देखिए, सत्या-रथ की भान्ति ।
ज्यौं जा कौ परिगह घटै, त्यौं ता कौं उपसान्ति ॥६४४॥
संसारी जानै नहीं, सत्या-रथ की बात ।
परिगह सौं मानै बिभौ, परिगह बिन उतपात ॥६४५॥
अब बनारसी के कहौं, बरतमान गुन दोष ।
विद्यमान पुर आगरे, सुख सौं रहै स-जोष ॥६४६॥
भाषा-कबित अध्यातम मांहि, पटतर और दूसरौ नांहि ।
छमावन्त सन्तोषी भला, भली कबित पढ़िवे की कला ॥६४७॥
पढ़ै संसकृत प्राकृत सुद्ध, विविध-देसभाषा-प्रतिबुद्ध ।
जानै सबद अरथ कौ भेद, ठानै नही जगत कौ खेद ॥६४८॥
मिठ-बोला सब ही सौं प्रीति, जैन-धरम की दिढ़ परतीति ।
सहनसील नहिं कहै कुबोल, सुथिर-चित्त नहिं डावाण्डोल ॥६४९॥
कहै सबनि सौं हित उपदेस, हृदै सुष्ट न दुष्टता लेस ।
पर-रमनी कौ त्यागी सोइ, कुबिसन और न ठानै कोई ॥६५०॥
हृदय सुद्ध समकित की टेक, इत्यादिक गुन और अनेक ।
अलप जघन्न कहे गुन जोइ, नहि उतकिष्ट न निर्मल कोइ ॥६५१॥
कहे बनारसि के गुन जथा, दोष-कथा अब बरनौं तथा ।
क्रोध मान माया जल-रेख, पै लछिमी कौ लोभ बिसेख ॥६५२॥
पोतै हास कर्म का उदा, घर सौं हुवा न चाहै जुदा ।
करै न जप तप सञ्जम रीति, नही दान-पूजा सौं प्रीति ॥६५३॥
थोरे लाभ हरख बहु धरै, अलप हानि बहु चिन्ता करै ।
मुख अवद्य भाषत न लजाइ, सीखै भण्ड-कला मन लाइ ॥६५४॥
भाखै अकथ-कथा बिरतन्त, ठानै नृत्य पाइ एकन्त ।
अनदेखी अनसुनी बनाइ, कुकथा कहै सभा मीहि आइ ॥६५५॥
होइ निमग्न हास रस पाइ, मृषा-वाद बिनु रहा न जाइ ।
अकस्मात भय ब्यापै घनी, ऐसी दसा आइ करि बनी ॥६५६॥
कबहूं दोष कबहौं गुन कोइ, जा कौ उदौ सो परगट होइ ।
यह बनारसी-जी की बात, कही थूल जो हुती बिख्यात ॥६५७॥
और जो सूछम दसा अनन्त, ता की गति जानै भगवन्त ।
जे जे बातहिं सुमिरन भीई, ते ते बचन-रूप परिनीई ॥६५८॥
जे बूझी प्रमाद इह मांहि, ते काहू पै कही न जांहि ।
अलप थूल भी कहै न कोइ, भाषै सो जु केवली होइ ॥६५९॥
एक जीव की एक दिन, दसा होहि जेतीक ।
सो कहि सकै न केवली, जानै जद्यपि ठीक ॥६६०॥
मन-पर-जै-धर अबधि-धर, करहिं अलप चिन्तौन ।
हम-से कीट पतङ्ग की, बात चलावै कौन ॥६६१॥
तातहिं कहत बनारसी, जी की दसा अपार ।
कछू थूल महिं थूल-सी, कही बहिर बिबहार ॥६६२॥
बरस पञ्च पञ्चास लौं, भाख्यौ निज बिरतन्त ।
आगै भावी जो कथा, सो जानै भगवन्त ॥६६३॥
बरस पचाबन ए कहे, बरस पचाबन और ।
बाकी मानुष आउ महिं, यह उतकिष्टी दौर ॥६६४॥
बरस एक सौ दस अधिक, परमित मानुष आउ ।
सोलह सै अट्ठानबै, समै बीच यह भाउ ॥६६५॥
तीनि भान्ति के मनुज सब, मनुज-लोक के बीच ।
बरतहिं तीनौं काल महिं, उत्तम मध्यम नीच ॥६६६॥
जे पर-दोष छिपाइकै, पर-गुन कहहिं विशेष ।
गुन तजि निज दूषन कहहिं, ते नर उत्तम भेष ॥६६७॥
जे भाखहिं पर-दोष-गुन, अरु गुन-दोष सुकीउ ।
कहहिं सहज ते जगत महिं, हम-से मध्यम जीउ ॥६६८॥
जे पर-दोष कहहिं सदा, गुन गोपहिं उर बीच ।
दोष लोपि निज गुन कहहिं, ते जग महिं नर नीच ॥६६९॥
सोलह सै अट्ठानबै, सम्बत अगहन-मास ।
सोमबार तिथि पञ्चमी, सुकल पक्ष परगास ॥६७०॥
नगर आगरे महिं बसै, जैन-धर्म श्रीमाल ।
बानारसी बिहोलिआ, अध्यातमी रसाल ॥६७१॥
ता के मन आई यह बात, अपनौ चरित कहौं बिख्यात ।
तब तिनि बरस पञ्च पञ्चास, परमित दसा कही मुख भास ॥६७२॥
आगै जु कछु होइगी और, तैसी समुझहिंगे तिस ठौर ।
बरतमान नर-आउ बखान, बरस एक सौ दस परवांन ॥६७३॥
तातहिं अरध कथान यह, बानारसी चरित्र ।
दुष्ट जीव सुनि हंसहिंगे, कहहिं सुनहिंगे मित्र ॥६७४॥
सब दोहा अरु चौपाई, छ सै पिचत्तरि मान ।
कहहिं सुनहिं बाञ्चहिं पढ़हिं, तिन सब कौ कल्याण ॥६७५॥